दुर्भावनापूर्ण मुक़दमेबाजी को रोकने के लिये नहीं है कोई कानून

असद अलवी

16 April 2019 4:08 AM GMT

  • दुर्भावनापूर्ण मुक़दमेबाजी को रोकने के लिये नहीं है कोई कानून

    प्रतिवादी का वादी पर सबसे बड़ा आरोप यही होता है कि जो मुक़दमा दायर किया गया है वह विद्वेषपूर्ण (vexatitious), छिछोरा (frivolous) और दुर्भावनापूर्ण (malicious) एवं प्रतिहिसंक (vengeful) है और प्रतिवादी की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचानेवालाहै। पर सवाल उठता है कि यह विद्वेषपूर्ण वाद (Vexatious Litigation) वास्तव में है क्या?

    विधि आयोग की 192वीं रिपोर्ट 7 जून 2005 में आई और आयोग ने इसके बाद Vexatious Litigation (Prevention) Bill 2005 का प्रस्ताव किया। इस बिल की प्रस्तावना में कहा गया कि हाईकोर्ट्स एवं निचली अदालतों में दिवानी तथा आपराधिकमामलों में लगातार बढोतरी हो रही है और इसलिए इन पर प्रतिबन्ध के लिए कोई क़ानून लाना आवश्यक है। इस प्रस्तावित विधेयक में कहा गया कि यदि कोई व्यक्ति आदतन या अकारण द्वेष भावना से प्रेरित हो किसी व्यक्ति या समूह के विरूद्ध कोईदीवानी या आपराधिक वाद लाता है तो उसको Vexatious Litigation घोषित किया जाए और उसको ऐसा करने से रोका जाए। इसके आलावा, ऐसा करने वालों पर जुर्माना लगाने या मुक़दमे का लागत वसूलने का भी प्रावधान हो।

    मद्रास, केरल व महाराष्ट्र में इस प्रकार का कानून लागू है। मद्रास में 1949 में व महाराष्ट्र में 1971 में Vexatious Litigation कानून लाया गया।

    मद्रास Vexatious Litigation (Prevention) Bill, 1949 को वैधानिक त्रुटियों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने P.H. Mawle vs State of A.P, (AIR1965SC 1827) मामले में न्यायमूर्तिहिदायतुल्लाह ने कहा कि इस प्रकार का कानून England में भी है। मद्रास का यह अधिनियम अगर पास हो जाता तो यह आंध्र प्रदेश, केरल, और कर्नाटक में भी लागू होता क्योंकि ये सभी राज्य 1956 के पहले मद्रास प्रोविंस के हिस्सा थे।

    आजकल विद्वेषपूर्ण वाद एक महामारी की तरह बढ़ती जा रही है। अभी कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट एमएल शर्मा की एक रिट याचिका को तुच्छ जनहित याचिका कहकर उस पर ₹50 हजार रुपए का जुर्माना लगाया। शर्मा ने अपनीयाचिका में इस आदेश की माँग की थी कि वित्त मंत्री अरुण जेटली को रिर्जव बैंक की सुरक्षित पूँजी का उपयोग करने से रोका जाए।

    विद्वेषपूर्ण वाद अमूमन वैवाहिक संबंधों में दरार आने पर पति-पत्नी एक-दूसरे के विरूद्ध हथियार के रूप में करते हैं।

    एक विद्वेषपूर्ण वाद उमा शंकर पाण्डेय बनाम भारत सरकार का मामला दिल्ली हाईकोर्ट में आया। उमा शंकर का मानना था कि समाज उनको नीचा दिखा रहा है और वह मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त हो गया है और इसलिए वह क़ानून कीशरण में आया है। हाईकोर्ट ने उसको पूरा मौक़ा दिया और कई बार उसकी बहस को घंटों सुना। पर उसकी बहस काल्पनिक तथ्यों पर आधारित थी। उसकी याचिका 4241 पन्नों की थी। पाण्डेय ने दिल्ली के विभिन्न अदालतों में न जाने कितने मुकदमे दायरकर रखा था। बहस के दौरान उसने कहा कि 19 सितम्बर 2013 को दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष उसको पीटा गया और उसने इसके लिए प्राथमिकी (FIR NO. 50/C) दर्ज कराया था और कहा कि पुलिस उसके साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहारकर रही है। उसने प्रधानमंत्री, मंत्री और अधिकारियों के खिलाफ अनाप शनाप आरोप लगाये और ₹10 करोड़ का मुआवजा मांगा। उमा शंकर ने लगभग 97 प्रार्थना पत्र दायर की और एक याचिका में आपत्तिजनक भाषा का भी प्रयोग किया। पहले हाईकोर्टने कोर्ट की अवमानना के लिए उसको नोटिस भी जारी किया। उसने बाद में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को भी पार्टी बनाया।

    इतना ही नहीं, उमा शंकर ने एलके आडवाणी, मदन लाल खुराना, उमा भारती, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, एचडी देवगौडा, प्रमोद महाजन, पी चिदम्बरम, सोनिया गांधी, प्रणव मुखर्जी, मनमोहन सिंह, लालू यादव, शिवराज पाटिल और न जानेकितने लोगों को समय-समय पर अपनी याचिका में पार्टी बनाया।

    कोर्ट ने उमा शंकर पाण्डेय की बिना सिर-पैर की याचिकाओं को अधीनस्थ न्यायलयों में भेजकर उन्हें लंबित कर दिया। हाई कोर्ट ने निर्देश दिया कि उसकी किसी भी शिकायत या वाद को बिना जिला न्यायलय की आज्ञा के योजित नहीं किया जायेगा।

    न्यायालय ने कहा कि राज्य ने मानसिक तनाव का शिकार एक नागरिक की मदद करके अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वाह कर दिया है।

    कोर्ट ने उमा शंकर पाण्डेय पर अपनी टिप्पणी में कहा, "न्याय की चाहत में अपने बेवक़ूफ़ी भरी हड़कतों से उमा शंकर पांडेय ने अपने आप को बरबाद कर लिया है।"

    आजकल वैवाहिक विवादों में विद्वेषपूर्ण मुक़दमों की बाढ़ आई हुई है, पतियों द्वारा अपनी पत्नियों पर अर्नगल आरोप लगाए जाते हैं और तरह-तरह के एफआइआर एवं मामले दायर किए जाते हैं। सबसे अधिक प्रचलित आरोप दुराचार का है जोअकसर तलाक़ का आधार बनता है। एक पति ने पत्नी पर आरोप लगया कि उसकी पत्नी ने जिस बच्चे को जन्म दिया है वह उसका नहीं है और उसने डीएनए परीक्षण की माँग की। एक पति ने तो सारी सीमाएँ ही लाँघ दी और अपनी पत्नी के ख़िलाफ़ लगभग200 मामले दायर कर दिए जिसमें व्यभिचार, आतंक, हवाला, आय से अधिक धन , वेश्यावृत्ति, और न जाने क्या-क्या आरोप लगाए थे। उसने इन शिकायतों की कॉपी प्रधानमंत्री से सीबीआई, एटीएस, आईबी, एलआईयू सहित ना जाने किस -किस को भेजीपर अपनी पत्नी से ये महाशय तलाक भी नहीं ले रहे।

    इस समय इस तरह के मनोरोगियों द्वारा दायर होने वाले वादों को रोकने के लिए कोई सक्षम प्रावधान या कानून नहीं हैं जिसकी बहुत आवश्यकता है क्योंकि देश भर में इस तरह के लाखों मुक़दमे पहले ही लम्बित हैं।

    (लेखक सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं)

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