लॉ ऑन रील्स - आक्रोश : न्याय व्यवस्था की विफलता पर करारा कमेंट

सुरभि करवा

13 Dec 2019 11:30 AM IST

  • लॉ ऑन रील्स - आक्रोश : न्याय व्यवस्था की विफलता पर करारा कमेंट

    हमारे लॉ स्कूलों में एनालिटिकल पोज़िटिविस्ट सोच से प्रेरित होकर कानून मात्र केस लॉ और संसद द्वारा पारित अधिनियमों द्वारा पढ़ाया जाता है, लेकिन यह कानून और उसकी कार्यप्रणाली के सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य को नहीं दर्शाता है। अमेरिका के क्रिटिकल लीगल स्टडीज़ मूवमेंट ने यह दर्शाया है कि कानून मूल्य उदासीन (वैल्यू न्यूट्रल) नहीं है।

    कानून भी समाज के ढांचों में बंधा अपने पूर्वाग्रहों के साथ काम करता है। उदाहरण के तौर पर कानून की महिलावादी व्याख्या को अगर देखा जाये तो कुछ का मानना है कि कानून भी पितृसत्ता आधारित है, वही रत्ना कपूर जैसे जानकारों का मानना है कि कानून एक संघर्ष का स्थान है जहां दुनिया की अलग-अलग परिकल्पनाओं और उसमें महिलाओं के स्थान को लेकर सतत संघर्ष जारी है। सार में कहें तो यह समझना ज़रूरी है कि कानून निर्वात में कार्य नहीं करता, वह समाज और उसके सघन ढांचों में काम करता है। ऐसे में कानून के एक छात्र के लिए कानून के सामाजिक पहलू और उसके राजनैतिक मूल्यों को समझना ज़रूरी है।

    पृष्ठभूमि

    इसी पृष्ठभूमि में आदिवासी समाज और जेंडर के मुद्दों पर आक्रोश एक महत्वपूर्ण फिल्म है। यह फिल्म डायरेक्टर गोविन्द निहलानी और राइटर विजय तेंदुलकर की युगलबंदी का एक और उदाहरण है। जाने-माने कलाकार ओम पूरी, अमरीश पूरी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, नाना पल्शिकर, मोहन,अच्युत पोतदार ने फिल्म में अभिनय किया है।

    यह एक बहुआयामी फिल्म है, अत: फिल्म का कोई भी ब्रीफ देना फिल्म के साथ अन्याय ही होगा। समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, जेंडर स्टडीज आदि अलग-अलग विषयों के जानकार इस फिल्म के अलग-अलग पक्षों पर प्रकश डालेंगे। फिर भी हमारे उद्देश्य के लिए यह फिल्म हमारे जुडिशियल सिस्टम की उस असफलता पर कमेंट है, जिसके चलते हमारा सिस्टम हाशिये पर धकेले जा चुके वर्गों में अपने प्रति भरोसा जगाने में पूरी तरह नाकामयाब रहा है।

    सन 1980 में आई यह फिल्म एक आदिवासी श्रमिक (लाहन्या भीखू) की सच्ची घटना पर आधारित है। लाहन्या पर उसकी पत्नी नागी भीखू की हत्या का आरोप है, पर वह पुरे ट्रायल के दौरान एक शब्द भी नहीं बोलता। उसे लीगल ऐड मशीनरी द्वारा एक वकील (भास्कर कुलकर्णी, नसीरुद्दीन शाह) दिया गया है। पर भास्कर के कई बार प्रयास करने पर भी लाहन्या अपने पक्ष में कुछ नहीं बोलता। एक भयावह शून्यता की ओर वह देखता रहता है, बिना एक शब्द भी कहे।

    लाहन्या का यह मौन ही हमारे लिए एक सवाल है- क्या हमारे न्याय तंत्र ने समाज के सबसे शोषित तबके को और अधिक मौन और अधिक हाशिये में धकेल दिया है, जबकि संविधान की परिकल्पना में हमारे सिस्टम का उद्देश्य 'सोशल रेवोलयूशन'/ सामाजिक क्रांति/ ट्रांसफॉर्म करना था?

