न्यायाधीशों का आकलन कौन करे?

LiveLaw News Network

19 Dec 2019 7:48 AM GMT

  • न्यायाधीशों का आकलन कौन करे?

    अवनी बंसल

    हाल ही में सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली पीठ द्वारा दिये गये हालिया फैसलों को लेकर व्यक्त किये जा रहे मतों से हमारे तकनीकी, मानसिक और संभवतया रूहानी इनबॉक्स छलकने लगे हैं। अब सबकी निगाहें नये मुख्य न्यायाधीश- न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोबडे पर टिकी हुई हैं।

    वास्तविक विषय-वस्तु पर आने से पहले, मैंने एक जज के नाम से पहले 'जस्टिस' (न्यायमूर्ति) शब्द जुड़ा पाया है, जैसा मेरे नाम के पहले तो कतई नहीं है। जस्टिस गोगोई की विरासत पर विचार करते हुए और बाबरी मस्जिद-अयोध्या, राफेल, सबरीमला, सीजेआई के आरटीआई के दायरे में आने, इंदिरा जयसिंह (लॉयर्स कलेक्टिव) मामले में दिये गये फैसले से न्याय हुआ या नहीं, इस बात पर विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि 'जस्टिस' (न्याय) शब्द ने एक नया रंग ले लिया है, यहां तक कि उन विधि छात्रों/वकीलों के लिए भी, जो रोज-रोज और बार-बार यह शब्द सुनते हैं।

    न्यायाधीश वे हैं जिन्हें लोकतंत्र में 'न्याय' करने का जिम्मा सौंपा गया है (जो प्रस्तावना में उल्लेखित महत्वपूर्ण मूल्य और भारतीय संविधान के माध्यम से एक भावना के रूप में भी व्याप्त है)। लेकिन जिनके ऊपर न्याय का जिम्मा है, वे न्यायाधीश क्या निष्पक्ष हैं? सामान्य सा प्रश्न है- जजों का आकलन कौन करता है?

    भारत में प्रत्येक संस्था की तरह ही, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, क्षमता और प्रदर्शन भी इसके प्रमुख 'एक्टर' पर निर्भर करता है। इसलिए, कौन हैं ये जज, जो देश के न्याय के सर्वोच्च मंदिर में सर्वोच्च न्यायाधीश की भूमिका निभाते हैं? सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट हमें इन न्यायाधीशों की पृष्ठभूमि के बारे में संक्षिप्त जानकारियां उपलब्ध कराती है, लेकिन क्या उन न्यायाधीशों के बारे में यह जानकारी आम लोगों के लिए काफी है, जिनके हाथों उनका जीवन और राष्ट्र को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों का निर्धारण होता है?

    शुरुआत में, इस बात का अधिक विश्लेषण होना चाहिए कि ये न्यायाधीश किस दर्शन से संबंध रखते हैं, क्या वे संविधान की व्याख्यात्मक या उद्देश्यपूर्ण व्याख्या करते हैं। यह उनके द्वारा दिये गये फैसलों के व्यवस्थित अध्ययन का तरीका है। यह समय है कि हम अपने जजों के बारे में उसी नजरिये से विचार करें जैसा वे अमेरिका में करते हैं। उम्मीद है कि भारत का कानूनी समुदाय और विधि अधिष्ठाता सुन रहे हैं। कुछ भी हो, लेकिन यह एक संस्था के तौर पर न्यायपालिका के बारे में हमारी समझ को और मजबूत करेगा कि न्यायाधीश जो निर्णय लेते हैं, क्यों लेते हैं? निर्णय लेने से जुड़ी यह व्यक्तिपरक समझ उन न्यायाधीशों और उनके निर्णयों के लिए एक गहरा सम्मान विकसित करने में मदद करेगी, जिनसे हम असहमत होते हैं।

