लाखों वनवासियों को वन भूमि से बेदखल करने के आदेश पर केंद्र की संशोधन याचिका, सुप्रीम कोर्ट गुरुवार को करेगा सुनवाई

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27 Feb 2019 1:42 PM GMT

  • लाखों वनवासियों को वन भूमि से बेदखल करने के आदेश पर केंद्र की संशोधन याचिका, सुप्रीम कोर्ट गुरुवार को करेगा सुनवाई

    केंद्र और गुजरात राज्य ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि वो 13 फरवरी के उस आदेश को संशोधित करे जिसमें लाखों अनुसूचित जनजातियों, आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को बेदखल करने का निर्देश दिया गया जिनके वन अधिकार कानून 2006 के तहत वन भूमि अधिकारों के दावों को खारिज कर दिया गया है।

    सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली पीठ के समक्ष इस मामले का उल्लेख किया और पीठ अब 28 फरवरी को इस मामले की सुनवाई के लिए तैयार हो गई। अपनी अर्जी में केंद्र ने कहा है कि राज्यों ने लाखों आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के दावे कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना खारिज कर दिए।

    केंद्र ने 12 सितंबर, 2014 के अपने पत्र का संदर्भ दिया है जिसमें वामपंथी उग्रवाद की चपेट में आए राज्यों में आदिवासी आबादी और वनवासियों के साथ हुए अन्याय की बात की गई है। केंद्र ने कहा कि ऐसे राज्यों में जनजातीय आबादी भी अधिक है।

    ऐसा कहा गया कि इन जनजातियों और वनवासियों के वन भूमि दावे ज्यादातर राज्यों द्वारा खारिज कर दिए गए हैं। दूरदराज के इलाकों में रहने वाले गरीब और अशिक्षित लोगों को दावे दाखिल करने की उचित प्रक्रिया नहीं पता। ग्राम सभाएं, जो उनके दावों के सत्यापन की पहल करती हैं, उनमें भी इन दावों से निपटने के बारे में जागरूकता कम है। दावों को खारिज करने की सूचना भी उन्हें नहीं दी गई।

    केंद्र ने कहा कि वर्ष 2014 के पत्र के बावजूद जमीन में कोई बदलाव नहीं आया है और वर्ष 2015 में पत्रों की श्रृंखला के बाद "दावों की अस्वीकृति की उच्च दर, अस्वीकृति आदेश की गैर-सूचना, दावों के निर्णय में अवास्तविक समयसीमा" जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला गया था।

    राज्य स्तरीय निगरानी समिति की बैठकों में राजस्व या वन मानचित्र प्रदान करने में संबंधित जिला प्रशासन से सहायता की कमी, अपूर्ण या अपर्याप्त साक्ष्य के बावजूद दावों की अस्वीकृति भी एक मुद्दा है।

    केंद्र ने राज्यों को पत्र लिखकर सुझाव दिया था, "यह अनुरोध किया गया है कि उपग्रह इमेजरी जैसी तकनीक का इस्तेमाल दावों पर विचार के लिए किया जा सकता है।"

    केंद्र सरकार ने कहा कि लगता है कि वर्ष 2006 के अधिनियम को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए स्थिति को मापने के लिए राज्य सरकारों द्वारा कोई प्रयास नहीं किए गए।

    "यह अनिश्चित है कि क्या राज्य सरकारों द्वारा प्रस्तुत डेटा सटीक रूप से साबित करता है कि कानून की उचित प्रक्रिया के पालन के बाद ही अस्वीकृति के आदेश पारित किए गए? क्या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का अनुपालन भी किया गया?" केंद्र ने दलील दी है।

    केंद्र ने अदालत से अपने आदेश को संशोधित करने और राज्य सरकारों को दावों की अस्वीकृति की प्रक्रिया और विवरण के बारे में विस्तृत हलफनामा दायर करने का निर्देश देने का आग्रह किया।

    "तब तक आदिवासियों के निष्कासन को रोका जा सकता है ... ऐसी जानकारी के बिना आदिवासियों का निष्कासन उनके लिए गंभीर पूर्वाग्रह पैदा करेगा जो पीढ़ियों दर पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं," केंद्र ने प्रस्तुत किया है।

    केंद्र ने तर्क दिया कि दावे को खारिज किए जाने के बाद निष्कासन के लिए 2006 के अधिनियम में कोई विशेष प्रावधान नहीं है। 2006 के अधिनियम एक लाभकारी कानून है जिसे गरीबों के पक्ष में उदारतापूर्वक लागू किया जाना चाहिए।

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