सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 14: आदेश 6 जरनल प्लीडिंग्स

Update: 2023-11-30 08:52 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 जरनल प्लीडिंग से संबंधित है अर्थात यह आदेश उस व्यवस्था का निर्धारण करता है जो बताती है कि किसी सिविल वाद में दोनों पक्षकार वादी और प्रतिवादी किस प्रकार से प्लीडिंग करेंगे। वाद पात्र किस प्रकार से होगा और प्रतिवाद पत्र किस प्रकार से होगा। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 6 पर विवेचना दी जा रही है।

यह आदेश सिविल मामलों में अभिवचनों से सम्बन्धित उपबन्ध है (1) प्रत्येक पक्ष को अन्य के मामले की जानकारी देने के लिए अभिप्रेत होते हैं, (2) जिससे कि न्यायालय वास्तविक रूप से इस बात का अवधारण कर सकें कि पक्षकारों के बीच क्या विवाद्यक है और (3) उस क्रम से विलगन (हटने) को रोका जा सके जो मुकदमे बाजी में विशिष्ट वाद-हेतुकों के बारे में अवश्य ही अपनाया जाना चाहिये।

अभिवचन का उद्देश्य यह है कि प्रथमतः वह पक्षकारों को निश्चित विवाद्यकों (वाद प्रश्नों) तक सीमित करे और विचारण (कार्यवाही) को भी उचित सीमा के भीतर सीमित करे ताकि समय तथा व्यय की बचत हो, जो अन्यभा अनावश्यक रूप से विस्तृत हो जाता है। द्वितीयतः, इसका उद्देश्य यह है कि वह दूसरे पक्षकार को चकित (स्तंभित) होने से बचावे। इन पर विचारण आरम्भ होने से पहले पक्षकारों और उनके अधिवक्ताओं तथा विचारण न्यायालय द्वारा उचित ध्यान देना होगा।

सिविल प्रक्रिया संहिता में अभिवचन के नियम तथा अन्य आनुषंगिक नियमों का एक ही मुख्य उद्देश्य दिखाई पड़ता है कि पक्षकारों के बीच विवाद का पता लगाकर उसे संकुचित करना। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ही संहिता में विभिन्न उपबन्ध किये गये हैं। ऐसे तथ्य जो वादपत्र में स्वीकार किये गये हैं, उनको प्रतिवादी द्वारा लिखित कथन में दोहराने की आवश्यकता नहीं है। अभिवचन का सम्पूर्ण उद्देश्य यही है कि प्रत्येक पक्ष उन प्रश्नों के बारे में सचेत रहे जिनके लिये उनको समुचित साक्ष्य पेश करनी है और बहस करनी है।

अभिवचन का उद्देश्य पक्षकारों तथा न्यायालय के मार्गदर्शन के लिए तात्विक विवाद्यक तथ्यों को सुनिश्चित करना है। परिणामस्वरूप अभिवचनों का कठोरता से, संकीर्णता से या व्याकरण के शब्दार्थ से अर्थान्वयन नहीं करना है। प्रक्रिया न्याय के हित का साधन है, न कि उसे शासित करने के लिये। अतः प्रारूप से बाध्य न होकर सारतत्व को देखना चाहिये।

अभिवचन का उद्देश्य सारांश उपरोक्त न्यायालय निर्णयों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि "अपने प्रतिपक्षी को अपने मामले की उचित सूचना देना" अभिवचन का मूल उद्देश्य है, परन्तु इसके साथ-साथ कुछ सहायक उद्देश्य भी हैं, जिनका अपना महत्त्व है :

(1) अभिवचन में कथनों को पक्षकारों द्वारा स्वीकार या अस्वीकार किया जाता है, जिसके आधार पर विवादग्रस्त प्रश्नों "विवाद्यकों" को संक्षिप्त और छोटा किया जा सकता है।

(2) जब वाद-प्रश्न या विवाद्यक सीमित और संक्षिप्त हो जाते हैं, तो पक्षकारों की साक्ष्य भी सीमित हो जाती है। इससे न्यायालय व पक्षकार दोनों का अमूल्य समय बच जाता है और साथ ही साथ खर्च भी कम हो जाते हैं।

(3) वास्तविक विचारण आरम्भ होने से पहले पक्षकारों को यह स्पष्ट हो जाता है कि उनको कौन-कौन से वाद प्रश्नों पर साक्ष्य देनी है या उसका बचाव कैसे करना है। अतः अभिवचन स्पष्टता को सुनिश्चित करते हैं।

