' पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका को नष्ट नहीं किया जा सकता' : संविधान पीठ ने CJI कार्यालय के RTI के तहत आने के मुद्दे पर फैसला सुरक्षित रखा

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5 April 2019 11:30 AM IST

  •  पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका को नष्ट नहीं किया जा सकता : संविधान पीठ ने CJI कार्यालय के RTI के तहत आने के मुद्दे पर फैसला सुरक्षित रखा

    सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका को नष्ट नहीं किया जा सकता। हालांकि पीठ प्रणाली के और अधिक पारदर्शी होने के विपरीत नहीं है लेकिन सवाल ये है कि ये विभाजन रेखा कहां पर खींची जानी चाहिए।

    इसी के साथ मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एन. वी. रमना, जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया कि CJI कार्यालय सूचना के अधिकार के तहत आ सकता है या नहीं।

    "कोई भी अपारदर्शी प्रणाली का पक्षधर नहीं"
    सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "आइए इसे स्वीकार करें कि यहां कोई भी अपारदर्शिता की प्रणाली का पक्षधर नहीं नहीं है। लेकिन प्रश्न है कि हम विभाजन रेखा कहाँ खींचते हैं? आपको समझना चाहिए कि पारदर्शिता के नाम पर हम पूरे संस्थान को नष्ट नहीं कर सकते।"

    वहीं याचिकाकर्ता की ओर से पेश प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक उम्मीदवारों को उनके आपराधिक इतिहास और उनकी संपत्ति आदि का विवरण सार्वजनिक करने का फैसला देकर सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के लिए बेंचमार्क तय किया था।

    उनका तर्क था कि न्यायपालिका के पास खुद के लिए अलग मानक लागू नहीं होना चाहिए। आरटीआई अधिनियम के तहत जनता को न्यायाधीशों के लिए नियुक्तियों और नामों की अस्वीकृति के लिए प्रक्रिया, उनकी संपत्ति आदि के विवरण का खुलासा करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। इस तरह के खुलासे से निश्चित रूप से जनता में न्यायपालिका के प्रति विश्वास बढे़गा।

    "लेकिन सीमा रेखा कहाँ पर खींची जाए१"
    लेकिन जस्टिस गोगोई ने टिप्पणी की, "सवाल यह है कि हम लाइन कहाँ खींचते हैं। सार्वजनिक जीवन में सरकारी कामकाज में पारदर्शिता को लेकर कोई विवाद नहीं है।" CJI ने बताया कि पिछले 2 वर्षों में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के नामों की नियुक्ति/अस्वीकृति के लिए अपने प्रस्ताव को सार्वजनिक करना शुरू कर दिया है।

    न्यायमूर्ति गोगोई ने आगे कहा कि हालांकि नियम के तहत ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है फिर भी कॉलेजियम के सदस्य व्यक्तिगत रूप से कई उम्मीदवारों के साथ बातचीत करते हैं और उनकी उपयुक्तता/पात्रता निर्धारित करते हैं।

    लोगों को अधिक से अधिक जानकारी होनी चाहिए
    इसपर भूषण ने कहा कि उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि इसका एक निश्चित तत्व है कि हाल के दिनों में कॉलेजियम द्वारा पारदर्शिता पेश की गई थी लेकिन लोगों को एक ही समय में अधिक जानकारी जानने का अधिकार होना चाहिए। खासतौर से आरटीआई अधिनियम के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति के कारणों पर याकिसी विशेष नाम को अस्वीकार करने के कारण पर।

    उन्होंने कहा कि न्यायपालिका का दायित्व है कि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति, संपत्ति आदि की सूचना दे क्योंकि वे सार्वजनिक रूप से कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं। उन्होंने इशारा किया कि डॉक्टर और मरीज के बीच एक- दूसरे से संबंध होता है, वकील और मुव्वकिल या चार्टर्ड एकाउंटेंट और उसके ग्राहक के बीच भी। ऐसे रिश्ते में जानकारी का खुलासा नहीं किया जा सकता लेकिन न्यायाधीशों के लिए, जो बड़े पैमाने पर जनता के लिए काम कर रहे हैं, ऐसा कोई विशेषाधिकार उपलब्ध नहीं है ।

    इसपर CJI ने एक उदाहरण का हवाला दिया कि एक जिला न्यायाधीश (डीजे) को कैसे उच्च न्यायालय के लिए अयोग्य पाया गया और इसलिए उसे 2 साल के अतिरिक्त कार्यकाल के लिए भी इनकार कर दिया गया जो हर जिला जज का हक होता है। वह 58 वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्त हो गए जबकि उनके सहयोगियों ने सेवा जारी रखी। तो ऐसे में कहां रेखा खींची जाए?

