बिना स्टाम्प लगे समझौतों में मध्यस्थता खंड लागू करने योग्य हैं : सुप्रीम कोर्ट सात जजों की पीठ ने ' एन एन ग्लोबल' फैसले को पलटा

LiveLaw News Network

13 Dec 2023 7:34 AM GMT

  • बिना स्टाम्प लगे समझौतों में मध्यस्थता खंड लागू करने योग्य हैं : सुप्रीम कोर्ट सात जजों की पीठ ने  एन एन ग्लोबल फैसले को पलटा

    सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की पीठ ने बुधवार (13 दिसंबर) को फैसला सुनाया कि बिना स्टाम्प लगे या अपर्याप्त स्टाम्प लगे समझौतों में मध्यस्थता खंड लागू करने योग्य हैं। स्टाम्प की अपर्याप्तता समझौते को शून्य या अप्रवर्तनीय नहीं बनाती है बल्कि इसे साक्ष्य में अस्वीकार्य बनाती है। हालांकि, भारतीय स्टाम्प अधिनियम के अनुसार यह एक उपचार योग्य दोष है।

    कोर्ट ने मैसर्स एन एन ग्लोबल मर्केंटाइल प्रा लिमिटेड बनाम एमएस इंडो यूनिक फ्लेम लिमिटेड और अन्य में इस साल अप्रैल में 5 जजों की बेंच द्वारा दिए गए फैसले को खारिज कर दिया। इसने 3:2 के बहुमत से माना था कि बिना स्टाम्प लगे मध्यस्थता समझौते लागू करने योग्य नहीं हैं।

    भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने इन रि : मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 और भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 के तहत मध्यस्थता समझौतों के मामले में फैसला सुनाया।

    निष्कर्ष

    सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने फैसले के निष्कर्ष इस प्रकार पढ़े:

    ए- जिन समझौतों पर स्टाम्प नहीं लगी है या अपर्याप्त रूप से स्टाम्प लगी है, वे प्रारंभ से ही शून्य या अप्रवर्तनीय नहीं हैं, वे साक्ष्य के रूप में अस्वीकार्य हैं।

    बी- गैर-स्टाम्पिंग या अपर्याप्त स्टाम्पिंग एक उपचार योग्य दोष है।

    सी- स्टाम्पिंग के संबंध में कोई आपत्ति मध्यस्थता अधिनियम की धारा 8 या 11 के तहत निर्धारण के लिए नहीं आती है तो संबंधित अदालत को यह जांच करनी चाहिए कि प्रथम दृष्टया मध्यस्थता समझौता मौजूद है या नहीं।

    डी- समझौते पर स्टाम्प लगाने के संबंध में कोई भी आपत्ति मध्यस्थ ट्रिब्यूनल के दायरे में आती है।

    इ- एनएन ग्लोबल 2 और एसएमएस टी एस्टेट्स के फैसले को खारिज कर दिया गया है

    सीजेआई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में बताया कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम का एक उद्देश्य मध्यस्थता समझौतों में अदालतों की पर्यवेक्षी भूमिका को कम करना है। धारा 8 और 11 के तहत स्टाम्पिंग के मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए न्यायालय को बाध्य करना कानून के उद्देश्य को विफल कर देगा।

    जस्टिस संजीव खन्ना ने एक सहमति वाली राय लिखी जिसमें कहा गया कि बिना स्टाम्प लगे समझौते शुरू से ही शून्य नहीं माने जाते हैं।

    पृष्ठभूमि

    7-न्यायाधीशों की पीठ का मामला भास्कर राजू एंड ब्रदर्स और अन्य बनाम के धर्मरत्नाकर राय बहादुर आरकोट नारायणस्वामी मुदलियार छत्रम और अन्य चैरिटीज़ और अन्य में अपने 2020 के फैसले के खिलाफ दायर एक क्यूरेटिव याचिका से उत्पन्न हुआ। क्यूरेटिव याचिका पर सुनवाई करते हुए, 5-न्यायाधीशों की पीठ ने एनएन ग्लोबल की सत्यता पर फिर से विचार करने के लिए इस साल सितंबर में मामले को 7-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया।

    2020 में, भास्कर राजू एंड ब्रदर्स और अन्य बनाम के धर्मरत्नाकर राय बहादुर आरकोट नारायणस्वामी मुदलियार छत्रम और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक समझौते में एक मध्यस्थता खंड जिस पर विधिवत स्टाम्प लगाई जानी आवश्यक है, यदि पर्याप्त रूप से स्टाम्पिंग नहीं हैं तो न्यायालय द्वारा उस पर कार्रवाई नहीं की जा सकती।

