युवा वकीलों के सपनों पर भारी ऑल इंडिया बार एग्ज़ामिनेशन की विफलता

LiveLaw News Network

18 Sept 2019 8:42 AM IST

  • युवा वकीलों के सपनों पर भारी ऑल इंडिया बार एग्ज़ामिनेशन की विफलता

    राधिका रॉय

    बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने 26.08.2019 को एक सूचना जारी की थी जो ऑल इंडिया बार एग्ज़ामिनेशन (एआईबीई) नहीं पास करनेवालों के बारे में थी। इस सूचना के अनुसार 2010 से अब तक कुल 4,778 वक़ील यह परीक्षा पास नहीं कर पाए और इस तरह वे "प्रैक्टिस करने या बार में वोट डालने जैसे अधिकारों व अन्य लाभों के हक़दार नहीं हैं"।

    किसी उम्मीदवार को अपने राज्य के बार काउन्सिल में पंजीकरण के बाद दो साल तक प्रैक्टिस की अनुमति मिलती है और इस अवधि के दौरान उनसे इस परीक्षा में पास होने की उम्मीद की जाती है अगर वे बिना किसी रुकावट के प्रैक्टिस करते रहना चाहते हैं; यह परीक्षा कई बार दी जा सकती है। इससे पहले की इस सूचना को चुनौती देने के लिए कोई याचिका दायर की जाती है।

    बीसीडी ने 11.09.2019 को एक नोटिस जारी कर इसे वापस ले लिया और इसके लिए सूची में गड़बड़ी होने की बात कही। एआईबीई के कामकाज में इस तरह की अयोग्यता और अनियमितता का होना आम बात रही है। एआईबीई XIV का आयोजन 15.09.2019 को हुआ और इस परीक्षा की वैधता और इसको लागू करने के मुद्दे पर क़ानूनी पेशे से जुड़े लोगों की बिरादरी में काफ़ी चर्चा हो रही है।

    वरिष्ठ वक़ील गोपाल सुब्रमण्यम ने इस परीक्षा को आयोजित करने का प्रस्ताव 2010 में किया था पर एआईबीई को लागू करने के बाद एडवोकेट अधिनियम, 1961 की धारा 24 का हवाला देकर इसको समाप्त किए जाने को लेकर कई याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। इस धारा में पंजीकरण के बाद प्रैक्टिस करने के लिए किसी योग्यता का प्रावधान नहीं है। 1999 में वी सुधीर बनाम बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के मामले में जो फ़ैसला आया उसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पंजीकरण के बाद योग्यता असंवैधानिक है और इसके लिए एडवोकेट अधिनियम में संशोधन करना पड़ेगा।

    यह ज़रूरी संशोधन 2010 में किया गया और एआईबीई नियम इसमें जोड़ दिया गया और इसे बाद में अधिसूचित कर दिया गया। लेकिन 2016 में इसके ख़िलाफ़ 13 याचिकाएं दायर की गईं और इस मामले को बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया बनाम बोनी एफओआई लॉ कॉलेज, 2008 के साथ मिला दिया गया है और इसे एक संविधान पीठ को सौंप दिया गया है। पर अभी तक इस पर कोई फ़ैसला नहीं हुआ है।

    इस परीक्षा का उद्देश्य भारत में क़ानूनी शिक्षा के स्तर को ऊपर उठाना था और ऐसे लोगों की पहचान करना था कि कौन क़ानून की प्रैक्टिस के प्रति समर्पित है और कौन क़ानून के जानकारों की बिरादरी में आने लायक़ नहीं है। दुर्भाग्य से, इस परीक्षा के "अन्तर्राष्ट्रीय स्तर और प्रतिष्ठापूर्ण" बनाने का सुब्रमण्यम का सपना आज भी सपना ही बना हुआ है।

    एआईबीई को लागू करने के पीछे विचार यह था कि क़ानून के नए स्नातकों को ऐसे तैयार किया जाए कि वे गुणवत्तापूर्ण काम करें और 3 या 5 साल क़ानून के कॉलेज में बिताने के बाद पेशे में अपना लोहा मनवा पाएं। अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, सिंगापुर जैसे देशों में भविष्य के वकीलों को गढ़ने के लिए कई तरह की परीक्षाएं और अप्रेंटिशशिप आयोजित किए जाते हैं और उन्हें इस बात का पता चल सके कि भविष्य में उन्हें क्या-क्या करने पड़ सकते हैं।

