आदिवासियों पर नहीं बल्कि वनभूमि पर अतिक्रमण करने वाले शहरियों पर होनी चाहिए कार्रवाई, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
LiveLaw News Network
14 Sept 2019 10:12 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि आदिवासी, जो वास्तविक वनवासी हैं , उन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए और बेदखली का आदेश केवल वनभूमि के 'शहरी अतिक्रमणकारियों' के खिलाफ दिया जाना चाहिए।
जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस एम.आर शाह और जस्टिस बी.आर गवई की पीठ ने यह मौखिक टिप्पणी वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) को लेकर दायर कई याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान की है।
कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप करने की मांग वाली उन अर्जियों को भी स्वीकार कर लिया है, जो कई व्यक्तियों ने व्यक्तिगत तौर पर दायर की थी और कुछ अर्जी आदिवासी संगठनों की तरफ से एफआरए के बचाव में दायर की गई थी। अब इस मामले में अगली सुनवाई 28 नवम्बर को होगी।
कोर्ट ने सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे उनके अधिकारक्षेत्र में आने वाली वन भूमि के वन सर्वे की विस्तृत रिपोर्ट अगली सुनवाई पर पेश करें।
प्रतिवादियों/हस्तक्षेप करने वालों की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्वेस और संजय पारिख पेश हुए और दलील दी कि कार्रवाई सिर्फ 'शहरी अतिक्रमणकारियों' के खिलाफ होनी चाहिए, जो वनवासियों का मुखौटा ओढ़े हुए हैं। याचिकाकर्ताओं ने भी वनभूमि पर अतिक्रमण करके बनाए गए बड़े टूरिस्ट रिसोर्ट और विला के प्रति चिंता जाहिर की।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, वनभूमि से बेदखल किया जाए
13 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि उन सभी लोगों को वनभूमि से बेदखल किया जाए, जिनको एफआरए के तहत वनवासी नहीं माना गया है या उनके वनवासी होने का दावा खारिज कर दिया गया है, परंतु इस आदेश के प्रति चिंता जाहिर की गई, क्योंकि इससे कम से कम दस मिलियन आदिवासी बेदखल हो जाते। वन अधिकारों के कार्यकर्ताओं ने इंगित किया कि बहुत सारे लोगों के दावों को यांत्रिक तरीके से खारिज कर दिया गया और उनके दावों पर ठीक से विचार नहीं किया गया था। इतना ही नहीं, बहुत सारे वनवासियों को अपीलीय उपचार के बारे में जानकारी ही नहीं है।
न्यायालय ने अपने निर्देश में साफ कहा था कि सभी राज्य 24 जुलाई तक इस बेदखली के काम का पूरा कर दें।
इस आदेश पर विवाद होने के बाद केंद्र सरकार ने एक अर्जी दायर कर इस पर रोक की मांग की थी। 28 फरवरी को कोर्ट ने अपने पूर्व में दिए गए आदेश पर रोक लगा दी थी। साथ ही सभी राज्यों को निर्देश दिया था कि वनभूमि पर इन दावों के न्यायिक निर्णय की प्रक्रिया के तौर-तरीकों का खुलासा करते हुए हलफनामा दायर करें।
क्या बेदखल किए जाने वाले लोगों को समय-समय पर सूचित किया गया था?
कोर्ट को बताया गया कि वनवासी होने का दावा करने वाले बहुत सारे लोगों के पास ज़रूरी कागजात भी नहीं हैं, जिसके बाद कोर्ट ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे बताएं कि क्या उन्होंने वनवासी होने का दावा करने वाले लोगों के दावे उचित प्रक्रिया अपनाने के बाद ही खारिज किए थे? क्या बेदखल किए जाने वाले लोगों को समय-समय पर सूचित किया गया था? क्या राज्य स्तरीय निगरानी समितियों की अनुमति ली गई, जो यह सुनिश्चित करती हैं कि अधिनियम के तहत औपचारिकताओं के अनुपालन के अलावा कोई आदिवासी विस्थापित न किया जाए।
इस मामले में याचिकाएं एनजीओ वाइल्ड लाइफ फर्स्ट व कुछ रिटायर्ड वन अधिकारियों की तरफ से वन अधिकार अधिनियम की वैधता को चुनौती देते हुए दायर की गई है। याचिकाकर्ताओं के अनुसार इस अधिनियम के कारण वनों की कटाई व उन पर अतिक्रमण बढ़ गया है। वर्ष 2008 में दायर की गई याचिकाओं में उन व्यक्तियों के कब्जे से वनभूमि वापिस लेने की भी मांग की गई है, जिनके दावे वन अधिकार अधिनियम के तहत खारिज किए जा चुके हैं।
याचिकाकर्ताओं के अनुसार सभी राज्यों में किए गए 44 लाख दावों में से लगभग 20.50 लाख लोगों के दावे खारिज कर दिए गए थे। वहीं, इस मामले में एक महत्वूपर्ण पहलू यह भी रहा है कि जब वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने 27 अगस्त को एक अर्जी दायर कर कहा कि वह अपने आप को इस केस के एक याचिकाकर्ता के तौर पर हटाना चाहती है।
वर्ष 2006 अधिनियम वन निवास करने वाले उन अनुसचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों को मान्यता देकर उनके साथ किए गए ''ऐतिहासिक अन्याय'' को ठीक करने का प्रयास करता है, जो पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे है। लेकिन उनके अधिकारों को दर्ज नहीं किया जा सका है।
अधिनियम के तहत अधिकारों के लिए पात्र होने के लिए एक व्यक्ति को निम्नलिखित पात्रता पूरी करनी होती है-
परंपरागत रूप से जंगलों या वनभूमि में रहता हो
परंपरागत रूप से आजीविका के लिए वन उपज पर निर्भर है।
अधिनियम व्यक्तियों के दो वर्गो को मान्यता देता है-
वन आवास अनुसूचित जनजाति-वनों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति के सदस्य।
अन्य पारंपरिक वनवासी (ओटीफडी)- जंगल में रहने वाले व्यक्ति या 75 वर्षो से वन उपज पर निर्भर रहने वाले व्यक्ति
अधिनियम की धारा 6 दावों को स्थापित करने की प्रकिया तय करती है।
एक बार दावे साबित हो जाएं तो उसके बाद वनवासियों को भूमि के अधिकार, उसके उपयोग के अधिकार और वनभूमि को संरक्षित करने व उसकी सुरक्षा के अधिकार मिल जाएंगे।