वेतन या पारिश्रमिक रोकना धोखाधड़ी के अपराध के दायरे में नहीं आता: बॉम्बे हाईकोर्ट

Amir Ahmad

8 Jun 2024 11:36 AM GMT

  • वेतन या पारिश्रमिक रोकना धोखाधड़ी के अपराध के दायरे में नहीं आता: बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस एन. जे. जमादार की एकल पीठ ने राजीव बंसल और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में माना कि वेतन या पारिश्रमिक रोकना धोखाधड़ी के अपराध के दायरे में नहीं आता।

    मामले की पृष्ठभूमि

    राजीव बंसल (याचिकाकर्ता) एयर इंडिया लिमिटेड (एआईएल) के पूर्व अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक थे। अन्य याचिकाकर्ता एआईएल के वर्तमान और पूर्व निदेशक/प्रबंधक थे। के.वी. जगन्नाथराव (प्रतिवादी) 1987 में सहायक फ्लाइट पर्सुअर के रूप में AIL में शामिल हुए। 2013 में AIL ने अपनी खराब वित्तीय स्थिति के कारण 25% प्रदर्शन से जुड़े प्रोत्साहन को रोकने के लिए 2 अधिसूचनाएं जारी कीं लेकिन ए.आई.एल. ने औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 (आई.डी. अधिनियम) की धारा 9ए के तहत आवश्यक परिवर्तन की वैधानिक सूचना जारी नहीं की। उक्त अधिसूचना के खिलाफ रिट याचिकाएं दायर की गईं और बॉम्बे हाइकोर्ट ने अधिसूचनाओं को अवैध घोषित कर दिया।

    बॉम्बे हाइकोर्ट ने मामले के अजीबोगरीब तथ्यों पर विचार करते हुए माना कि कामगार वही लाभ प्राप्त करने के हकदार होंगे, जो उन्हें निर्णय की तिथि पर मिल रहे थे। बॉम्बे हाइकोर्ट की खंडपीठ ने आगे स्पष्ट किया कि यदि AIL कामगारों की सेवा की शर्तों को बदलना चाहता है तो उसे 31.07.2014 तक परिवर्तन की सूचना देनी होगी। बॉम्बे हाइकोर्ट के उपरोक्त निर्णय को SLP द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, जो आज तक लंबित है। उपरोक्त SLP में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार AIL ने कर्मचारियों को वेतन का बकाया हस्तांतरित कर दिया लेकिन उक्त राशि पर कोई ब्याज नहीं दिया।

    प्रतिवादी द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 200 के तहत सत्यापन विवरण दायर किया गया, जिसमें आरोप लगाया गया कि कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना वेतन और भत्ते रोकना भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 120 बी, 409, 415 और 420 के तहत दंडनीय अपराध है। चुनौती दिए गए आदेश के अनुसार, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने पाया कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आईपीसी की धारा 34 के साथ धारा 409 और 420 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए प्रथम दृष्टया मामला मौजूद है। इस प्रकार, चुनौती दिए गए आदेश के विरुद्ध रिट याचिका दायर की गई।

    याचिकाकर्ताओं द्वारा यह तर्क दिया गया कि धारा 420 और 409 के साथ धारा 34 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए कोई मामला नहीं बनता, क्योंकि मजिस्ट्रेट ने यांत्रिक तरीके से प्रक्रिया जारी करके कानून में गंभीर त्रुटि की है। मजिस्ट्रेट ने शिकायतकर्ता के शपथ पर सत्यापन कथन को दर्ज नहीं किया और शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत टाइप किए गए सत्यापन कथन के आधार पर प्रक्रिया जारी कर दी। इसके अलावा, नियोक्ता के अधिकार के कथित प्रयोग में वेतन और परिलब्धियों का हिस्सा रोकना धोखाधड़ी या आपराधिक विश्वासघात नहीं कहा जा सकता। कामगारों के पास दीवानी उपचार थे और उन्होंने उन उपायों का भी सहारा लिया।

