राम जेठमलानी : एक चतुर वक़ील और एक चालाक मुवक्किल

LiveLaw News Network

22 Sept 2019 9:15 AM IST

  • राम जेठमलानी : एक चतुर वक़ील और एक चालाक मुवक्किल

    रणवीर सिंह

    राम जेठमलानी अमूमन यह कहा करते थे –"मैं भगवान के डिपार्चर लाउंज मैं बैठा हुआ हूं, ताकि उनसे अदालत के अंदर और बाहर मोलभाव कर सकूं।" ज़ाहिर है कि किसी ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया। अप्रैल 2007 में एक चर्चित मामले में सुप्रीम कोर्ट में शीघ्र सुनवाई की मांग करते हुए जेठमलानी ने अपने ज्योतिषी का हवाला देते हुए कहा कि उसके हिसाब से वे जुलाई के आगे ज़िंदा नहीं रहेंगे। सुप्रीम कोर्ट उनकी बातों में नहीं आया और कहा, "हम आपके ज्योतिषी की बातों में नहीं आते"। इससे काफ़ी पहले, 2000 में, अपनी किताब "बिग ईगोज, स्मॉल मैन" में उन्होंने वाजपेयी सरकार को बहुत भला बुरा कहा है, क्योंकि उन्हें मंत्रिमंडल से उन्होंने निकाल दिया था। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है, "मैं 77 साल का हूं। मेरी आत्मा तृप्त है…मैं जानता हूँ कि मेरा अंत दूर नहीं है…"। इसके बाद वे 19 साल और जीवित रहे और निश्चित रूप से वर्ष 2000 की तुलना में ज़्यादा तृप्त ज़िंदगी उन्होंने जी।

    ये दो खास मुकदमे

    जेठमलानी को जो श्रद्धांजलि दी गई है उनमें इस तरह के मुक़दमों का ज़िक्र किया गया है जो उनके लिए और क़ानून कि दृष्टि से काफ़ी महत्वपूर्ण थे। पर इन श्रद्धांजलियों में दो मुक़दमों का ज़िक्र नहीं है – हवाला मामला और काला धन मामला। हवाला मामले में उन्होंने अपरोक्ष रूप से बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की जबकि दूसरे में वे ख़ुद एक याचिकाकर्ता थे। दोनों ही मामलों में दिवंगत वरिष्ठ वक़ील अनिल दीवान जो कि इस दौरान जब यह हवाला कांड हुआ, इससे जुड़े नाटक के किरदारों में एक थे और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई के कारण उन्हें अदालत की मदद करने वालों के रूप में लोग जानते थे।

    हवाला मामला

    1993 में जेठमलानी को अपने जूनियर से सूचना मिली कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के पास कुछ वरिष्ठ नेताओं और नौकरशाहों के ख़िलाफ़ कुछ विस्फोटक सबूत हैं कि इन लोगों ने ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से हवाला के माध्यम से धन प्राप्त किया हैं। जेठमलानी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को एक पत्र लिखा कि सीबीआई उन नेताओं और नौकरशाहों के ख़िलाफ़ मामला दायर करने में देरी कर रही है। इस पत्र का कोई जवाब नहीं आया। जेठमलानी ने जनहित याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट जाने का फ़ैसला किया। अक्टूबर 1993 में एक जनहित याचिका दायर की गई जिसमें सीबीआई को निर्देश देने की मांग की गई थी। यह याचिका जेठमलानी के निर्देशन में और उनकी सलाह के अनुरूप ड्राफ़्ट की गई।

    इस याचिका में लोगों के करियर बर्बाद करने और राष्ट्रीय राजनीति में भूचाल लाने जैसा मसाला मौजूद था। एक ऐसे वक़ील की तलाश थी जो निडर हो, जिसके पास कोई फटके नहीं और जिसको कोई प्रभावित नहीं कर सके। जेठमलानी ने अनिल दीवान का नाम सुझाया। दीवान से कहा गया और उन्होंने बिना कोई फ़ीस लिए वरिष्ठ वक़ील के रूप में याचिकाकर्ता विनीत नारायण के इस मामले की पैरवी के लिए तैयार हो गए।

    सुनवाई के दौरान दिसम्बर 1993 में एक समय अदालत ने संकेत दिया कि पार्टियों के मेमो को संशोधित किया जाए और जो भी नाम उनमें डाले गए हैं उन्हें हटा दिया जाए। ये नाम तत्कालीन कैबिनेट मंत्रियों और राज्यपालों के थे। जेठमलानी ने इस सुझाव का विरोध किया पर इस मामले के मुख्य वक़ील होने के नाते दीवान इस मामले पर अड़ गए और इस याचिका को सनसनीख़ेज़ बनाने से साफ़ इंकार कर दिया और इस बारे में उनका कहना था कि यह सीबीआई की स्वतंत्रता का मामला है। इसके बाद पार्टियों के मेमो को संशोधित कर दिया गया। जेठमलानी इस मामले की तैयारी और रणनीति बनाने से सक्रिय रूप से जुड़े रहे।