    परम्परागत तौर पर, भारत में न्यायपालिका के प्रति समाज के हर वर्ग से सम्मान हासिल हुआ है, उसकी एक वजह राज्य की अन्य दो शाखाओं -कार्यपालिका और विधायिका की सापेक्षिक असफलता, अक्षमता और इनमें व्याप्त भ्रष्टाचार भी है। कार्यपालिका के अपने दायरे से बाहर जाने की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट के जजों के महत्वपूर्ण रवैये को अपेक्षाकृत कम अहितकर मानते हुए न्यायोचित ठहराया जाता रहा है।

    न्यायपालिका या सरकार/कार्यपालिका में कौन श्रेष्ठ है, इस बारे में लगातार जारी बहस के बीच न्यायपालिका संवैधानिक इतिहास के अधिकांश दौर के लिए विजेता के रूप में उभरती प्रतीत होती है। ज्यादतियों के खिलाफ न्यायाधीशों की निष्पक्षता का सबसे बेहतरीन उदाहरण श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश में लगाये गये आपातकाल के दौरान देखने को मिला था। पहली बार, देश को महसूस हुआ था कि न्यायाधीश भी मानव हैं। फिर भी हम आज जो देखते हैं, वह सभी मानकों पर अद्वितीय और असमानांतर प्रतीत होता है। मौजूदा राजनीतिक शासन के तहत न्यायपालिका पर प्रकट कब्जा को लेकर गर्मागर्म बहस होनी चाहिए, लेकिन यह सुविधाजनक तौर पर और पूरी तरह से शांत है, यहां तक वरिष्ठ अधिवक्ता भी चुप हैं, जिन्हें संविधान की रक्षा के लिए खड़े होने को लेकर जाना जाता है।

    ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भय का वातावरण विधिक समुदाय को भी प्रभावित करने लगा है, ज्यादा नहीं तो कम से कम आवाज दबी तो है ही, पूरी तरह मृतप्राय नहीं भी हुए हैं तो भी भारतीय न्यायपपालिका की स्थिति पर आज चुप्पी छायी है।

    अपना मंतव्य देना तो ठीक है, लेकिन तथ्य उजागर करना अवमानना का मामला हो सकता है। इसलिए यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि इस लेख की सारी बातें केवल लेखक का व्यक्तिपरक मंतव्य है।

    यहां तक कि जिन लोगों को सुप्रीम कोर्ट के बारे में नजदीक से जानने का मौका नहीं मिलता है, उनके लिए भी हाल के कुछ घटनाक्रम आंख खोलने वाला होना चाहिए।

    सबसे पहले, अयोध्या के बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 में प्रदत्त उन निहित शक्तियों के तहत लंबा फैसला दिया, जिसके अंतर्गत शीर्ष अदालत को किसी भी मामले में 'पूर्ण न्याय' देने का अधिकार है। यह अनुच्छेद व्यावहारिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट को संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद सहित कोई भी मामला निपटाने का अधिकार देता है। इस विवाद पर किसी के क्या विचार हैं इससे इतर यह सवाल उचित है कि इस मामले में लोगों की आस्थाओं से जुड़ा प्रश्न था, लेकिन क्या कानून की अदालत होते हुए भी सुप्रीम कोर्ट इस तरह के मामले के निर्धारण में अपनी असमर्थता प्रदर्शित कर सकता है?

    इस प्रश्न का उत्तर तकनीकी रूप से है- हां और अभी तक इस बात का कोई ठोस स्पष्टीकरण नहीं है कि न्यायालय के पांच न्यायाधीशों ने एकमत होकर आश्चर्यजनक रूप से पूरी 2.77 एकड़ जमीन पर मंदिर के निर्माण की अनुमति दी। दलील के लिए, यदि कोर्ट मानता है कि संभाव्यता का प्रमाण मौजूद और हिन्दुओं का अपेक्षाकृत दावा मजबूत है तो भी क्या वे गैर-कानूनी तरीके से मस्जिद ढहाने तथा कानून को अपने हाथ में लेने के मद्देनजर राहत के हकदार हैं?

