एक संस्थान के रूप में जो संभव था उससे ज़्यादा हमने देने की कोशिश की है : सीजेआई गोगोई ने जजों से कहा

LiveLaw News Network

18 Nov 2019 4:20 AM GMT

  • एक संस्थान के रूप में जो संभव था उससे ज़्यादा हमने देने की कोशिश की है : सीजेआई गोगोई ने जजों से कहा

    "एक संस्थान के रूप में हमें निगरानी कार्यों पर ज़्यादा ध्यान देना है ताकि हम ऐसे स्थानीय प्रभावों से अपने अदालत परिसरों, अपनी न्यायिक प्रक्रियाओं, अपने जजों और कर्मचारियों को ऐसे स्थानीय प्रभावों से सुरक्षित रख सकें जिनका हमारे सस्थान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है पर जो हमारी प्रक्रिया का प्रयोग अपने घृणात्मक षड्यंत्र को अंजाम देते हैं"।

    अपने कार्यकाल के अंतिम दिन सीजेआईए रंजन गोगोई ने 650 से अधिक हाईकोर्ट जजों और न्यायिक अधिकारियों को विडीओ कंफ्रेंसिंग से बातचीत के दौरान यह सब कहा।

    गोगोई ने 3 अक्टूबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का पद संभाला था। अयोध्या भूमि विवाद और असम के नैशनल रजिस्टर जैसे विवादों पर गठित पीठों की अध्यक्षता की। उनका कार्यकाल 17 नवंबर को समाप्त हो रहा है।

    अदालत में अनुशासन

    अपने संबोधन में जस्टिस गोगोई ने संतोष जताया और उम्मीद ज़ाहिर की कि यह संस्थान का भार 'मजूबत कंधे' पर होगा ।

    "हमने देखा है कि कैसे हमारा संस्थान मुश्किलों का सामना करते हुए काम कर रहा है और कैसे आप में से सब ने न्याय की उम्मीद को इतनी गड़बड़ियों और सामाजिक-आर्थिक उठापटक के बीच में ज़िंदा रखा है।" उन्होंने कहा।

    हालाँकि, वह कुछ कर्तव्यच्यूत अधिकारियों की अनुशासनहीनता और उनके आचरण से दुखी दिखे।

    "हमारे अदालत परिसर में ही, तमीज़ और अनुशासन जो किसी समय हमारे संस्थान की हमेशा ही पहचान रही है, के प्रति लोगों का व्यवहार बदल रहा है। यह दुःख की बात है कि ऐसी बेरुख़ी ऐसे लोगों में ज़्यादा देखी जा रही है जो न्याय दिलाने की आधारभूत सुविधाओं से संबद्ध हैं लेकिन इसके बावजूद वे इसकी सेहत और प्रगति के प्रति बेरुख़ी रखते हैं। मैं यह पूरे विश्वास से कहता हूँ कि अगर अदालतों को न्याय का पहरेदार और संवैधानिक दृष्टि का रक्षक होने के रूप में इसकी सुरक्षा और इसको आगे ले जाना है तो भविष्य के नेताओं और विचारकों को न्याय दिलाने की व्यवस्था पर दुबारा ग़ौर करना चाहिए। इस तरह की जवाबदारी का वहन करने वाले लोगों में हमारे संस्थान की गरिमा एक प्रति बेरुख़ी पिछले कुछ वर्षों में एक नई ऊँचाई तक पहुँच गई है और गुंडागर्दी और डराना धमकाना हमारी अदालती व्यवस्था के कुछ हिस्सों में आम हो गई है। इसको स्वीकार करना ज़रूरी है ताकि इस षड्यंत्र को निष्फल किया जा सके और हमारे संस्थान की गरिमा बची रह सके"।

    इसके बाद जस्टिस गोगोई ने हाइकोर्टों से कहा कि हाईकोर्ट और ज़िला और अधीनस्थ अदालतों के स्तर पर जो हो रहा है उसके प्रति सतर्क रहें।

    उन्होंने कहा,

    "हाईकोर्टों को इस बारे में सतर्क रहना चाहिए…कि अदालत परिसर और उनकी प्रक्रियाएँ और काम करने का तरीक़ा स्थानीय कारकों के प्रभाव से मुक्त रहें पूरे अधिकार क्षेत्र में वे एक यूनिट के रूप में काम करें। एक संस्था के रूप में, अब समय आ गया है कि एक संस्थान के रूप में हमें निगरानी कार्यों पर ज़्यादा ध्यान देना है ताकि हम ऐसे स्थानीय प्रभावों से अपने अदालत परिसरों, अपनी न्यायिक प्रक्रियाओं, अपने जजों और कर्मचारियों को ऐसे स्थानीय प्रभावों से सुरक्षित रख सकें जिनका हमारे सस्थान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है पर जो हमारी प्रक्रिया का प्रयोग अपने घृणात्मक षड्यंत्र को अंजाम देते हैं।"