(4) असंगत तथा अनावश्यक तथ्यों को वादप्रश्न बनाते समय छोड़ दिया जाता है, जिससे मुकदमे की उलझने समाप्त हो जाती हैं।

इस प्रकार अभिवचन का उद्देश्य एक पक्षकार द्वारा अपने प्रतिपक्षी को अपने मामले या दावे की उचित सूचना देना है, ताकि वह विस्मय का शिकार न होकर अपनी उचित प्रतिरक्षा की तैयारी कर सके। यह नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त पर आधारित है। इसके साथ ही असंगतियों को दूर कर सही व सुनिश्चित वाद प्रश्नों तक विवाद को सीमित और संकुचित करना है, ताकि समय व धन के अपव्यय से बचा जा सके।

अभिवचन के उपरोक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए वादी को अपने वादपत्र में उन सभी तथ्यों का कथन करना चाहिये, जो उसके वादहेतुक (वाद कारण) की संरचना करते हो। यह अभिकथन करना पर्याप्त नहीं होगा कि यदि ऐसी कोई बात उसमें जोड़ दी जाये, जो वादपत्र में नहीं है, तो उसका कार्यवाही में क्या आधार होगा। इस प्रकार अभिवचन के सही सिद्धान्तों के आधार पर जो वादहेतुक है, उसी का अभिकथन करना आवश्यक है, न कि किसी भावी या संभावित बादहेतुक का। अतः भविष्य की संभावनाओं की कल्पना बादपत्र में नहीं की जानी चाहिए।

इसी प्रकार प्रतिवादी को अपने प्रतिवाद पत्र में उन तात्विक तथ्यों को कहना चाहिये, जिन पर वह अपने बचाव के लिए निर्भर करता है, जब दोनों पक्षों के अभिवचनों का परिणाम यह होता हो कि किसी तात्विक तथ्य को एक पक्ष पुष्ट करता है और दूसरा उसका अस्वीकार करता है, तो जो प्रश्न उत्पत्र होता है, उसे तथ्य का विवाद्यक कहते हैं। परन्तु जब एक पक्षकार अपने विपक्षी के अभिवचन पर विधि के बिन्दु की आपत्ति करता है, तो इससे उत्पन्न विधिक प्रश्न को विधि का विवाद्यक कहते हैं। इस प्रकार अभिवचन निश्चित विवादक या मामले के वास्तविक विवादग्रस्त प्रश्न तक पहुंचने का एक साधन है।

अभिवचन का अर्थान्वयन (क) आधारभूत सिद्धान्त अभिवचनों का निर्वचन प्रारूपिक कठोरता से नहीं, अपितु निर्धन लोगों की निम्न विधिक साक्षरता विषयक डील और उसकी जानकारी सहित करना होता है। अभी भी न्यायालयों में अभिवचनों का प्रारूपण ढीलादाला किया जाता है और न्यायालयों को उन अभिवचनों की इतनी बारीकी से संवीक्षा नहीं करनी चाहिए कि सच्चा दावा तुच्छ आधार पर विफल हो जाय।

वाद के किसी भी पक्षकार को उसके अभिवचन से बाहर जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये और ऐसे किसी तथ्य को सिद्ध करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये, जो कि अभिवचन में नहीं दिया गया हो। विचारण की निष्पक्षता की यह मांग है कि कोई भी पक्षकार अचंभित नहीं होना चाहिए और उसे मामले का ज्ञान होना चाहिए जिसका उसे सामना करना है।

जैसे कैसे, न्यायालय केवल अभिवचन की तस्नीक के आधार पर ऐसे दावे को बैंकले में पीना देगा, सि कुछ तत्व या सार है और आके कारण दूसरे पक्ष को कोई प्रतिकूलता (हान) कारित नहीं होती है, चिर पाहे कदख की शब्द रचना कितनी ही पुंपली (Clumsy) या अकलात्मक रूप से क्यों नहीं की गई हो।

अपील के ज्ञापन का अर्थान्ययन किसी अभिवचन या उसके समान पिटीशन का अर्थान्वयन करने में न्यायालय कसे केवल उसके प्ररूप को ही नहीं देखना चाहिए, या आने से बिखरे हुए कुछ शब्दों या वाक्यों को ही नहीं पकड़ तेरा चाहिए, वरन् उस पिटीशन को पूर्णरूप से पढ़ना चाहिए और पक्षकार के वास्तविक अभिदाय का पता लगाकर मामले के सारतत्व तक पहुंचना चाहिये।

