आरोप तय करते वक्त जांच अधिकारी द्वारा जुटाए सबूतों का आंकलन जरूरी नहींः इलाहाबाद हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
26 Nov 2019 12:33 PM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट को आरोप तय करने के चरण में अभियुक्तों के खिलाफ मात्र प्रथम दृष्टया केस की संभाव्यता का पता लगाना होता है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को दोहराया कि ट्रायल कोर्ट को आरोप तय करने के चरण में अभियुक्तों के खिलाफ मात्र प्रथम दृष्टया केस की संभाव्यता का पता लगाना होगा और यह आवश्यक नहीं है कि जांच अधिकारी द्वारा जुटाए गए सभी साक्ष्य का मूल्यांकन उसी चरण में किया जाए।
ये टिप्पणी एक महिला नेपाली देवी द्वारा दायर आवेदन में की गई, जिसमें उन्होंने अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश द्वारा दिए आदेश को चुनौती दी थी। अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश के आदेश में आरोपी के खिलाफ आईपीसी की कुछ धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे, हालांकि उस पर आईपीसी की धारा 436 के तहत घर आदि नष्ट करने के इरादे से आग लगाने जैसी शरारत करने के आरोप नहीं लगाए गए थे।
वकील अमरनाथ दूबे के माध्यम से आवेदक ने कहा था कि हालांकि आरोपी के खिलाफ झोपड़ी में आग लगाने का कोई आरोप नहीं था, फिर भी शिकायतकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 161 के तहत कहा था कि आरोपी ने एक व्यक्ति रामधार के मकान को आग लगा दी और इसलिए बहसतलब आदेश को उक्त कथन की अनभिज्ञता में पारित किया गया था और दरकिनार किए जाने के योग्य है।
जस्टिस दिनेश कुमार सिंह ने, ये देखते हुए कि उल्लिखित बयान सीआरपीसी की धारा 161 के तहत रिकॉर्ड पर था, ने कहा कि कोर्ट से ये अपेक्षा नहीं कि जा सकती कि आरोपों के निर्धारण के चरण में अदालत से हर एक प्रमाण का आंकलन करे।
"ये सही है कि शिकायतकर्ता या रामाधार के आवासीय परिसर में आग लगाने का कोई आरोप नहीं है, हालांकि शिकायतकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 161 के तहत अपने बयान में कहा है कि उपद्रवियों/आरोपियों ने रामाधार के छप्पर को आग लगा दी। । । हालांकि, आरोपों के निर्धारण के चरण में, विद्वान न्यायाधीश को केवल प्राइमा फेसी केस का पता लगाने के लिए साक्ष्यों का मूल्यांकन करने की आवश्यकता होती है, न कि उन्हें जांच अधिकारी द्वारा जुटाए गए हर बयान या हर साक्ष्य के बारे में विस्तार से जानने की आवश्यकता होती है। विद्वान सत्र न्यायाधीश ने एफआईआर के विवरण पर विचार करने और शिकायतकर्ता सहित अन्य गवाहों के बयान पर विचार करने के बाद राय दी कि आईपीसी की धारा 436 आईपीसी के तहत अपराध नहीं बनता है। "
जस्टिस सिंह ने आवेदक को आईपीसी की धारा 436 जोड़ने के लिए वैकल्पिक उपाय की संभावना के बारे में निर्देशित करते हुए कहा किः
"ट्रायल के दरम्यान, यदि शिकायतकर्ता या अभियोजन पक्ष की राय है कि कुछ अन्य अपराध (भी) अभियुक्तों द्वारा किए गए हैं, तो आरोपों में बदलाव के लिए सीआरपीसी की धारा 216 के तहत आवेदन दायर करने का विकल्प हमेशा खुला रहता है।
इसलिए, याचिकाकर्ता को ये आजादी देते हुए कि उन सबूतों के अतिरिक्त, जिनके लिए आरोप फ्रेम हो चुके हैं, कोई और सबूत है तो वे उचित स्तर पर एक आवदेन दायर कर सकते हैं, इस याचिका का निस्तारण किया जा रहा है। "
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