    अंतत: भास्कर सच जान पाता है, कि नागी भीखू का बलात्कार और हत्या ऊंची जाति के ताकतवर लोगों ने की थी। भास्कर यह निश्चय करता है कि वह लाहन्या को न्याय दिलवाएगा पर तब तक फिल्म आपको भास्कर के इस निश्चय की सीमाओं से पूरी तरह वाकिफ करवा चुकी है।

    आखिरकार, लाहन्या बोलता है, बल्कि वह चीखता है, अपनी बहन की हत्या करने के बाद,लेकिन लाहन्या की बहन की हत्या किसने की?- लाहन्या ने या सिस्टम (जिसमें लीगल सिस्टम भी एक सहभागी है) की हिंसा ने?

    राजनैतिक हस्तक्षेप, संस्थागत पूर्वाग्रह और न्याय तंत्र-

    लाहन्या को सिस्टम के विभिन्न हिस्सों की मिलीभगत के चलते अनुचित रूप से एक झूठे मामले में फँसाया जाता है. डी.एस.पी, लोकल राजनीतिज्ञ, पब्लिक प्रासीक्यूटर, नगर सभापति, फारेस्ट कांट्रेक्टर का ऑफिसर क्लब में साथ उठना-बैठना है। पुलिस मामले की जांच भलीभांति नहीं करती, नागि के वस्त्र साक्ष्य के तौर पर पेश नहीं करती, डॉक्टर पोस्ट मोर्टेम मुनासिब तौर पर नहीं करता, सच जानने के बावजूद अभियुक्त पक्ष (प्रासीक्यूटर, अमरीश पुरी) राजनैतिक हस्तक्षेप के चलते अपने कर्तव्य को निभाने में असफल रहता है।

    झूठे गवाह पेश किये जाते हैंं, मुनासिब गवाहों को (जैसे लाहन्या के पिता और बहन को) पेश नहीं किया जाता, वे एक भय के माहौल में रहते हैंं। लाहन्या के वकील पर हमले किये जाते हैंं, अत: सम्पूर्ण सिस्टम एक वर्ग विशेष के हितों की रक्षा के लिए जान बूझकर लाहन्या को एक गलत मामले में फसांता है।

    लॉ कमीशन ने अपनी 277 रिपोर्ट में झूठे अभियोजन से संवैधानिक अधिकारों के हनन की बात करते हुए उचित कानून लाने की बात करता है, लेकिन इस तरह के गलत अभियोजनों को न्याय व्यवस्था के संस्थागत पूर्वाग्रहों की दृषिट में देखा जाना चाहिए।

    फिल्म लाहन्या और उसके समुदाय के प्रति लीगल मशीनरी के पूर्वाग्रहों को दर्शाती है। फिल्म के विभिन्न पात्र लाहन्या और उसके समुदाय पर पूर्वाग्रह भरी टिपण्णियाँ करते है। अभियोजन पक्ष पूरा मामला ही उसे 'शराबी' और 'चरित्रहीन' साबित करते हुए बनाने का प्रयास करता है.

    किस तरह कोर्ट और उसकी कार्यप्रणाली वंचित तबकों को 'अन्य' होने का एहसास करवाती है यह भी लाहन्या के पिता और बहन की बॉडी लैंग्वेज से बोध होता है।

    सिस्टम के प्रति हताशा और नाउम्मीदी लाहन्या, उसके परिवार और भास्कर के बीच बातचीत से भी नज़र आती है. भास्कर लाहन्या के परिवार का विश्वास जीतने का सतत प्रयास करता है। उसे बार-बार यह कहना पड़ता है कि वह पुलिस से नहीं है, वे उस पर भरोसा कर सकते हैंं, वह उन्हें धोखा नहीं देगा। वह उनका दुश्मन नहीं है, जब वह लाहन्या के घर जाता है तब भी उनका विश्वास नहीं जीत पाता। लाहन्या के पिता, "पैसा नहीं है" यह कहते हुए उसे वहां से चले जाने को कहते हैं।

    संविधान के तहत लीगल ऐड की मशीनरी स्थापित की गई थी। यदि यह प्रमुख संस्था भी वंचित तबकों का विश्वास जीतकर उनके साथ खड़े होने में असफल नज़र आती है तो यह सवाल जायज़ तौर पर बनता है कि क्या हमारा सिस्टम संविधान के ट्रांस्फॉर्मटिव विज़न के अनुसार ढल सका है?

