डॉक्टरों को एक साल की अनिवार्य सार्वजनिक सेवा करनी होगी, कर्नाटक हाईकोर्ट ने नियम को सही ठहराया

LiveLaw News Network

27 Sep 2019 2:32 AM GMT

  • डॉक्टरों को एक साल की अनिवार्य सार्वजनिक सेवा करनी होगी, कर्नाटक हाईकोर्ट ने नियम को सही ठहराया

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने मेडिकल शिक्षा पूरी करने वाले उम्मीदवार अधिनियम, 2012 और नियम 2015 के तहत कर्नाटक अनिवार्य सेवा प्रशिक्षण को संवैधानिक रूप से सही ठहराया है। 2015 के इस नियम के तहत सभी छात्र जिन्होंने स्नातक, स्नातकोत्तर और सुपर स्पेशीऐलिटी कोर्स की डिग्री के लिए पंजीकरण किया है, को सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों में एक साल की अनिवार्य सेवा देनी होगी।

    न्यायमूर्ति कृष्णा दीक्षित ने कुछ छात्रों और अल्पसंख्यक संस्थानों की याचिका को ख़ारिज कर दिया जिनमें मुख्य रूप से इन नियमों को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह नियम क़ानूनन वैध नहीं है, भेदभावपूर्ण है और अन्य बातों के अलावा अनुच्छेद 14, 19(1), 19 और 21 के अधीन पेशेवर मौलिक अधिकारों को सीमित करने वाला और अनुच्छेद 23 के तहत ज़बरन काम नहीं कराने के क़ानून के ख़िलाफ़ और अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप करनेवाला है।

    अदालत ने अधिनियम और नियमों की वैधता को सही ठहराया, हालाँकि, उसने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह दो महीने के अंदर ₹15-30 लाख की जुर्माने की राशि की निगरानी और उचित किश्तों में जुर्माने की राशि के भुगतान और विलंब होने पर चालू बैंक दर पर ब्याज वसूलने जैसी बातों के लिए दिशानिर्देश तय करे।

    अदालत ने ऐसे पेशेवरों को छोटी अवधि या किसी अन्य तरह की वास्तविक मुश्किलों की स्थिति में उनकी मुश्किलों को दूर करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति बनाने को कहा। पेशेवरों की इन मुश्किलों में जुर्माना लगाने, कार्य की स्थिति, बुनियादी सुविधाएँ, आवास की ज़रूरत और आने जाने की सुविधाएं जैसी बातें शामिल हैं।

    मेडिकल प्रैक्टिशनरों के नियम के अनुसार इन्हें अनिवार्य सेवा के दौरान 'जूनियर रेज़िडेंट', 'सीनियर रेज़िडेंट', और 'सीनियर स्पेशलिस्ट' जैसे पद नाम दिए जाएँ और इन लोगों को मेडिकल प्रैक्टिस के लिए अल्पकालीन पंजीकरण दिया जाएगा।

    पीठ ने कहा, 'चूँकि राज्य इन उम्मीदवारों को कुछ अवधि के लिए सरकारी सेवा में भर्ती करता है जिसके लिए उनको निश्चित मासिक राशि (भले ही उसका नाम कुछ भी क्यों न हो) दी जाती है और उन्हें एक निश्चित पदनाम दिया जाता है और यह सब सार्वजनिक सेवा में होने का संकेत है…सभी सभ्य न्यायिक क्षेत्राधिकार में अनिवार्य रक्षा सेवाएँ हासिल की जाती हैं; यहाँ तक कि संविधान सभा में जो बहस हुई उसमें भी डॉ. अम्बेडकर और अन्य ने इसका ज़िक्र किया (सीएडी, वॉल्यूम VII, 3 दिसम्बर, 1948) इसका ज़िक्र किया है; अनिवार्य सेवाओं में भी नियोक्ता और नियुक्त के बीच संबंध को छोड़ा नहीं जाता है विशेषकर जब संविधान का अनुच्छेद 23(2) ख़ुद सार्वजनिक उद्देश्य से अनिवार्य सेवा की बात करता है।

    अदालत ने याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा, "कोई भी मौलिक अधिकार निरंकुश नहीं होता है…और उन पर सार्वजनिक हित में अंकुश लगाए जाते हैं; संबंधित अधिनियम का कोई भी प्रावधान प्रैक्टिस के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता; उलटे, कोर्स पूरा हो जाने के बाद यह अधिनियम मेडिकल प्रैक्टिस इजाज़त देता है और वह भी पदनाम, गरिमा और वेतन के साथ और वह भी सिर्फ़ एक साल के लिए; और यह सब कुछ किया जाता है सार्वजनिक हित में"।

    जहाँ तक याचिकाकर्ताओं की यह दलील है कि यह अधिनियम निजता के अधिकार को सीमित करता है, न्यायमूर्ति दीक्षित ने कहा, "राज्य को संविधान के अनुच्छेद 23(1) के तहत अपने नागरिकों को सार्वजनिक सेवाओं के लिए बाध्य करने का अधिकार है"।


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