    फ़रवरी 1994 में याचिकाकर्ताओं ने एक रिजोईंडर दायर किया कि अमुक राशि लाल कृष्ण आडवाणी के खाते में ट्रांसफ़र की गई। 1996 में सीबीआई ने आडवाणी के ख़िलाफ़ सीबीआई अदालत में एक आरोप पत्र दाख़िल किया। दीवान को पता चला कि जेठमलानी ने अटोर्नी जनरल बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष को एक ख़त लिखकर यह जानना चाहा कि पेशेवर आचरण के नियम उन्हें आडवाणी का बचाव करने से रोकता है या नहीं क्योंकि वे हवाला मामले से नज़दीके से जुड़े हुए हैं।

    दीवान को एक ख़बर के माध्यम से यह पता चला और उन्होंने जेठमलानी को आडवाणी का बचाव करने की लालच से बचने को कहा। जेठमलानी को लिखे अपने पत्र में दीवान ने बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के पेशेगत आचरण संबंधी नियमों का उल्लेख किया जिसे उस समय ड्राफ़्ट किया गया था जब जेठमलानी बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष थे।

    जेठमलानी ने इसका जवाब यह कहते हुए दिया कि वह इस याचिका (विनीत नारायण बनाम भारत संघ) के जनक और इस बारे में सलाह देने वालों में शामिल हैं। जेठमलानी ने कहा कि वे नहीं साझते कि आडवाणी का अगर वे बचाव करते हैं तो इससे हितों के टकराव का कोई मामला बनेगा। दिलचस्प बात यह है कि बाद में जेठमलानी ने दीवान से कहा कि वे हवाला मामले में आडवाणी का बचाव नहीं करेंगे। दीवान ख़ुश हुए और उन्होंने इसका इज़हार जेठमलानी से किया और साथ ही यह नोट भी भेजा कि वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार नहीं करेंगे।

    अभी इस बात को छह माह भी नहीं हुए थे, जेठमलानी ने 17 सितम्बर 1996 को दीवान को एक पत्र फ़ैक्स किया कि उनपर आडवाणी का बचाव करने का 'ऐसा दबाव पड़ रहा है जिसका विरोध करना उनके लिए मुश्किल हो रहा है" और उन्होंने आडवाणी का बचाव करने का फ़ैसला किया है। जेठमलानी ने इस पत्र के अंत में एक वादी की अपील की तरह लिखा –"मैं उम्मीद करता हूं कि आप इसे समझेंगे और कोई विवाद खड़ा नहीं करेंगे। पर अगर आपने ऐसा किया, तो मैं आपकी कार्रवाई का जवाब दूंगा"।

    इस फ़ैक्स के मिलते ही दीवान ने प्रेस को एक बयान जारी किया जिसमें दोनों के बीच हुए पत्र-व्यवहार को भी शामिल कर दिया। प्रेस को दिए गए अपने बयान में दीवान ने जेठमलानी के समक्ष नैतिक सवाल उठाए वैसा ही जैसा जेठमलानी ने राजीव गांधी से कुछ साल पहले बोफ़ोर्स मामले में उठाए थे। विरोध को अनसुना करते हुए जेठमलानी ने आडवाणी की पैरवी करना जारी रखा।

    हवाला मामले के कारण कई लोगों को इस्तीफ़ा देना पड़ा। आडवाणी को संसद में विपक्ष के नेता के पद से त्याग पत्र देना पड़ा, दो राज्यपालों – एमएल वोहरा और शिव शंकर और तीन कैबिनेट मंत्रियों – वीसी शुक्ला, बलराम जाखड़ और माधव राव सिंधिया को भी पद छोड़ना पड़ा और 1996 का आम चुनाव इसकी काली छाया से बच नहीं पाया। इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी 244 सीट से 130 सीट पर सिमट गई और उसे विपक्ष में बैठना पड़ा।

    बार के दोस्त

    आडवाणी की पैरवी के बारे में दीवान को लिखे अपने पत्र में जेठमलानी ने लिखा था कि अगर दीवान ने आडवाणी की पैरवी पर आपत्ति की तो इससे उनकी दोस्ती प्रभावित नहीं होगी। दीवान ने आपत्ति की पर उनकी दोस्ती नहीं टूटी। वर्ष 2007 में जब जेठमलानी ने अपनी आत्मकथा "Conscience of a Maverick" लिखी, उन्होंने दीवान से इस पुस्तक के लोकार्पण पर बोलने को कहा। दीवान ने इस शर्त पर आमंत्रण स्वीकार कर लिया कि वह क्या बोलेंगे इस पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए दीवान के शब्दों में उन्होंने जेठमलानी को 'झुर्रियों और दाग़ों में डुबो दिया"।

