अनुच्छेद 19 और इंटरनेट : आजादी की हद तय हो

अभिनव चौहान

19 Jan 2020 3:09 PM GMT

  • अनुच्छेद 19 और इंटरनेट : आजादी की हद तय हो
    यह सबसे शानदार समय था और सबसे खराब वक्त भी
    कई बार, यह ज्ञान का युग था, यह मूर्खता का भी युग
    यह विश्वास का युग था, यह अविश्वास का भी युग
    यह उजाले का भी मौसम था, और अंधेरे का भी
    यह उम्मीदों का वसंत था और निराशा की सर्दियां
    हमारे सामने सब कुछ था और कुछ भी नहीं था,
    हम सीधे स्वर्ग जा रहे थे, हम दूसरे रास्ते से भी जा रहे थे
    यह वक्त अपने वर्तमान से काफी दूर था
    अब कोलाहलपूर्ण वक्त में जीने के लिए मजबूर
    अच्छा हो या बुरा, जो भी है अति है।

    19वीं सदी के ब्रिटिश लेखक चार्ल्स डिकंस के उपन्यास 'ए टेल ऑफ टू सिटीज' की इन पंक्तियों से ही सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू में इंटरनेट बहाली का आदेश दिया था। शनिवार 18 जनवरी को पूरे जम्मू में पोस्टपेड और प्रीपेड मोबाइल पर इंटरनेट सेवाएं बहाल कर दी गई हैं। अगस्त में अनुच्छेद 370 के खंड दो और तीन तथा 35ए हटाए जाने के बाद से सुरक्षा कारणों का हवाला देकर गृह मंत्रालय ने जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी थीं। इसके बाद से राज्य में काफी आक्रोश था। इसे लेकर देश भर से विरोध के स्वर उठे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए विपक्ष ने सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं इस संबंध में लगाई गईं थी। सुप्रीम कोर्ट ने 11 जनवरी को इन पर सुनवाई करते हुए इंटरनेट को अभिव्यक्ति की सुरक्षा के लिए मौलिक अधिकार मानते हुए उसे बहाल करने के आदेश सरकार को दिए थे।

    जम्मू-कश्मीर में संचार माध्यमों पर लगी पाबंदियों पर जस्टिस एनवी रमना की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय पीठ ने स्वतंत्रता के साथ-साथ सुरक्षा की भी वकालत की। पीठ ने कहा था, हम प्रतिबंधात्मक आदेशों के पीछे की राजनीतिक मंशा पर सवाल नहीं उठा रहे हैं। बार-बार यह सवाल हमारे सामने आता है कि लोगों की स्वतंत्रता ज्यादा जरूरी है या फिर उनकी सुरक्षा। हम इस बात में पड़ना ही नहीं चाहते हैं कि आजादी जरूरी है या फिर सुरक्षा। हमारी चिंता बस यही है कि लोगों की स्वतंत्रता और सुरक्षा के बीच एक संतुलन कायम किया जाना चाहिए। हम केवल यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि नागरिकों को उनके सभी पर्याप्त अधिकार और आजादी तो मिले हीं, साथ में उनकी सुरक्षा भी हो।

    यह पहला मौका है जब इंटरनेट को सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 19 से जोड़ा है। हालांकि मार्च 2017 में ही केरल ने हर नागरिक के लिए भोजन, पानी और शिक्षा की तरह इंटरनेट को भी मूलभूत अधिकार की श्रेणी में रख दिया था। अपने बजट में इस राज्य ने 20 लाख गरीब परिवारों तक इंटरनेट की पहुंच देने के लिए योजना बनाई थी और फंड आवंटित किया था। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इंटरनेट का उपयोग करने का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत एक मौलिक अधिकार है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 भारत के नागरिकों के लिए कुछ चीजों की स्वतंत्रता की बात करता है। अनुच्छेद 19 (1) के तहत ये हमारे मौलिक अधिकार हैं, जिन्हें हमसे कोई नहीं छीन सकता। अनुच्छेद 19(1)(ए) में सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। 19(1)(बी) में बिना हथियार किसी जगह शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार, 19(1)(सी) में संघ या संगठन बनाने का अधिकार, 19(1)(डी) में भारत में कहीं भी स्वतंत्र रूप से घूमने का अधिकार, 19(1)(ई) में भारत के किसी भी हिस्से में रहने और बसने का अधिकार, 19(1)(एफ) में इसे हटाया जा चुका है (पहले इसमें संपत्ति के अधिकार का प्रावधान था), 19(1)(जी) में कोई भी व्यवसाय, पेशा अपनाने या व्यापार करने का अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 19 का खंड (1) जहां मौलिक अधिकारों की बात करता है, वहीं अनुच्छेद 19 (2) के तहत इन अधिकारों को सीमित भी किया गया है। अनुच्छेद 19 (2) में कहा गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से किसी भी तरह देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए। इन तीन चीजों के संरक्षण के लिए अगर कोई कानून है या बन रहा है, तो उसमें भी बाधा नहीं आनी चाहिए।

