कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम २०१३ भाग-१

सुरभि करवा

12 May 2019 9:41 AM GMT

  • कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम २०१३ भाग-१

    १६ अक्टूम्बर 2017 को कलाकार और एक्टिविस्ट Alyassa Milano ने अपने ट्विटर वॉल पर यह कहते हुए पोस्ट लिखा कि अगर सभी महिलाएं जिनके साथ किसी भी तरह का यौन उत्पीड़न हुआ है वो उनके पोस्ट के जवाब में #MeToo लिखे तो शायद समाज को यह नज़र आ जाये कि सेक्सुअल हरासमेंट कितनी बड़ी और व्यापक समस्या है. उस ट्वीट पर मात्र २४ घंटों में लगभग २४ मिलियन महिलाओं ने जवाब दिया और अगले १० दिनों में आंदोलन लगभग ८५ देशों तक पहुँच गया. भारत भी उन देशों में से एक था. २०१८ में तनुश्री दत्ता के मामले के साथ फिर एक बार यौन शोषण पर बात उठी और इस बार भारत सरकार के एक मंत्री, न्यायपालिका और कई लोगों पर आरोप लगे. हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश पर भी आरोप लग चुके है.

    ऐसे में ये समझना बहुत जरुरी है कि यौन उत्पीड़न (खासकर कार्य स्थल सम्बन्धी) में कानून क्या कहता है और इसका महिला अधिकारों से क्या सम्बन्ध है. आने वाले ३ लेखों में हम इसी मुद्दे पर बात करते हुए 2013 के अधिनियम को समझने की कोशिश करेंगे.

    कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न और महिलाओं के मूल अधिकार

    पर २०१३ के अधिनियम को समझने के पहले यह जानना जरूरी है कि कैसे लैंगिक उत्पीड़न सीधे- सीधे महिलाओं के मूल अधिकारों से जुड़ा है. एक उदाहरण लेते है. मान लीजिये एक ऑफिस में एक महिला कर्मचारी पर उसका बॉस या कोई सहकर्मी लगातार अभद्र टिपण्णियां करता है, या जबरदस्ती अपने ऑफिस में बेफिज़ूल बुलाता है, अब ऐसे में शायद वो महिला अपना पूरा मन लगाकर अपने बाकी सहकर्मियों की तरह प्रभावी रूप से कार्य न कर सके, अपनी प्रतिभा का पूरा प्रयोग न कर सके बल्कि वो शायद मानसिक (और कई मामलों में शारीरिक तौर पर भी) तौर पर उस गलत व्यवहार से उबरने की कोशिश में उलझी रहे. ऐसे प्रतिकूल माहौल का जॉब, प्रमोशन सब पर प्रभाव होगा। अत: कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अनुच्छेद १९ में दी गयी व्यावसायिक स्वतंत्रता के अधिकार का और अनुच्छेद १४ में दिए गए बराबरी के अधिकार का हनन है. लैंगिक उत्पीड़न महिलाओं के गरिमा और सुरक्षा के साथ काम करने के हक़ का सीधा-सीधा उल्लंघन है.

    लैंगिक उत्पीड़न का प्रभाव सिर्फ पीड़ित पर नहीं बल्कि सभी महिला कर्मचारियों पर पड़ सकता है. महिलाओं के लिए ऐसे माहौल में जहाँ उन्हें अपनी सुरक्षा की गारंटी न हो वहां प्रभाविक और पूर्ण स्वतंत्रता से कार्य करने में परेशानी होगी. कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अर्थव्यवस्था में महिलाओं की बराबर भागीदारी को सीधे-सीधे प्रभावित करता है. विशाखा बनाम भारत सरकार में कोर्ट ने भी इस बात को स्वीकार किया है.

    उदाहरण के तौर पर चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया पर लगे आरोपों का प्रभाव सीधे इस बात पर पड़ेगा कि हमारे कोर्टों में महिला भागीदारिता क्या रहती है, क्या महिलाएँ पुरुष वकीलों की तरह अपनी प्रतिभा का उपयोग कर पाएंगी.

    कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न कानून का भारत में इतिहास -

    वर्ष १९९२ में राजस्थान के एक गाँव में साथिन भंवरी देवी एक बाल विवाह रुकवाने का प्रयास कर रही थी. भंवरी राजस्थान सरकार के वीमेन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में साथिन के तौर पर बाल विवाह रुकवाने का प्रयास कर रही थी. पर उच्च जाति के समूह( जो वह बाल विवाह करवा रहे थे ) ने अपने जातिगत गर्व में भंवरी के साथ बलात्कार किया। हालांकि भंवरी को आज भी न्याय नहीं मिला है पर भंवरी के साथ हुई घटना के आधार पर विशाखा नामक संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की. याचिकाकर्ताओं का कहना था कि भंवरी के साथ जो हुआ वह कार्यस्थल पर कार्य करते हुए हुआ. याचिकाकर्ताओं की बात स्वीकार करते हुए कार्य स्थल पर लैंगिक उत्पीड़न को महिलाओं के मूल अधिकारों का हनन माना और निर्देशन जारी किये. अंतत: इसी केस के आधार पर २०१३ में महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम पारित किया गया.

    लैंगिक उत्पीड़न/यौन शोषण क्या है?

    अधिनियम को समझने में सर्वप्रथम यह समझना जरुरी है कि लैंगिक उत्पीड़न क्या है? २०१३ के अधिनियम की धारा 2 (n) एवं धारा ३(२) के तहत लैंगिक उत्पीड़न को परिभाषित किया गया है.

    धारा 2 (n)- निम्न में से कोई भी कृत्य, जो अवांछित (unwelcomed) हो), लैंगिक उत्पीड़न होगा-

    १. शारीरिक संपर्क या इसी तरह का एडवांस करना. (Physical contact and advances)

    २. किसी तरह के सेक्सुअल फेवर की माँग करना. (a demand or request for sexual favors)

    ३. सेक्सुअल टोन की टिप्पणियां करना (making sexually colored remark)

    ४. पोर्नोग्राफी दिखाना. (showing pornography)

    ५. अन्य किसी भी तरह का सेक्सुअल नेचर का अवांछित (शारीरिक, मौखिक, या अमौखिक) कार्य करना. (Any other unwelcomed physical, verbal or non verbal conduct of sexual nature).

    यहाँ महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है किन् कृत्यों को 'अवांछित' कहा जायेगा. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई गतिविधि अवांछित है या नहीं वह इस आधार पर तय किया जाता है पीड़ित महिला के दृष्टिकोण में उसे उस व्यवहार से किस तरह महसूस हुआ. अगर महिला किसी व्यवहार से अगर असहज महसूस करती है तो साफ़ तौर पर वह एक्ट उसके लिए अवांछित था. इस स्टैण्डर्ड का तात्पर्य यह है कि महिला को यह साबित करने की जरुरत नहीं है कि उसने उस व्यवहार का एक्टिव विरोध किया, या मौखिक रूप से दोषी व्यक्ति को विरोध जताया. अगर उसने असहज महसूस किया तो वो अपने आप में काफी है. यह सवाल नहीं किया जाना चाहिए कि उसका असहज महसूस करना लाजमी था कि नहीं. हालांकि २०१३ का एक्ट यह बात स्पष्ट रूप से नहीं कहता है पर विशाखा निर्देशनों में यह स्टैण्डर्ड दिया गया है और आम तौर पर यही फॉलो किया जाता है.

    गौरतलब है कि यह जरुरी नहीं कि सेक्सुअल हरासमेंट खुल कर दिखने वाला कोई प्रत्यक्ष कृत्य (overt act) हो, कई बार सेक्सुअल हरासमेंट सतही तौर पर न दिखने वाला पर सूक्ष्म रूप (subtle form) में कार्य करने वाला हो सकता है. उदहारण के तौर पर कुछ सेकंड के लिए रखा गया कमर पर हाथ रखना या औपचारिक रूप से किसी मीटिंग में हाथ मिलाते हुए आम तौर पर स्वीकार्य सेकंडों से ज्यादा देर हाथ थामे रखना भी गलत माना जा सकता है.