    फिल्म आदिवासी समाज के लीगल सिस्टम से संपर्क की एक गहरी समझ रखती है। उन्हें मात्र विक्टिम की तरह नहीं पेश करती, अभियोजक (प्रासीक्यूटर, अमरीश पुरी) भी आदिवासी समाज के सदस्य है। वे जाने-माने वकील है, कोर्ट में उनके दान से लगे फर्नीचर आपको नज़र आते है, फिर भी उन्हें भी धमकियों भरे और जातिगत टिपण्णियाँ करने वाले फ़ोन कई बार आते है।

    महिला अधिकार का सवाल

    पितृसत्ता आधारित हमारे समाज में महिलाएं पुरुष और समाज के मान-मर्यादा की विषयवस्तु मात्र होती है। इसलिए बलात्कार भी महिला की 'इज़्ज़त' के विरुद्ध अपराध माना जाता है, बजाय कि उसके मूल अधिकारों के विरुद्ध। इतिहास की दृष्टि से बलात्कार का इस्तेमाल एक राजनैतिक टूल के तौर पर किया गया है।

    बलात्कार कानून की भाषा में भी लम्बे वक़्त तक एक प्रॉपर्टी अपराध था, पति या पिता के खिलाफ। फिल्म यही बात जाति के सन्दर्भ में चिन्हित करती है। लाहन्या भीखू की पत्नी का यौन शोषण इसलिए किया जाता है, ताकि लाहन्या को सबक सिखाया जा सके। लाहन्या एक विद्रोही प्रवृति का व्यक्ति था, इसलिए उसको पाठ पढ़ाने के लिए उसकी पत्नी का बलात्कार किया जाता है। यही सवाल अंत में लाहन्या के बहन के सन्दर्भ में भी खड़ा होता है।

    न्याय और कानून- क्या दोनों एक ही है?

    क्या कानून और न्याय एक ही है? - इस सवाल पर अरस्तु के जमाने से कानून और राजनीती शास्त्र के विद्वान बहस कर रहे है। कानून कई बार न्याय देने के टूल के तौर पर काम करता है तो कई बार कानून न्याय की राह में बाधाएं खड़ी करता है। (खास कर तब जब एक सामंती सोच पर सदियों से चले आ रहे समाज में संविधान की प्रस्तावना में आमूलचूल परिवर्तन लाकर एक पूर्ण और व्यापक न्याय की बात की जाए। )

    यह बहस फिल्म में भी है। खास कर भास्कर और दुस्साने (अमरीश पुरी) के बीच। जहां दुस्साने कहते है कि सच वही है जो कोर्ट में साबित किया गया है वही भास्कर यह सवाल करता है कि क्या कोर्ट की चार दीवारों से आगे कोई सत्य नहीं।

    फिल्म को देखते हुए आप adversarial और inquisitorial सिस्टम की अच्छाइयों और खामियों पर भी सोचने को प्रेरित होते हैंं।

    कोई भी व्यक्ति जो कानून व्यवस्था के वर्ग हितों और सामाजिक ढाँचों में उसके स्थान को समझना चाहता है, उसे यह फिल्म ज़रूरी देखनी चाहिए। पिछले लेख में हमने पुलिस के सन्दर्भ में संविधान के ट्रांफॉर्मटिव विज़न के आत्मसात पर सवाल किया था, यह फिल्म यही सवाल हमारी जुडिशरी के सन्दर्भ में करती है।

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