सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 57: आदेश 11 नियम 1 से 5 तक के प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 11 परिप्रश्न एवं प्रकटीकरण से संबंधित है। यह आदेश थोड़ा कठिन है क्योंकि अदालतों में इस आदेश को कम उपयोग में लिया जाता है। किसी वाद में वादी एवं प्रतिवादी भी न्यायालय की आज्ञा से कुछ प्रश्न पूछ सकते हैं एवं जिससे पूछे जा रहे हैं उसे उसका उत्तर देना होता है। यह प्रतिपरीक्षण के अतिरिक्त होता है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 11 के नियम 1 से 5 तक के प्रावधानों पर चर्चा की जा रही है।
नियम-1 परिप्रश्नों द्वारा प्रकटीकरण कराना किसी भी वाद में वादी या प्रतिवादी विरोधी पक्षकारों या ऐसे पक्षकारों में से किसी एक या अधिक की परीक्षा करने के लिए लिखित परिप्रश्न न्यायालय की इजाजत से परिदत्त कर सकेगा और परिदत्त किए जाते समय परिप्रश्नों में यह वाद टिप्पण होगा कि ऐसे व्यक्तियों में से हर एक ऐसे परिप्रश्नों में से किनका उत्तर देने के लिए अपेक्षित है, परन्तु कोई भी पक्षकार एक ही पक्षकार को परिप्रश्न के एक संवर्ग (सैट) से अधिक उस प्रयोजन के लिए आदेश के बिना परिदत्त नहीं करेगा
परन्तु यह और भी कि वे परिप्रश्न जो वाद में प्रश्नगत किन्हीं विषयों से संबंधित नहीं है, इस बात के होते हुए भी विसंगत समझे जाएगे कि साक्षी की मौखिक प्रतिपरीक्षा करने में वे ग्राह्य होते।
नियम-2विशिष्ट परिप्रश्नों का दिया जाना-परिप्रश्नों के परिदान के लिए इजाजत के लिए आवेदन पर वे विशिष्ट परिप्रश्न जिनका परिदान किए जाने की प्रस्थापना है, न्यायालय के समक्ष रखे जाएंगे और यह न्यायालय उक्त आवेदन के फाइल किए जाने के दिन से सात दिन के भीतर विनिश्वय करेगा।
ऐसे आवेदन पर विनिश्चय करने में न्यायालय किसी ऐसी प्रस्थापना पर भी विचार करेगा जो उस पक्षकार ने जिससे परिप्रश्न किया जाना है प्रश्नगत बातों या उनमें से किसी से संबंधित विशिष्टियों को परिदत करने या स्वीकृतियां करने या दस्तावेजें पेश करने के लिए की गई हों और उसके समक्ष रखे गए परिप्रश्नों में से केवल ऐसे परिप्रश्नों के संबंध में इजाजत दी जाएगी जिन्हें न्यायालय या तो वाद के ऋजु निपटारे के लिए या खर्चा में बचत करने के लिए आवश्यक समझे।
परिप्रश्नों के खर्चे-वाद के खर्चा का समायोजन करने में ऐसे परिप्रश्नों के प्रदर्शन के औचित्य के सम्बन्ध में जांच किसी पक्षकार की प्रेरणा पर की जाएगी और यदि विनिर्धारक अधिकारी या न्यायालय की राय जांच के लिए आवेदन पर या ऐसे आवेदन के बिना यह हो कि ऐसे परिप्रश्न अयुक्तियुक्त: तंग करने के लिए या अनुचित विस्तार के साथ प्रदर्शित किए गए हैं तो उक्त परिप्रश्नों और उनके उत्तरों के कारण हुए खर्चे हर हालत में उस पक्षकार द्वारा दिए जाएंगे जिसने यह कसूर किया है।
नियम-4 परिप्रश्नों का प्ररूप-परिप्रश्न परिशिष्ट-ग के प्ररूप संख्यांक 2 में ऐसे फेरफार के साथ होंगे जो परिस्थितियो में अपेक्षित हों।
नियम-5 जहां वाद का कोई पक्षकार निगम या व्यक्तियों का ऐसा निकाय है, चाहे यह निगमित हो या नहीं, जो विधि द्वारा सशक्त है कि स्वयं अपने नाम से या किसी अधिकारी के या अन्य व्यक्ति के नाम से वाद ला सके या उस पर वाद लाया जा सके, वहां कोई भी विरोधी पक्षकार ऐसे निगम या निकाय के किसी भी सदस्य या अधिकारी को परिप्रश्न परिदत्त करने के लिए अपने को अनुज्ञा देने वाले आदेश के लिए आवेदन कर सकेगा और आदेश तदनुसार किया जा सकेगा।