    यह जगह, कॉन्टेक्स्ट पर भी निर्भर करता है. उदहारण के तौर पर आप एक मित्र के तौर पर अपनी महिला मित्र को किसी सोशल फंक्शन में गले लगाते हो , या गाल थपथपाते हो वह शायद २(n) की परिभाषा में न आये पर यही आप अपनी उसी मित्र के साथ ऑफिस में करें तो शायद महिला को असहज महसूस हो और वह २(n) की परिभाषा में आ जाये. परन्तु अंतत: यह महत्वपूर्ण है कि महिला को असहज महसूस हुआ या नहीं, उसे वह एक्ट अवांछनीय लगा या नहीं.

    धारा ३(२) - यह धारा उन स्थितियों में लैंगिक उत्पीड़न की बात करती है जहाँ दोषकर्ता द्वारा माँगा गया सेक्सुअल फेवर महिला द्वारा मना कर दिया गया हो. ऐसे में उस महिला के खिलाफ कार्य स्थल पर द्वेषपूर्ण माहौल बनाना , उसके जॉब सम्बन्धी किसी मुद्दे पर उसके खिलाफ एक्शन लेना जैसे प्रमोशन, इन्क्रीमेंट, भविष्य में एम्प्लॉयमेंट के मुद्दों पर, उसे किसी तरह से धमकाना, या उसके साथ अपमान जनक व्यवहार करना ये सभी एक्शन सेक्सुअल हरासमेंट माने जाते है. परन्तु गौरतलब है कि यह लिस्ट अपने आप में पूर्ण नहीं है. धारा २ (n) स्वयं कहती है कि यह मात्र उदाहरण मात्र लिस्ट है, लैंगिक उत्पीड़न अन्य कई और स्थितियों में भी हो सकता है.

    यह एक्ट किन-किन महिलाओं पर लागू होता है?

    विशाखा केस की नज़र में कार्यकारी महिला सिर्फ संगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिला थी. मजदूर महिलाऐं, घरेलु कर्मचारी एवं अन्य वे महिलाऐं जो असंगठित क्षेत्र में काम करती है उन पर ज्यादा ध्यान नहीं था. परन्तु संगठित क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का एक बहुत छोटा सा हिस्सा मात्र है. अधिकाँश महिलाऐं असंगठित क्षेत्र में काम करती है. इसे ही देखते हुए २०१३ का एक्ट दोनों ही क्षेत्रों की महिलाओं पर लागू होता है. असंगठित क्षेत्र की महिलाओं और घरेलु कर्मचारियों के लिए अधिनियम में अलग से कंप्लेंट मशीनरी की व्यवस्था की गयी है.

    अधिनियम निम्लिखित संगठनों पर लागू होता है-

    १. हर सरकारी उपक्रम पर. मेधा कोतवाल केस में सिविल सर्विसेज रूल्स के तहत भी सेक्सुअल हरासमेंट के विरुद्ध प्रावधान किये गए है.

    २. निजी संस्थाओं, गैर सरकारी समूहों, असंगठित कार्यस्थलों पर भी लागू होता है.

    ३. अधिनियम उन घरों पर भी लागू होता है जहाँ कोई घरेलु कर्मचारी कार्य कर रही है.

    यह भी ध्यान रखने योग्य है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की महिला कर्मचारी स्थाई कर्मचारी है या नहीं. इंटर्न, वो ठेकेदार के द्वारा कार्य कर रही है या सीधे, कॉन्ट्रैक्ट लेबर है, प्रोबेशनर सभी तरह की महिला कर्मचारियों पर अधिनियम लागू होता है.

    अगले हिस्से में हम यह जानेगें कि संगठित और असंगठित क्षेत्रों के लिए क्या कंप्लेंट मशीनरी एक्ट के तहत बनाई गयी है.

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