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रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद जमीन विवाद की जल्द सुनवाई की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की

LiveLaw News Network
7 Jan 2019 3:00 AM GMT
रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद जमीन विवाद की जल्द सुनवाई की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की
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अयोध्या रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद जमीन विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने वकील हरी नाथ राम की याचिका को खारिज किया जिसमें इस मामले की जल्द और तय समय में करने की याचिका दाखिल की थी। याचिका में ये भी कहा गया था कि अगर कोर्ट किसी मामले की सुनवाई टाले तो उसका कारण बताया जाया चाहिए।

याचिका में कहा गया था कि ये करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा केस है और इसे अनिश्चितकाल के लिए टाला नहीं जा सकता और इससे लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं।

शुक्रवार को चीफ जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस संजय किशन कौल की पीठ ने कहा कि मामले की सुनवाई उचित पीठ के सामने दस जनवरी को होगी और वो पीठ ही सुनवाई के बारे में तय करेगी।

इससे पहले 27 सितंबर को तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस अब्दुल नजीर की बेंच ने 2:1 के बहुमत से फैसला दिया था कि 1994 के संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है जिसमें कहा गया था कि मस्जिद में नमाज पढना इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और जस्टिस अशोक भूषण ने बहुमत के फैसले में मुस्लिम दलों में से एक के लिए पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन की दलीलों को ठुकरा दिया था कि 1994 के पांच जजों के संविधान पीठ के फैसले कि " मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है और नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहां तक की खुले में भी " पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।

जस्टिस अशोक भूषण ने फैसला पढ़ते हुए कहा था कि ये टिप्पणी सिर्फ अधिग्रहण को लेकर की गई थी। सभी धर्म, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च बराबर हैं। इस फैसले का असर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 में टाइटल के मुकदमे के फैसले पर नहीं पड़ा। इसलिए इस पर फिर से विचार की जरूरत नहीं है। पीठ ने जमीनी विवाद मामले की सुनवाई 29 अक्तूबर से शुरू होने वाले हफ्ते से करने के निर्देश जारी किए थे।

वहीं तीसरे जज एस जस्टिस अब्दुल नजीर इससे सहमत रहे। उन्होंने कहा कि 1994 के इस्माईल फारूखी फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है क्योंकि इस पर कई सवाल हैं। ये टिप्पणी बिना विस्तृत परीक्षण और धार्मिक किताबों के की गईं। उन्होंने कहा कि इसका असर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले पर भी पड़ा। इसलिए इस मामले को संविधान पीठ में भेजना चाहिए।

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