आईपीसी के तहत आरोप जारी रह सकते हैं, भले ही भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत अपराध को लेकर मंजूरी नहीं है : सुप्रीम कोर्ट
LiveLaw News Network
3 Aug 2020 4:01 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत अभियुक्त के खिलाफ आरोप जारी रह सकता है, भले ही भ्रष्टाचार निरोधक अधिनयिम (पीसीए) के तहत अपराध के मामले में मंजूरी नहीं आई हो।
न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की खंडपीठ ने भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) के एक कर्मचारी की याचिका खारिज करते हुए झारखंड हाईकोर्ट के दृष्टिकोण से सहमति जतायी।
इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने डिस्चार्ज पिटीशन खारिज करते हुए कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी के कर्मचारी होने के नाते अभियुक्त आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 197 के तहत मुकदमे की मंजूरी के प्रावधान के जरिये संरक्षण हासिल करने का हकदार नहीं हैं, इसलिए उसने अभियुक्त के खिलाफ आईपीसी की धारा 120(बी)/420/406/407/409 के तहत आरोप तय किये जाने के आदेश दिये।
याचिकाकर्ता ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती देते हुए कहा कि जहां तक भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 और भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत आरोप का प्रश्न है तो दोनों एक जैसे हैं और पीसीए, 1988 के प्रावधानों के तहत मुकदमे की मंजूरी के अभाव में भारतीय दंड संहित के तहत आपराधिक मुकदमा नहीं चल सकता। अपनी इस दलील के समर्थन में उसने 2001 के 'रवीन्द्र कुमार शर्मा बनाम सरकार' के मामले में (क्रिमिनल लॉ जर्नल 2058) इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर भरोसा किया।
इन दलीलों को ध्यान में झारखंड हाईकोर्ट ने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट वाले उक्त मामले में अभियुक्त भारतीय दंड संहिता और पीसी एक्ट के प्रावधानों के तहत मुकदमे की मंजूरी लिये जाने संबंधी संरक्षण का हकदार था, लेकिन इस मामले में याचिकाकर्ता भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत किसी संरक्षण का हकदार नहीं था। हाईकोर्ट ने कहा कि उक्त मामले में मुकदमे की मंजूरी को लेकर अधिकारियों ने दिमाग का इस्तेमाल किया था और मौजूदा मामले में मुकदमे की मंजूरी का अभाव है, न कि मुकदमे की मंजूरी से इनकार। इसे सही ठहराते हुए हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता के खिलाफ अभियोग समाप्त करने से इनकार कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ याचिकाकर्ता की विशेष अनुमति याचिका खारिज करते हुए कहा उसे हाईकोर्ट के फैसले में कोई गड़बड़ी नजर नहीं आती।
बेंच ने कहा,
"हम हाईकोर्ट के इस दृष्टिकोण से हटने से इनकार करते हैं कि भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत याचिकाकर्ता के खिलाफ अभियोग जारी रह सकता है भले ही भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अभियोग की मंजूरी नहीं मिली है। इस प्रकार हमें हाईकोर्ट के संबंधित निर्णय में कोई गड़बड़ी नजर नहीं आती।
विवादित फैसले में हमारी समझ यह है कि हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 के तहत दंडनीय अपराध के लिए याचिकाकर्ता के खिलाफ मुकदमा चलाने को मंजूरी नहीं है, या मंजूरी नहीं दी गयी है तो उसके खिलाफ संबंधित कानून के प्रावधानों के तहत मुकदमा चलाने का सवाल नहीं उठता। ट्रायल कोर्ट को याचिकाकर्ता के खिलाफ मुकदमा चलाते वक्त इस पहलू पर ध्यान दिया जाना चाहिए।"
केस का नाम : सत्यव्रत गुप्ता बनाम झारखंड सरकार
केस नं. : एसएलपी (क्रिमिनल) संख्या. 2787/2020
कोरम : न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना
वकील : सीनियर एडवोकेट हरीन पी. रावल, एडवोकेट मुश्ताक अहमद (एओआर)