    दूसरा उदाहरण सबरीमला पुनर्विचार याचिका है। भले ही कोई इस बात से बेपरवाह हो कि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने की प्रथा से कोई सहमत है या नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न धार्मिक समुदायों में भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती देने वाले नये और ताज़ा मामलों के साथ जोड़कर सबरीमला फैसले से जुड़ी पुनर्विचार याचिकाओं को वृहद पीठ के सुपुर्द कर दिया। कोई भी व्यक्ति इस बात से इन्कार नहीं कर सकता कि इस तरह की भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती दी जानी चाहिए, लेकिन ऐसा कब हुआ है जब सुप्रीम कोर्ट ने अन्य कुप्रथाओं को भी सीधे पुनर्विचार याचिका के जरिये चुनौती देने की अनुमति दे दी हो।

    क्या न्यायालय ने ऐसा करके नयी याचिकाओं को कानूनी प्रक्रिया के प्राकृतिक चक्र से गुजरने देने के बजाय सीधे पुनर्विचार याचिका के साथ सुनवाई का रास्ता साफ नहीं कर दिया है?

    तीसरा, कुछ मामलों की सुनवाई में कोर्ट की ओर से दिखायी गयी तत्परता और अन्य मामलों में समय लेने का उसका फैसला क्या मनमाना नहीं लगता है? न्यायाधाशों का विवेक यह निर्णय लेने में कहां अवरुद्ध हो जाता है कि किसी मामले की सुनवाई कब की जाये और इसकी त्वरित सुनवाई की अनिवार्यता कितनी है? कश्मीर मसले पर हर आदमी का अपना मंतव्य हो सकता है, लेकिन इस मामले की सुनवाई में लिया जाने वाला समय गहरी चिंताओं को जन्म देता है।

    देश के सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज की आजादी पर वैध सवाल खड़े करने के लिए ये पर्याप्त तथ्य हैं? शायद नहीं, लेकिन हम न्याय के एक बुनियादी नियम को भूलते दिख रहे हैं कि न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए।

    एक नेता जो निष्पक्ष है, उसे निष्पक्ष दिखना भी चाहिए। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि जब अधिनायकवादी राज्य बनाने का प्रयास होता है तो न्यायपालिका को उस योजना का विरोध करने वाले बल बनने के बजाय उस योजना को पूरा करने का एक साधन बनाया जाता है। यद्यपि अदालत में वरिष्ठ वकीलों द्वारा कनिष्ठ वकीलों के लिए उन प्रसिद्ध न्यायाधीशों के अतुलनीय प्रयासों को दृढता से पेश किया जाता है जिन्होंने अपने उज्ज्वल भविष्य की कीमत पर भारतीय संविधान को संरक्षित किया है, लेकिन हम कनिष्ठ वकील भी आने वाले समय में उसी नजरिये से क्या आज के न्यायाधीशों को देख पायेंगे?

    यदि देश की सर्वोच्च अदालत में सब कुछ संतोषप्रद है, और हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, तो शायद सावधानी के लिए त्रुटि करना बेहतर है। जिस मुकाम से लौटना मुश्किल हो, वहां पहुंचने से पहले उम्मीद का दामन छोड़े बिना हमें कठिन सवाल पूछने ही होंगे।

    अब हम मूल प्रश्न, 'जजों का आकलन कौन करेगा,' पर आते हैं। हम इस तथ्य का पता लगा सकते हैं कि भारतीय संविधान भारत के लोगों को 'न्यायाधीशों के आकलन' की इजाजत नहीं देता है। फिर किसे करना चाहिए? क्या यह स्पष्ट नहीं है - जजों का आकलन संविधान के दायरे में किया जायेगा, जिसकी व्याख्या न्यायाधीशों के एक अन्य समूह द्वारा किया जायेगा, जिनकी नियुक्ति भारत की जनता नहीं करेगी, प्रत्यक्ष तौर पर तो बिल्कुल नहीं। कहते हैं समय सबसे अच्छा जज होता है। लेकिन कितना समय? खैर, इसका निर्धारण भारत के लोगों को करना है और करना होगा भी।

    ये विचार व्यक्तिगत हैं -

    (इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। लेख में व्यक्त तथ्य एवं विचार लाइवलॉ की राय नहीं दर्शाते हैं और लाइवलॉ इसके लिए जिम्मेदार नहीं है।)

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