    क़ानून का पेशा एक नेक पेशा है और न्याय दिलाने से इसका संबंध है और श्रेष्ठों में श्रेष्ठ से इस कार्य में शामिल होने की उम्मीद की जाती है। देश भर में मशरूम की तरह उग आए क़ानून के कॉलेजों को देखते हुए काम की गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है और अधपके वकीलों की संख्या में वृद्धि हुई है।

    अमेरिका में बार परीक्षा 2-3 दिनों तक चलती है और इसमें लेख के साथ-साथ स्तरीय जांच परीक्षा ली जाती है। इंग्लैंड में कानून के स्नातकों से उम्मीद की जाती है कि वे बार प्रोफ़ेशनल ट्रेनिंग कोर्स (बीपीटीसी) में शामिल होंगे या लीगल प्रैक्टिस कोर्स (एलपीसी) करेंगे। इसकी तुलना में एआईबीई की परीक्षा हास्यास्पद लगती है जो किसी भी तरह वकीलों के स्तर को सुधारने के अंत्य लक्ष्य को प्राप्त नहीं करता।

    यद्यपि इसको अच्छी नीयत से लागू किया गया, एआईबीई में देरी, लागू करने के घटिया तरीक़े की वजह से इसकी आलोचना होती रही है। बीसीआई का अध्यक्ष रहते हुए सुब्रमण्यम ने जो संदेश निर्देशित किया था उसके अनुरूप दिसंबर में आयोजित होने वाली इस परीक्षा का उद्देश्य सिर्फ़ कुछ लॉ कॉलेजों को तरजीह देने के भेदभाव को दूर करना था।

    ऐसे लॉ कॉलेज अपना परीक्षा परिणाम पहले घोषित कर देते थे जिसकी वजह से उनके छात्रों को अनावश्यक लाभ मिलता था। फिर, यह परीक्षा साल में दो बार होनी थी। हालांकि, इस वर्ष की पहली परीक्षा में देरी हो चुकी है और अब 15 सितम्बर 2019 को इसे आयोजित करना तय हुआ। अब इस समय इस बात का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि एआईबीई XV का आयोजन दिसंबर 2019 में नहीं हो सकता है। इस तरह, बार काउन्सिल अनियमित तरीक़े से इस परीक्षा की जो तिथि निर्धारित करता है उससे क़ानून के छात्रों को अकारण ही बहुत ज़्यादा दौर-भाग करनी पड़ती है। जिस मंतव्य के साथ इसे लागू किया गया था उससे यह पूरी तरह भटक गया है।

    इसकी शुरुआत के समय से ही एआईबीई के ख़िलाफ़ शिकायतों का अंबार लगता रहा है। इस परीक्षा के लिए केन्द्र का चुनाव ऐसी जगह पर होता है जहां पहुंचना मुश्किल होता है; परीक्षा की निगरानी करने वाले शायद ही वहां आते हैं और जब वे आते भी हैं तो परीक्षा से उन्हें कोई मतलब नहीं होता या फिर छात्रों को वे नक़ल करने में ही मदद करते हैं। इस परीक्षा में पुस्तकों के प्रयोग की अनुमति के बावजूद यह परीक्षा काफ़ी कठिन नहीं होता और यह अगर कानून के छात्रों की बुद्धिमत्ता का पूरी तरह अपमान नहीं तो उस परीक्षा के उद्देश्य का तो है ही जिसका लक्ष्य पेशे में नए आने वालों के स्तर को ऊंचा उठाना था।

    जब इस परीक्षा के समय पर आयोजित करने की बात होती है तो बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया का व्यवहार बहुत ही ढीला-ढाला होता है। अमूमन परीक्षा को टाल दिया जाता है। इस वजह से उन वकीलों को काफ़ी मुश्किलें पेश आती हैं जिन्हें इस परीक्षा में बैठने के लिए दूसरे शहर में जाना होता है। इसके अलावा, एआईबीई नियम, 2010 के नियम 11 के अनुसार "बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया सफल एडवोकेट को प्रैक्टिस का प्रमाणपत्र उसके पते पर परीक्षा-परिणाम आने के 30 दिन के बाद भेजेगा"। जो उम्मीदवार मार्च 2019 में आयोजित परीक्षा में सफल रहे उन्हें अभी तक यह प्रमाणपत्र नहीं भेजा गया है।

