सुप्रीम कोर्ट ने शिलांग टाइम्स की संपादक और प्रकाशक के खिलाफ मेघालय HC के अवमानना के फैसले पर रोक लगाई

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16 March 2019 6:32 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने शिलांग टाइम्स की संपादक और प्रकाशक के खिलाफ मेघालय HC के अवमानना के फैसले पर रोक लगाई

    सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मेघालय उच्च न्यायालय द्वारा पारित उस फैसले पर रोक लगा दी जिसमें शिलांग टाइम्स की संपादक पेट्रीसिया मुखीम और प्रकाशक शोभा चौधरी को अदालत की अवमानना ​​का दोषी ठहराया था और उन्हें कोर्ट उठने तक बैठे रहने व 2 लाख रुपये जुर्माना अदा करने की सजा सुनाई थी। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली पीठ ने पत्रकारों द्वारा दायर याचिका पर हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को नोटिस भी जारी किया।

    8 मार्च को मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद याकूब मीर और न्यायमूर्ति एस. आर. सेन की उच्च न्यायालय डिवीजन बेंच ने पत्रकारों के खिलाफ मुकदमा शुरु किया था। अदालत ने "शिलांग टाइम्स" में प्रकाशित एक लेख पर ये मामला शुरु किया जिसमें लिखा गया था, "जब न्यायाधीश खुद के लिए न्यायाधीश हो।"

    इसमें न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त लाभों को बढ़ाने के लिए न्यायमूर्ति सेन द्वारा पारित आदेशों की श्रृंखला की आलोचना की थी। लेख में कहा गया कि राज्य सरकार को न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त लाभों को बढ़ाने पर विचार करने का निर्देश देकर, जब उनके स्वयं की सेवानिवृत्ति आसन्न थी, न्यायमूर्ति सेन अपने स्वयं के मामले का न्याय कर रहे थे। लेख ने न्यायमूर्ति सेन के आदेशों की तुलना मेघालय उच्च न्यायालय की एक पीठ द्वारा पारित पहले के आदेश के साथ की जिसमें जजों को जेड प्लस सुरक्षा देने को कहा गया था जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया।

    लेख से नाराज होकर न्यायमूर्ति सेन ने 8 मार्च के आदेश में लिखा: "हम पूछना चाहेंगे कि क्या वो अपनी इच्छा के अनुसार न्यायपालिका को नियंत्रित करना चाहती हैं? यदि ऐसा है, तो वह बहुत गलत है । वो कोर्ट के उठने तक कोर्ट रूम के कोने में बैठें और रुपए 2 लाख का जुर्माना दें। यदि जुर्माने के भुगतान में चूक होती है तो पत्रकारों को 6 महीने की साधारण कारावास की सजा काटनी होगी और "शिलांग टाइम्स" नामक पेपर स्वतः समाप्त (प्रतिबंधित) हो जाएगा।"

    सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में मुखीम और चौधरी ने कहा कि रिपोर्ट अदालती कार्यवाही की "निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग" थी। वे यह भी तर्क देती हैं कि यह आदेश "विकृति" से पीड़ित है और यह सजा "स्पष्ट रूप से मनमानी" है क्योंकि 2 लाख रुपये का जुर्माना अदालतों के अधिनियम की धारा 12 के तहत 2000 रुपये के जुर्माना की अधिकतम सजा से अधिक है।

    उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि आदेश पारित करते समय उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। उन पर दिया गया नोटिस सिविल अवमानना की प्रकृति का था, लेकिन उनके खिलाफ आपराधिक अवमानना की कार्रवाई की गई थी।

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