    दूसरी ओर प्रतिवादी द्वारा यह तर्क दिया गया कि सीआरपीसी की धारा 200 का अनुपालन न करने का आधार मान्य नहीं है, क्योंकि प्रतिवादी ने सत्यापन प्रस्तुत किया, जिसका मजिस्ट्रेट द्वारा समर्थन किया गया और प्रक्रिया उसी के आधार पर जारी की गई। इस प्रकार यह नहीं कहा जा सकता कि सत्यापन कथन मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज नहीं किया गया। इसके अलावा आपराधिक कार्रवाई शुरू करने पर कोई रोक नहीं है, जहां तथ्यों के एक ही सेट पर एक पक्ष नागरिक उपचार का सहारा भी ले सकता है। आईडी अधिनियम की धारा 9ए के तहत बिना किसी नोटिस के कर्मचारियों का वेतन रोकने का कार्य स्पष्ट रूप से आपराधिक इरादे से किया गया।

    अदालत के निष्कर्ष

    अदालत ने देखा कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर AIL ने पहले ही वेतन में बकाया राशि का भुगतान कर दिया और एकमात्र विवाद ब्याज के दावे से संबंधित है। हालांकि, भले ही अदालत इस आधार पर आगे बढ़े कि एआईएल आईडी अधिनियम की धारा 9ए के तहत बदलाव की सूचना दिए बिना वेतन का एक हिस्सा नहीं काट सकता था, यह तथ्य कि धारा 9ए का अनुपालन न करने के लिए आईडी अधिनियम की धारा 31(2) के तहत दंड का प्रावधान है। इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा गैर-अनुपालन धोखाधड़ी का अपराध बनता है।

    अदालत ने माना कि धोखाधड़ी के अपराध के लिए चोट के साथ-साथ छल की भी आवश्यकता होती है। धोखाधड़ी में धोखा, धोखाधड़ी और बेईमानी से प्रलोभन देना और इस तरह व्यक्ति को कोई संपत्ति सौंपना या किसी व्यक्ति को संपत्ति रखने की सहमति देना शामिल है।

    अदालत ने आगे कहा,

    “वेतन के एक हिस्से को रोकना किसी भी तरह से धोखाधड़ी के अपराध के दायरे में नहीं आ सकता, क्योंकि नियोक्ता के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उसने कर्मचारी को धोखा दिया या धोखाधड़ी से या बेईमानी से कर्मचारी को संपत्ति सौंपने या किसी व्यक्ति को संपत्ति रखने की सहमति देने के लिए प्रेरित किया है या कर्मचारी को जानबूझकर ऐसा कुछ करने या न करने के लिए प्रेरित किया है, जो कर्मचारी नहीं करता या न करने देता अगर उसे धोखा न दिया गया होता।”

    अदालत ने आगे कहा कि धोखाधड़ी का अपराध बनाने के लिए आरोपी का इरादा लेन-देन की शुरुआत से ही बेईमान होना चाहिए। हालांकि, वेतन/परिलब्धियों में कटौती करने का एआईएल का कार्य नियोक्ता के रूप में अपने अधिकार का प्रयोग था। ऐसी कटौती को अवैध कहना ऐसी कटौती को धोखाधड़ी कहने से अलग है।

    इसके अलावा, आपराधिक विश्वासघात का अपराध भी नहीं बनता, भले ही शिकायत में आरोपों को समान रूप से लिया जाए, क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि कर्मचारियों द्वारा नियोक्ता को किसी भी संपत्ति का कोई हस्तांतरण किया गया। इसके अलावा, यह नहीं कहा जा सकता कि नियोक्ता ने नियोक्ता द्वारा किए गए किसी भी कानूनी अनुबंध का उल्लंघन किया, जो विश्वासघात के बराबर हो सकता है।

    अदालत ने आगे कहा कि प्रक्रियात्मक आधार पर भी मजिस्ट्रेट ने शिकायतकर्ता के शपथ पर सत्यापन बयान दर्ज न करके गलती की। मोहम्मद नवाज इकबाल शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के फैसले पर भरोसा किया गया, जिसमें बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना कि सीआरपीसी की धारा 200 के तहत मजिस्ट्रेट के लिए मामले का संज्ञान लेने से पहले शिकायतकर्ता या उसके गवाहों का शपथ पर बयान दर्ज करना अनिवार्य है।

    उपर्युक्त टिप्पणियों के साथ न्यायालय ने रिट याचिका को अनुमति दी।

    केस टाइटल- राजीव बंसल और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य

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