परिप्रश्नों का उद्देश्य व स्वरूप-परिप्रश्नों का मुख्य उद्देश्य यह है कि एक पक्षकार अपने विरोधी से उनके बीच के विवादग्रस्त प्रश्न से सम्बन्धित तात्विक तथ्यों के बारे में सूचना प्राप्त कर और उनके बीच में उठाये गये किसी विवादद्यक के बारे में साबित किये जाने वाले तथ्यों के बारे में उसकी अभिस्वीकृति प्राप्त कर वाद-व्यय (ख) और समय की बचत कर सके। विरोधी पक्षकार की कोई अभिस्वीकृति परिप्रश्न देने वाले पक्षकार के मामले को सफल बना सकती है या उसके द्वारा दिया गया उत्तर उसके स्वयं के मामले को नष्ट कर सकता है। अत: ऐसे पक्षकार को परिप्रश्नों का उत्तर देने या दस्तावेज प्रकट करने के लिए नहीं कहा जा सकता, जो बादी का प्रतिरोध करने के लिये उपसंजात (उपस्थित) नहीं होता है।
अभिवचन में आदेश 6 नियम 1 के अनुसार वादपत्र और प्रतिवादपत्र दोनों आते हैं। विशिष्टियां और अधिक अच्छे कथन आदेश 6 नियम 4 और 5 के अधीन आते हैं, अत: वे अभिवचन के अंग हैं, परन्तु परिप्रश्न आदेश 11 के नियम 1 के अधीन विपक्षी से पूछे गये प्रश्न हैं, जिनके उत्तर स्वीकृति के रूप में साक्ष्य बन जाते हैं। अब आदेश 6, नियम 5 को लोपित कर अतिरिक्त विशिष्टियों को हटा दिया गया है।
परिप्रश्न अभिवचनों की तरह केवल उन तार्किक तथ्यों तक सीमित नहीं है, जिन पर पक्षकार अपने दावे या प्रतिरक्षा के समर्थन के लिए निर्भर करते हैं। परिप्रश्न केवल अपने विपक्षी के मामले के स्वरूप का निश्चय करने के लिये ही नहीं पूछे जाते, परन्तु अभिवचन में जो कोई बात तात्विक है उसके बारे में विपक्षी की स्वीकृतियां प्राप्त करने के लिये पूछे जाते हैं, ताकि स्वयं के मामले को प्रमाणित (साबित) करने में सुविधा हो सके और इस प्रकार अपने विपक्षी द्वारा परिप्रश्नों के दिये गये उत्तरों में स्वीकार किये गये तथ्यों को प्रमाणित करने के स्वयं के खर्चे की बचत की जा सके।
परिप्रश्नों तथा प्रतिपरोक्षा में अन्तर-
ऐसे प्रश्न जो किसी व्यक्ति की विश्वसनीयता की जांच करने के लिए पूछे जाते हैं, उनको परिप्रश्न में नहीं पूछा जा सकता, पर प्रतिपरीक्षा में पूछा जा सकता है। अत: कोई भी प्रश्न जो प्रतिपरीक्षा में साक्षी से पूछा जा सकता है, परिप्रश्न में नहीं पूछा जा सकता। परिप्रश्न केवल बाद के पक्षकार को दिये जा सकते हैं, गवाह (साक्षी) या प्रतिपक्षी के वकील को नहीं।
प्रस्तावित किए गये विशेष परिप्रश्नों को न्यायालय के समक्ष आवेदन के साथ प्रस्तुत किया जावेगा।
आवेदन देने की तारीख से सात दिन के भीतर न्यायालय उस पर विनिश्चय देगा और विपक्षी को उसकी प्रस्थापना (प्रस्ताव) पर विचार किया जावेगा। इसके बाद केवल ऐसे परिप्रश्नों को पूछने की इजाजत दी जावेगी।
(अ) जो वाद के न्यायपूर्ण (ऋजु) निपटारे के लिए, या
(ब) खचों में बचत करने के लिए आवश्यक समझे जायें।
इस प्रकार यहां न्यायालय अनावश्यक, विसंगत, अतात्विक परिप्रश्नों की स्वयं इजाजत देने से इन्कार कर सकता है।