    इस बात पर ग़ौर करना भी ज़रूरी है कि उम्मीदवारों पर इस परीक्षा का ख़र्च भारी पड़ता है। राज्य बार काउन्सिल में पंजीकरण पर एक उभरते हुए वक़ील को 10 हज़ार रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं। फिर इस परीक्षा में बैठने का फ़ीस ₹3,500 है। 2010 में सुब्रमण्यम ने जो पत्र जारी किया था उसके अनुसार, एडवोकेट को इस परीक्षा के लिए ₹1300 फ़ीस के रूप में देना होगा और परीक्षा की तैयारी के लिए दिए जाने वाले मटीरीयल का ख़र्च इसमें शामिल होगा।

    पिछले 5 या इससे अधिक सालों में किसी भी उम्मीदवार को इस परीक्षा की तैयारी के लिए कोई मटीरीयल नहीं भेजा गया है पर परीक्षा फ़ीस में लगातार वृद्धि हुई है और यह कई योग्य एडवोकेट को इस परीक्षा में बैठने से हतोत्साहित करता है। अगर इस परीक्षा का उद्देश्य हर पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों के ज्ञान के आधार की जांच करना है ताकि उन्हें एक स्तरीय आधार प्रदान किया जा सके तो यह परीक्षा अभी तक इस उद्देश्य को पा नहीं सका है।

    राष्ट्रीय स्तर पर इस परीक्षा को आयोजित करने में बुनियादी सुविधाओं और प्रशासनिक कमियों का होना आम बात रही है। इससे जुड़े अधिकारी इतने कामों को अपने हाथ में ले चुके हैं कि उनसे कुछ भी संभल नहीं रहा है और इस वजह से एडवोकेटों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। 2012 में भोपाल और जयपुर में प्रश्न पत्र नहीं पहुंच पाने के कारण परीक्षा को रद्द करना पड़ा था। लोग आरोप लगाते हैं कि आईटीईएस होरायज़ॉन प्राइवेट लिमिटेड को परीक्षा आयोजित करने का ठेका बीसीआई ने संदेहास्पद स्थितियों में दिया और इस परीक्षा को ठीक से आयोजित नहीं करा पाना और इसकी ख़र्च में बढ़ोतरी का यह एक कारण हो सकता है।

    अगर आप संदेह का लाभ देना चाहते हैं, तो बीसीआई के प्रति आपको इस बात से हमदर्दी हो सकती है कि इस परीक्षा में बैठने वाले छात्रों की संख्या काफ़ी अधिक होती है। फिर, चूँकि यह परीक्षा अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित होती है, बीसीआई पर इस परीक्षा को सफलता से आयोजित करने का बोझ काफ़ी अधिक होता है। पर इसके बावजूद इस परीक्षा को ठीक से आयोजित नहीं कर पाने की अपनी ज़िम्मेदारी से बीसीआई बच नहीं सकता। इस परीक्षा के सफल और सहज आयोजन के अपने वादे से बीसीआई पीछे नहीं हट सकता और उसे अब ख़ुद को संभालना चाहिए क्योंकि उसकी विफलता क़ानून के छात्रों को अपने पेशे का स्वतंत्र रूप से प्रैक्टिस करने की मौलिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है।

    गोपाल सुब्रमण्यम ने सही कहा था कि भारत में क़ानूनी व्यवस्था को मज़बूत बनाने में एआईबीई एक महत्त्वपूर्ण क़दम साबित होगा। देश में हज़ारों की संख्या में चल रहे क़ानून के कॉलेज और बीसीआई ने उनको मान्यता देने का जो न्यूनतम स्तर क़ायम कर रखा है उसे देखते हुए अब यह ज़रूरी हो गया है कि अच्छे और बेकार संस्थानों की स्पष्ट पहचान की जाए।

    हालांकि, इसे संभव बनाने के लिए बीसीआई पर इस कार्य को करने के लिए दबाव डालना होगा और उसे परीक्षा के प्रबंधन में आमूल परिवर्तन करने होंगे और प्र्श्न पत्र की डिज़ाइन और संरचना को बदलना होगा। क़ानूनी पेशे की श्रेष्ठता को बनाए रखने और इसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के समकक्ष लाने के लिए बीसीआई को अपने ढीले-ढाले रवैए में बदलाव लाना होगा और सुब्रमण्यम की दृष्टि को जीवंत बनाना होगा।

    इस लेख को लिखने वाली राधिका रॉय दिल्ली में वकालत करती हैं और यह उनकी निजी राय है।

    Tags
    Next Story