भाषा का अर्थ - यह सुझाव, जिसके अनुसार पैर की भाषा को अलग-अलग टुकड़ों में बांटने और उन्हें एक-दूसरे से पृथक कर देखने के बाद अर्थान्वयन के इस विचित्र ढंग की सिफारिश की गई है, जो निर्वचन के मूलभूत नियमों के प्रतिकूल है, जिसके अनुसार किसी भी अभिवचन का सही अर्थ जानने के लिए उसे पूर्ण रूप से पढ़ना चाहिये।

यद्यपि जिस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिये, वह सार है; न कि प्ररूप मात्र। फिर भी अभिवचन का अर्थान्वयन उसी रूप में किया जाना है, जिस रूप में वह अभिव्यक्ति हुई है और ऐसा करते समय उसमें से कोई शब्द न हो हटाये जाने चाहिये और न उसमें बढ़ाये जाने चाहिये और न उसके स्पष्ट प्रकट व्याकरणीय अभिप्राय में कोई परिवर्तन किया जाना चाहिये। सम्बद्ध पक्षकार का आशय प्राथमिक रूप से उसके सम्पूर्ण अभिवचन की और ध्वनि और शब्दों से ही निकाला जाना चाहिये।

अर्थान्वयन का सही तरीका यह है कि अभिवचन के पैरा को वैसे ही समझा जाये जैसा कि वह मूलरूप में है और उसे अलग-अलग भागों में न समझकर उसको प्रस्तावना और शेष अभिवचन सहित सम्पूर्ण रूप से समझा जाये।

अभिवचन का अर्थ करना और न्यायालय का कर्तव्य

क्या कोई वाद केवल स्थायी व्यादेश के लिए है- यह प्रश्न प्रत्येक मामले में वादपत्र की रचना पर निर्भर करता है। परन्तु वादपत्र का अर्थ लगाते समय न्यायालय को उसके सार को देखना होता है, न कि प्ररूप मात्र को। यदि पूर्ण रूप से और सार रूप से वाद में कोई ऐसा अनुतोष मांगा गया है, तो न्यायालय उस अनुतोष के सार को देख सकता है। यह प्रश्न कि व्यादेश का अनुतोष 'मुख्य अनुतोष के परिणामस्वरूप समझा जाय या नहीं' वादपत्र के अभिकथनों और उसमें चाहे गये अनुतोष के आधार पर तय किया जायेगा। केवल वादपत्र के प्रारूपन की वांछलता (चालाकी) में दिए गये अनुतोष को देखने में न्यायालय के मार्ग में नहीं आने दी जावेगी।

किसी वाद में अनुतोष के सही स्वरूप का निश्चय करने के लिए उसके सारतत्व पर विचार करना चाहिये, न कि उस प्रारूप पर जिसमें अनुतोष मांगा गया है। इस वाद में मांगा गया अनुतोष वास्तव में इस घोषणा के लिये था कि विवादग्रस्त भूमि में वादी का आधा हिस्सा है और इस मामले में यह नहीं कहा जा सकता कि यह वाद उस दस्तावेज का केवल निराकरण करने के लिए था।

इस प्रकार न्याय के हित का ध्यान रखना प्रथम कर्तव्य है, जबकि अभिवचन के प्ररूप को इतना अधिक महत्त्व नहीं दिया गया है।

अतः अभिवचन को कठोरता से नहीं देखना चाहिये। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि केवल इसीलिये एक वाद को खारिज कर देना उचित और न्याय संगत नहीं है कि-वादी ने मामले के तथ्यों के अनुसार वादपत्र में आवश्यक संशोधन नहीं किये। अभिवचन का इस प्रकार कठोर अर्थ करके न्याय के हित को तकनीकी बिन्दु पर बलिदान नहीं किया जा सकता। किसी वाद में अभिवचन की संरचना पर जोर देना सही नहीं है, जब वादी के मामले की निष्पक्ष सूचना प्रतिपक्षी को जांच करने पर मिल गई, चाहे उसका अभिवचन में धुंधला-सा उल्लेख ही क्यों न किया गया हो' सिविल कार्यवाहियों में अभिवचनों से सम्बन्धित उपबन्धों को तकनीकी रूप से माना जाना आवश्यक है। जब वादी एक व्यवसायी वकील था और दूसरे वकील द्वारा उसकी पैरवी की गई, तो अभिवचन का कठोरता से अर्थान्वयन किया जाना चाहिये था।

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