सीजेआई ने कहा, यह विरोधाभास है कि अपने उपभोग के लिए तो जानवरों को मारा जा सकता है जबकि देवता को चढ़ाने और उसे खाने के लिए नहीं

LiveLaw News Network

17 July 2020 10:56 AM GMT

  • सीजेआई ने कहा, यह विरोधाभास है कि अपने उपभोग के लिए तो जानवरों को मारा जा सकता है जबकि देवता को चढ़ाने और उसे खाने के लिए नहीं

    सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को केरल एनिमल एंड बर्ड सैक्रिफ़ायसेस प्रोहिबिशन एक्ट, 1968 की संवैधानिकता को जायज़ ठहराने के केरल हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ दायर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई की।

    मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसए बोबडे, न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की पीठ ने मामले में नोटिस जारी किया। सीजेआई ने सुनवाई के क्रम में कहा कि यह विरोधाभास है कि उपभोग के लिए जानवरों को तो मारा जा सकता है पर देवताओं पर इसे चढ़ाने और बाद में खाने की मनाही है।

    उन्होंने कहा,

    "लोग कई तरह की बात कहते हैं। वे कहते हैं कि 1960 के क़ानून में जानवर को मारने की अनुमति है, लेकिन जानवरों के प्रति क्रूरता दिखाने की अनुमति नहीं है।"

    वे प्रिवेन्शन ऑफ़ क्रुएल्टी टू एनिमल्स एक्ट, 1960 का ज़िक्र कर रहे थे।

    इस बारे में अपील शक्ति उपासक एक व्यक्ति पीई गोपालकृष्णन ने दायर की है। उसका कहना है कि जानवरों को मारना उसके धर्म का एक अभिन्न हिस्सा है और केरल हाईकोर्ट जिसने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ दायर याचिका को रद्द कर दिया, जिसकी वजह से संविधान के अनुच्छेद 25(1) के तहत उसके इस मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है।

    केरल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस मणिकुमार और न्यायमूर्ति शाजी पी चैली की खंडपीठ ने 16 जून 2020 को अपने फ़ैसले में कहा कि रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री नहीं हैं कि हिंदू धर्म या किसी अन्य धर्म के तहत किस समुदाय में अगर ख़ुद उसका उपभोग करने के लिए नहीं तो देवता को प्रसन्न करने के लिए, जानवरों को मारने की ज़रूरत होती है।

    यह अपील वक़ील ए कार्तिक के माध्यम से दायर की गई है और कहा है कि याचिका को ख़ारिज करने का आदेश याचिकाकर्ता की दलीलों पर ग़ौर किए बिना ही सुना दिया गया है।

    याचिकाकर्ता ने कहा था,

    1) संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत यह याचिकाकर्ता के अधिकारों के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ है।

    याचिकाकर्ता का कहना है कि जानवरों की बलि शक्ति पूजा का अभिन्न हिस्सा है और चूंकि वह अपनी देवी को जानवरों की बलि नहीं चढ़ा सकता है तो इस बात की आशंका है कि उसको 'देवी का कोपभाजन' बनना पड़ेगा।

    अपनी दलील के समर्थन में उसने कई सैद्धांतिक मटेरियल पेश किए जिसमें धार्मिक पुस्तकों में कही गई बातें शामिल हैं और यह कि पशु बलि के धार्मिक और परंपरागत रिवाजों को बदला नहीं जा सकता।

    2) संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन

    याचिकाकर्ता ने कहा कि यह अधिनियम पशु बलि को अपराध घोषित करता है जबकि अन्य धार्मिक समुदायों में होने वाली इस तरह की बातों की अनदेखी की गई है। उसने कहा है कि अगर इसका उद्देश्य पशुओं की सुरक्षा है तो सभी धर्मों पर इसे लागू होना चाहिए।

    याचिका में कहा गया है कि देवता के लिए पशु बलि को अधिनियम में ग़ैरक़ानूनी घोषित किया गया है पर मंदिर परिसर में ही ख़ुद अपने उपभोग के लिए पशुओं को मारने पर कोई पाबंदी नहीं है। याचिका में कहा गया है कि इस तरह का मनमाना वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।

    3) यह अधिनियम केंद्र सरकार के क़ानून प्रिवेन्शन ऑफ़ क्रुल्टी टू एनिमल्स एक्ट, 1960 के ख़िलाफ़ है और इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 254 के तहत अवैध है।

    याचिका में कहा गया है कि केंद्र सरकार का क़ानून धार्मिक उद्देश्यों से पशुओं की बलि की छूट देता है पर यह विवादित क़ानून इसे चुनिंदा रूप में आपराधिक करार देता है और इस तरह वह केंद्रीय क़ानून को निष्फल कर देता है।

    याचिका में कहा गया है कि जो शब्द प्रयुक्त हुए हैं उसमें अंतर किया गया है। पहले के क़ानून में 'मारना' (killing) का प्रयोग हुआ है जबकि बाद के क़ानून में 'बलि' (sacrifice) का प्रयोग हुआ है। ऐसा राज्य क़ानून की धारा 2b को नज़रअन्दाज़ करने की वजह से हुआ है जिसमें कहा गया है कि 'बलि' भी मारने या अपंग बनाने जैसे कार्यों की परिधि में शामिल है।

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