    बेशक सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट को मौलिक आवश्यकता का हिस्सा मानते हुए अनुच्छेद 19 में शामिल किया हो लेकिन इस हथियार की हदों को हमें समझना होगा। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश में पिछले कुछ वर्षों से खूब हो-हल्ला चल रहा है। समय-समय पर इस पर जोरदार बहस भी हुई। लेकिन देश के कर्णधारों को इस अधिकार के लिए जनता को जागरूक करने के स्थान पर दिग्भ्रमित करते ही देखा गया है। प्रत्येक नागरिक को यह समझना जरूरी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सामाजिक है और व्यक्तिगत है। इसे संविधान में शामिल करने की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि संविधान के निर्माताओं ने यह ध्यान रखा कि यदि भविष्य में कभी सत्ता में बैठे लोग निरंकुश हों तो जनता अपने हक को उठाने के लिए कमजोर न पड़े। यदि विस्तृत दृष्टि से देखें तो सत्ता के विरुद्ध यह आम जनता को दिया गया एक ऐसा अधिकारपूर्ण हथियार है तो सिंहासन के समानांतर उसे खड़ा करता है। लेकिन अब शायद हम संविधान के इस अधिकार को हासिल तो करना चाहते हैं। लेकिन उसकी आत्मा को नहीं ग्रहण करना चाहते।

    देश में एक शोर है कि संविधान की मूल भावना पर कुठाराघात किया जा रहा है। लेकिन ऐसा आरोप लगाने वाले स्वयं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस अधिकार की मूल भावना को आत्मसात नहीं कर रहे हैं। इस अधिकार में ही एक बंधन और दायरा है। हमें समझना होगा कि संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है न कि स्वच्छंदता का। स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में बहुत महीन अंतर है। लेकिन एक गहरी खाई है। स्वतंत्रता का उपयोग जिम्मेदारी के साथ किया जाता है। जबकि स्वच्छंदता का आचरण दूसरे कि सुविधा या असुविधा को नहीं देखता। संविधान निर्माताओं ने इस अधिकार में पहले ही संदेश दे दिया है कि हम इसकी स्वतंत्रता का उपभोग तो करेंगे, लेकिन उसकी हदों में रहकर। इसी वजह से उन्होंने खंड एक के बाद खंड दो शामिल किया तो इसकी सीमाएं निर्धारित कर दीं।

    निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट की जरूरत को देखते हुए उसे अनुच्छेद 19 के खंड-एक में शामिल किया है। लेकिन अब हमें यह जिम्मेदारी निभानी होगी कि उसका सदुपयोग कैसे करें। यदि हम विद्वेष फैलाने, शांतिभंग करने, भारत की अखंडता को प्रभावित करने जैसे कामों के लिए इस आजादी का उपयोग करेंगे तो आने वाले भविष्य में इस आजादी को छीना भी जा सकता है। जिम्मेदार भारतीय होने के नाते प्रत्येक नागकिर की यह जिम्मेदारी है कि वह इस आजादी का सही से प्रयोग करे और अपने परिचितों को भी इसके सही प्रयोग के लिए जागरूक करे।

    देर से ही सही लेकिन आए तो

    दुनिया के अन्य देशों से तुलना की जाए तो कई छोटे और हमसे काफी पिछड़े देशों ने काफी पहले ही इंटरनेट को मूलभूत जरूरत के रूप में परिभाषित किया है। संयुक्त राष्ट्र ने भी सभी देशों से लोगों के लिए इंटरनेट को मौलिक अधिकार बनाने की सिफारिश की है।

    कोस्टा रीका का सुप्रीम कोर्ट पहले ही सूचना प्रौद्योगिकी, इंटरनेट को नागरिकों के लिए मौलिक अधिकार बता चुका है। यूरोपीय महाद्वीप का देश एस्तोनिया अब से 20 साल पहले वर्ष 2000 में ही देश के हर हिस्से तक इंटरनेट पहुंचाने का कार्यक्रम शुरू कर चुका था। तभी इंटनरेट को मूलभूत मानव अधिकार बताया था। एक दशक से भी पहले फिनलैंड ने 2010 तक देश के हर इंसान तक एक एमबी प्रति सेकंड स्पीड ब्रॉडबैंड की पहुंच देने का फैसला किया था। जबकि 2015 तक हर किसी तक 100 एमबी प्रति सेकंड स्पीड का इंटनेट कनेक्शन देने की तैयारी कर ली थी। फ्रांस में सर्वोच्च न्यायालय इंटरनेट को लोगों के लिए मूलभूत अधिकार घोषित कर चुका है। ग्रीस के संविधान के अनुच्छेद 15 (ए) में सभी को सूचना समाज (इनफॉरमेशन सोसायटी) में शामिल होने का अधिकार दिया गया है। स्पेन में रहने वाले हर इंसान को उचित कीमत पर कम से कम एक एमबी प्रति सेकंड स्पीड ब्रॉडबैंड उपलब्ध कराने का प्रावधान है।

    लेखक अमर उजाला में उप संपादक हैं. IBEI की और से 17वें ग्लोबल पीस अवार्ड से सम्मानित हैं. इंटरनेशनल बुद्धा एजुकेशन इंस्टिट्यूट में निदेशक हैं.लेखक के विचार व्यक्तिगत है

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