    बार का व्यवहार

    सीजेआई गोगोई ने कहा कि मुक़दमादारों या वकीलों पर अदालत का कोई प्रशासनिक नियंत्रण नहीं है और यह पक्षकारों और वकीलों पर ही निर्भर है कि न्याय दिलाने की व्यवस्था में उनकी भूमिका क्या होती है।

    "पूरे देश में विशेषकर पिछले कुछ वर्षों में हमारे संस्थान की जो स्थिति हुई है उसको देखते हुए यह कहना ज़रूरी हो गया है कि वकीलों और बार एसोसिएशनों और बार काउन्सिल के उनके चुने हुए प्रतिनिधियों को बैठना चाहिए और मामलों को सुनवाई के लिए तैयार करने के मामले पर अंतरावलोकन करना चाहिए। मेरे विचार में, बार के सदस्यों में स्व-विनियमन और यह स्वीकारोक्ति कि वे अदालत के अधिकारी हैं, एक अच्छा तरीक़ा होगा और उस स्थिति में अगर लोकतंत्र के अधीन इस तरह के बदलाव पर जनता अपना ध्यान केंद्रित करती है तो किसी भी तरह के विधाई आदेश से निपटने में अदालत अच्छी स्थिति में होगी"।

    उन्होंने कहा कि अदालत सरकारी कार्यालयों के तरह काम नहीं करता जिन्हें एक ही ओर से आदेश मिलता है और किसी मामले की सुनवाई में जिस तरह के विभिन्न बातें शामिल होती हैं, यह नहीं कहा जा सकता कि कोई मुक़दमा किसी निर्धारित अवधि में सुलझा लिया जाएगा।

    लंबित मामले

    सीजेआई ने अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मामलों का भी ज़िक्र किया। अपनी नियुक्ति के तुरंत बाद से वे न्यायिक नियुक्तियों और लंबित मामलों में बेतहाशा वृद्धि को लेकर बहुत ही मुखर रहे हैं।

    उन्होंने अधिकारियों से कहा कि एक आंतरिक अध्ययन के अनुसार, कम से कम 48% लंबित मामले आपराधिक मामलों से जुड़े हैं जिसमें आरोपियों को पेश तक नहीं किया गया है जबकि 23% मामले दीवानी हैं जिनमें पक्षकारों की पेशी नहीं हुई है।

    "यह तर्क के परे है। लंबित की श्रेणी में आने वाले मामलों के आँकड़े को हमारे सामने पेश करना पागलपन है। भविष्य के नेताओं को इस शब्द पर गंभीरता से विचार करना होगा, इसे परिभाषित करना होगा और एक फ़्रेमवर्क तैयार करना होगा ताकि जो मामला एक जज के समक्ष लंबित मामला नहीं है को लंबित मामलों के रूप में आँकड़ों में पेश किया जाता है," उन्होंने कहा।

    उन्होंने कहा कि इसके बावजूद कि वे न्यायिक और प्रशासनिक क्षमताओं की दृष्टि से एक दूसरे से अलग हैं, दोनों का लक्ष्य वही है और दोनों ने ही संविधान की शपथ ली है और वे सब न्याय की तलाश के एकल लक्ष्य से बँधे हैं।

    "मुझे यह कहते हुए कोई हिचक नहीं है कि हमारी न्याय व्यवस्था न केवल भारतीय है बल्कि इसकी जड़ भी एक देश के नागरिक के रूप में हम सब को एक नियति से बाँधने वाली हमारी आशाओं में है।

    उन्होंने कहा,

    "…यह मत भूलिए कि इस देश के नागरिकों को एक करने वाले वृहत्तर कथानक का आप एक हिस्सा हैं और इस रूप में देश में न्याय दिलाने की व्यवस्था को मज़बूत करने में आपकी एक भूमिका है। इस संदर्भ में, आप में से हर एक व्यक्ति राष्ट्र निर्माता है और शेष नागरिकों और विशेषकर मुक़दमादारों के प्रति आपका दैनिक कर्तव्य, सब एक ही व्यवस्था का हिस्सा है।"

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