    उक्त मामले में, समझौते के एक पक्ष ने कर्नाटक हाईकोर्ट के समक्ष मध्यस्थता अधिनियम की धारा 11(6) के तहत एक याचिका दायर की। दूसरे पक्ष ने उपस्थिति दर्ज की और तर्क दिया कि लीज डीड पर अपर्याप्त रूप से स्टाम्प लगी होने के कारण इसे कर्नाटक स्टाम्प अधिनियम, 1957 की धारा 33 के तहत अनिवार्य रूप से जब्त किया जाना चाहिए और जब तक उचित शुल्क और जुर्माना का भुगतान नहीं किया जाता तब तक इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। हालांकि, हाईकोर्ट ने अधिनियम की धारा 11(6) के तहत शक्ति का इस्तेमाल किया, और पक्षों के बीच विवाद का फैसला करने के लिए एक मध्यस्थ नियुक्त किया।

    अपील में, तत्कालीन सीजेआई एसए बोबडे, जस्टिस बीआर गवई और सूर्यकांत की शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा कि माना कि, दोनों लीज डीड न तो पंजीकृत हैं और न ही कर्नाटक स्टाम्प अधिनियम, 1957 के तहत आवश्यक रूप से पर्याप्त रूप से स्टाम्पिंग हैं। पीठ ने एसएमएस टी एस्टेट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम चांदमारी टी कंपनी प्राइवेट लिमिटेड पर भरोसा किया था ।

    अप्रैल में, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने 3:2 के बहुमत से माना कि बिना स्टाम्प लगे अनुबंध में मध्यस्थता समझौता अप्रवर्तनीय है।

    इस साल 18 जुलाई को, 5-न्यायाधीशों की पीठ ने भास्कर राजू एंड ब्रदर्स और अन्य बनाम के धर्मरत्नाकर राय बहादुर आरकोट नारायणस्वामी मुदलियार छत्रम और अन्य चैरिटीज़ और अन्य में 2020 के फैसले के खिलाफ दायर क्यूरेटिव याचिका में नोटिस जारी किया। क्यूरेटिव पिटीशन पर सुनवाई करते हुए 5 जजों की बेंच द्वारा मेसर्स एनएन ग्लोबल मर्केंटाइल प्रा लिमिटेड बनाम एमएस इंडो यूनिक फ्लेम लिमिटेड और अन्य के मामले में दिए गए फैसले की वैधता पर चर्चा की गई।

    एनएन ग्लोबल में, जस्टिस केएम जोसेफ , जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस सीटी रविकुमार की एक पीठ ने इस मुद्दे पर 3:2 के बहुमत से संदर्भ का उत्तर दिया था। बहुमत ने फैसला किया था कि जिस दस्तावेज़ पर स्टाम्प नहीं लगी है, उसे अनुबंध अधिनियम की धारा 2 (एच) के अर्थ के तहत कानून में लागू करने योग्य अनुबंध नहीं कहा जा सकता है। 26 सितंबर को 5 जजों की बेंच ने एनएन ग्लोबल की सत्यता पर फिर से विचार करने के लिए इस मुद्दे को एक बड़ी बेंच के पास भेज दिया था।

    न्यायालय के समक्ष दलीलें

    याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि मध्यस्थता समझौते का अस्तित्व और मध्यस्थता समझौते की वैधता दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं। इसके अलावा, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 के तहत,अदालत की शक्ति समझौते के अस्तित्व की जांच तक ही सीमित थी न कि उसकी वैधता तक। इस प्रकार, अदालत को केवल यह निर्धारित करना था कि कोई समझौता अस्तित्व में है या नहीं। याचिकाकर्ताओं के अनुसार, दूरसंचार, बयान, ज़ूम कॉल आदि सहित पक्षों के बीच पत्राचार की प्रकृति का विश्लेषण करके भी ऐसा किया जा सकता है। हालांकि, समझौते की वैधता पर निर्णय मध्यस्थ को करना था। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि धारा 16 का दायरा, जो अपने अधिकार क्षेत्र पर शासन करने के लिए एक मध्यस्थ ट्रिब्यूनल की क्षमता से संबंधित है, इतना व्यापक था कि मध्यस्थ को दस्तावेज़ की स्टाम्प लगाने के संबंध में विचार करने की अनुमति दी जा सके। उन्होंने यह तर्क देने के लिए 'पृथक्करण के सिद्धांत' पर भी भरोसा किया कि भले ही कोई समझौता अमान्य हो, उसके भीतर मध्यस्थता समझौता अभी भी जीवित रहेगा क्योंकि यह 'अलग' है।

    इसके विपरीत, उत्तरदाताओं ने मामले को उसके क्यूरेटिव क्षेत्राधिकार में सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंपने के सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ के फैसले पर सवाल उठाया। यह दावा किया गया था कि अदालत के क्यूरेटिव क्षेत्राधिकार का प्रयोग केवल एक व्यक्तिगत मामले में हुए अन्याय के संबंध में किया जा सकता है।

    केस : इन रि : मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 और भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 के तहत मध्यस्थता समझौतों में सीए संख्या 1599/2020 में आरपी (सी) संख्या 704/2021 में क्यूरेटिव याचिका (सी) संख्या 44/2023

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