    भूषण ने दिया इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता का उदाहरण
    भूषण ने उदाहरण देते हुए कहा कि, "कैसे एक वकील को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर नियुक्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा 2 बार सिफारिश की थी, लेकिन इसके बावजूद सरकार ने उनकी फाइल दो बार लौटाई। हालांकि तीसरी बार कॉलेजियम ने वकील का नाम वापस कर लिया। क्या जनता इस कारण को जानने की हकदार नहीं है कि उस अधिवक्ता को नियुक्ति के लिए क्यों मना किया गया।"

    सीजेआई ने हालांकि कहा कि इस तरह के मामलों को अलग किया जा सकता है और यह एक आदर्श नहीं है। न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ के प्रश्न के जवाब में, भूषण ने तर्क दिया कि अगर एक समलैंगिक व्यक्ति का नाम न्यायपालिका के लिए मंजूर नहीं किया जाता है तो आरटीआई के तहत इसका खुलासा किया जाना चाहिए। यह सब केस टू केस बेसिस पर निर्भर करेगा।

    "अगर व्यक्ति स्वयं नहीं चाहता जानकारी का खुलासा"
    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने तब कहा कि अगर व्यक्ति जिसका नाम नामंजूर किया गया है, वो सूचना का खुलासा नहीं करना चाहता तो क्या होगा१ जस्टिस दीपक गुप्ता ने भी न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के साथ इस बात पर सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि जिस उम्मीदवार का नाम खारिज कर दिया गया है उसे भी निजता के तहत अधिकार प्राप्त है जिसे एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है।

    AG इसे न्यायिक स्वतंत्रता में मानते हैं हस्तक्षेप
    इससे पहले अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि न्यायिक नियुक्तियों और जजों के ट्रांसफर के बारे में सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत जानकारी का प्रकटीकरण न्यायिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने के समान होगा।

    क्या है यह पूरा मामला१
    सुप्रीम कोर्ट के सेकेट्ररी जनरल के लिए उपस्थित AG ने 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष यह दलीलें दी थी। वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट की अपील CIC के एक आदेश के खिलाफ थी जिसमें आरटीआई अधिनियम के तहत सुप्रीम कोर्ट के 3 न्यायाधीशों की नियुक्ति पर कॉलेजियम और सरकार के बीच पत्राचार के विवरण का खुलासा करने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को निर्देश दिया गया था।

    सुप्रीम कोर्ट के सेकेट्ररी जनरल के लिए उपस्थित AG ने 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष यह दलीलें दीं जिसमें मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एन. वी. रमना, जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना ने सुनवाई शुरू की है कि ऐसी जानकारी का खुलासा किया जाए या नहीं।

    वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट की अपील एक CIC के आदेश के खिलाफ दाखिल की गई थी जिसमें आरटीआई अधिनियम के तहत सुप्रीम कोर्ट के 3 न्यायाधीशों की नियुक्ति पर कॉलेजियम और सरकार के बीच पत्राचार के विवरण का खुलासा करने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को निर्देश दिया गया था।

    आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल द्वारा आरटीआई अनुरोध के जरिए जस्टिस एच. एल. दत्तू, जस्टिस ए. के. गांगुली और जस्टिस आर. एम. लोढ़ा को वरिष्ठ जज जस्टिस ए. पी. शाह, जस्टिस ए. के. पटनायक और जस्टिस वी. के. गुप्ता को छोड़कर सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट और केंद्र के बीच का सम्पूर्ण पत्राचार मांगा गया था। जस्टिस दत्तू और जस्टिस लोढ़ा बाद में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने।

    शीर्ष अदालत ने अपनी अपील में कहा है कि न्यायपालिका के कामकाज में नियुक्ति और स्थानांतरण को लेकर अजनबियों और व्यस्त लोगों को अनावश्यक घुसपैठ से दूर रखना सार्वजनिक हित में है।

    AG ने कहा कि मांगी गई जानकारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करेगी। आगे इस तरह के खुलासे से सभी संवैधानिक पदाधिकारियों द्वारा फैसलों की विश्वसनीयता और ईमानदार राय की स्वतंत्र और स्पष्ट अभिव्यक्ति को भी खतरा होगा। उन्होंने यह भी कहा कि गैर-प्रकटीकरण को आरटीआई अधिनियम की धारा 8 (1) (जे) के तहत संरक्षित किया गया है।

    उन्होंने कहा कि केंद्रीय कानून मंत्री, CJI और न्यायाधीशों की नियुक्ति या HC न्यायाधीशों के स्थानांतरण बेहद महत्वपूर्ण मामले हैं और इनका खुलासा नहीं किया जा सकता। इन मामलों पर चर्चा करने वाले न्यायाधीश स्वतंत्र रूप से और स्पष्ट रूप से इन मामलों पर चर्चा करने में सक्षम होने चाहिए, वे आरटीआई के तहत अपने विचार व्यक्त करने में संकोच कर सकते हैं।

    यह कदम कानून मंत्री, CJI और अन्य न्यायाधीशों के बीच पत्राचार साझा करने के लिए सार्वजनिक हित के लिए गलत कदम होगा। AG ने बताया कि जब न्यायाधीश नियुक्ति और चयन में भिन्न होते हैं, तब भी वे अपने विचार और तर्क नहीं देते ताकि किसी प्रकार की कोई शर्मिंदगी ना हो।

    AG ने कहा कि सूचना के प्रकटीकरण पर 7 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा वर्ष 1981 में एसपी गुप्ता का निर्णय वर्तमान मामले में लागू नहीं होगा क्योंकि उस समय आरटीआई अधिनियम लागू नहीं किया गया था, लेकिन अब आरटीआई को अपवादों के साथ रखा गया है। इस मामले की सुनवाई गुरुवार को भी जारी रहेगी।

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