    काला धन मामला

    वर्ष 2009 में जब कई तरह के घोटाले सामने आ रहे थे, देश भ्रष्टाचार-विरोधी धारा में बह रहा था। विपक्ष ने इस बात को बहुत ही मज़बूती से उछाला कि विदेशी खातों में काला धन भारी मात्रा में जमा किया गया है। बीजेपी ने चार-सदस्यों का एक कार्य दल बनाया जिसमें एस गुरूमूर्ति, आईआईएम बैंगलोर के प्रो. वैद्यनाथन, अजित डोवाल और महेश जेठमलानी शामिल थे। इस कार्य दल ने बताया कि 25 लाख करोड़ रुपए विदेशी खाते में लोगों ने जमा कर रखा है। सरकार से इस धन को वापस लाने की मांग होने लगी।

    कार्य दल की रिपोर्ट आने के बाद जेठमलानी ने सुप्रीम कोर्ट में 10-पृष्ठ का एक याचिका दायर की और सरकार पर इस मामले की जांच करने और विदेशों में छिपाए गए चुराए धन को वापस लाने में कोताही बरतने का आरोप लगाया। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार निहित स्वार्थ की वजह से इन लोगों को बचा रही है। चूंकि जेठमलानी इस मामले में याचिकाकर्ता थे, उन्हें एक वक़ील की ज़रूरत थी जो इस मामले की पैरवी कर सके। उन्होंने दीवान से संपर्क किया और उन्हें अपने वक़ील के रूप में इस मामले की पैरवी करने को कहा। हवाला मामले की ही तरह इस मामले के भी राजनीतिक निहितार्थ थे और एक बार फिर इस मामले के जनक जेठमलानी ही थे सो दीवान थोड़े सतर्क थे।

    दीवान ने रिट याचिका में जेठमलानी की पैरवी करने पर राज़ी हो गए पर इस शर्त पर कि न तो अदालत से आग्रह में और न ही दलील के दौरान किसी का नाम लिया जाए अगर कोई व्यक्ति इस मामले में आरोपी बनता है तो जेठमलानी उसकी ओर से कोई ब्रीफ़ स्वीकार नहीं करेंगे। जेठमलानी दोनों बातों पर राज़ी हो गए।

    दीवान बाद में इस याचिका को अतिरिक्त लिखित दलीलों के माध्यम से मज़बूत करते रहे और बहुत सावधानी से राजनीति को इस मामले से अलग रखने में कामयाब रहे। कई बार जब इस मामले की सुनवाई की तिथि आती, जेठमलानी दीवान से आग्रह करते कि वह याचिकाकर्ता के रूप में उनको बोलने देने की अनुमति अदालत से प्राप्त करें। दीवान इस आग्रह को मान लेते थे पर जेठमलानी को यह याद दिलाने से नहीं चूकते थे कि वे अपने बयान में किसी व्यक्ति का नाम नहीं लेंगे और तब अदालत से कहते –"माई लॉर्ड, अब मेरे मुवक्किल को अदालत को संबोधित करने की अनुमति देंगे"। अपनी इच्छा होने के बावजूद, जेठमलानी नाम लेने की अपनी लालच पर क़ाबू पा सके।

    सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में एक अंतरिम आदेश से एक विशेष जांच दल का गठन किया जिसे जांच करने और कार्यवाही शुरू करने का अधिकार दिया गया ताकि विदेश में ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से रखे गए धन को वापस लाया जा सके।

    बाद में, 2014 के आम चुनाव में विदेश में रखे काले धन को लाने का मुद्दा बीजेपी मुख्य चुनावी मुद्दा बन गया। बीजेपी ने 2014 के चुनाव में बहुमत हासिल किया। हालांकि एसआईटी के दो आर्किटेक्ट दूसरी दुनिया को कूच कर गए हैं। एसआईटी अभी काले धन को वापस लाने के लिए अंधेरे में हाथ-पांव मार रहे हैं।

    जेठमलानी निश्चित रूप से एक स्वच्छंद वक़ील थे पर एक बहुत ही चालाक मुवक्किल थे जिन्होंने अपने मामलों के लिए बहुत ही प्रभावी वक़ील का चुनाव किया।

    (रणवीर सिंह दिल्ली के वक़ील हैं। इस आलेख के लिए इनपुट एडवोकेट अबनि साहू से मिली है। ये विचार लेखक के अपने हैं)

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