असंवैधानिक ' 66 A' का इस्तेमाल : सुप्रीम कोर्ट ने सभी अदालतों व DGP को श्रेया सिंघल फैसले की प्रतियां भेजने के निर्देश दिए
Live Law Hindi
17 Feb 2019 4:24 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 A के निरंतर उपयोग पर फैसला सुनाते हुए सभी हाई कोर्ट को यह निर्देश दिया है कि वो सभी जिला अदालतों को 8 सप्ताह के भीतर श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतियां भेजे। ये कदम पीठ ने अटार्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल की सलाह को देखते हुए उठाया।
न्यायमूर्ति रोहिंटन एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति विनीत सरन की पीठ ने केंद्र सरकार को भी यह निर्देश दिया है कि वो सभी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को 8 सप्ताह के भीतर इस आदेश की प्रतियां भेजे और मुख्य सचिव इसके अगले 8 हफ्तों में अधिनियम के बारे में पुलिस को जागरूक करने के लिए सभी डीजीपी को ये आदेश भेजेंगे।
इससे पहले 7 जनवरी को पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) द्वारा दायर एक अर्जी पर केंद्र को एक नोटिस जारी किया था।
अपनी याचिका में पीयूसीएल ने कहा कि वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस प्रावधान को रद्द करने के बावजूद इस प्रावधान के तहत अबतक 22 से अधिक लोगों पर मुकदमा चलाया गया है। इस मामले में वकील संजय पारिख ने दलीलें दी जबकि उनकी सहायता वकील संजना श्रीकुमार अभिनव शेखरी, अपार गुप्ता और एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड सी. रमेश कुमार ने की।
मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए न्यायमूर्ति रोहिंटन एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति विनीत सरन की पीठ ने कहा था कि यदि कोर्ट के आदेश का उल्लंघन किया गया है तो संबंधित अधिकारियों को गिरफ्तार किया जाएगा। अदालत ने इस संबंध में नोटिस जारी किया और केंद्र को 4 सप्ताह के भीतर जवाबी हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया था।
दरअसल धारा 66 A को उक्त फैसले में अदालत द्वारा "अंग्रेजों के कानून" के रूप में करार दिया गया था और चूंकि पूर्व में इसके तहत कई निर्दोष व्यक्तियों की गिरफ्तारी की अनुमति दी गई थी जिसके चलते इसे रद्द करने के लिए जनाक्रोश उमड़ा था।
इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने मार्च, 2015 में श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ में इसे असंवैधानिक करार दिया। अदालत ने फैसला दिया था कि इस प्रावधान ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन किया है और यह अनुच्छेद 19 (2) के तहत दिए गए उचित प्रतिबंधों के तहत नहीं आता है।
इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन ने पिछले साल अक्टूबर में एक पेपर जारी किया जिसमें दावा किया गया था कि फैसले के बावजूद धारा 66A का उपयोग पूरे भारत में किया जा रहा है।
अभिनव शेखरी और सह-लेखक अपार गुप्ता के पेपर ने धारा 66 A को एक "कानूनी ज़ोंबी" बताया था, जिसमें कहा गया कि फैसले को 3 साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद यह भारतीय आपराधिक प्रक्रिया का शिकार है। यह तर्क दिया गया कि यह गहरी संस्थागत समस्याओं के कारण है जिसके परिणामस्वरूप न्यायिक फैसले राज्यों में जमीनी स्तर पर नहीं पहुँच पाते हैं।