जो परिप्रश्न अयुक्तियुक्त, तंग करने वाले और अनुचित रूप से मामले को बढ़ाने वाले हैं, उनके औचित्य की जांच पक्षकार के आवेदन पर या बिना आवदेन के की जा सकेगी और उससे संबंधित खर्च दोषी से वसूल किये जाएंगे।
परिप्रश्नों का स्वरूप एवं अनुमति-
(क) तथ्यों का स्वरूप/भेद-प्रत्येक मामले में दो प्रकार के तथ्य होते हैं-
(1) तात्विक तथ्य, जो किसी पक्षकार के मामले का गठन करते हैं, उसकी रचना करते हैं, और प्रस्तुत करने होते हैं।
(2) साक्ष्यिक तथ्य, जो किसी पक्षकार को अपने मामले को साबित करने के लिये परिप्रश्नों (प्रश्नावली) में केवल तात्विक तथ्यों के बारे में प्रश्न पूछे जा सकते हैं, न कि साक्षिक तथ्यों के बारे में।
(ख) परिप्रश्न जिनके लिए अनुमति दी जा सकती है-निम्न उद्देश्य के लिए परिप्रश्न पूछने की अनुमति न्यायालय द्वारा दी जा सकती है-
(1) अपने प्रतिपक्षी के मामले के स्वरूप का पता लगाने के लिए-अर्थात् उसके मामले का गठन करने वाले तात्विक तथ्यों का पता लगाने के लिए।
(2) (क) प्रत्यक्ष रूप से, विपक्षी से अभिस्वीकृतियां प्राप्त करते हुए, या
(ख) अप्रत्यक्ष रूप से, अपने विपक्षी के मामले का अधिक्षेप करने के लिए
इन नियमों को निम्न उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है-
एक प्रदर्शनी में प्रदर्शन के लिए एक मशीन के कार्यकारी मॉडल बनाने का काम वादी को सौंपा गया। वादी ने उस मॉडल को बनाने के लिए 5000 रुपये के पारिश्रमिक का दावा किया। प्रतिवादी ने प्रतिवाद पत्र में कहा कि उक्त मॉडल मशीन दोषपूर्ण था और चालू दशा में नहीं था। ऐसी दशा में वादी प्रतिवादी से प्रस में यह पूछ सकता है कि क्या उस मॉडल मशीन को उस प्रदर्शनी में पुरस्कार नहीं दिया गया था। इसके उत्तर में यदि प्रतिवादी यह स्वीकार कर लेता है कि उस मॉडल मशीन पर पुरस्कार दिया गया था, तो इससे प्रतिवादी का मामला स्वयं नष्ट हो जाता है। इस प्रकार प्रश्न द्वारा अभिस्वीकृति प्राप्त करना अनुज्ञेय है और इससे पक्षकार को अपना मामला सुदृढ करने में मदद मिलती है और विपक्षी का मामला देर हो जाता है।
अपवाद- उपरोक्त नियम (उद्देश्य) : (ख) का एक अपवाद है, जहां इसे लागू नहीं किया जा सकता। बेदखली (निष्कासन) के मामले में, जहां वादी प्रतिवादी के कब्जे को अवैध बताकर अपना स्वामित्व बताता है, वहां वादी को अपना स्वामित्व साबित करना होगा और वह केवल प्रतिवादी के स्वामित्व को गलत बताकर कब्जा प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसे मामले में प्रतिवादी के स्वामित्व को झूठा बताने के लिए प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं दी जा सकती। परन्तु वह ऐसे प्रश्न पूछ सकता है, जिससे प्रतिवादी के स्वामित्व के बजाय उसका (वादी) स्वामित्व प्रकट हो जाए।
परिप्रश्न सुसंगत होने चाहिए- परिप्रश्नों की सतर्कता से परीक्षा करनी चाहिये। वे किसी विशेष अभिकथन की विषय वस्तु की तात्विक बातों के बारे में होने चाहिए और वे केवल ऊपरी सतह को छूने वाले नहीं होने चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि जो प्रश्न प्रति-परीक्षा के दौरान सुसंगत हों, वे आवश्यक रूप से परिप्रश्नों के रूप में सुसंगत हो। जो प्रश्न प्रश्नगत विषय से सम्बन्धित होते हैं, वे ही परिप्रश्नों के रूप में सुसंगत होते है। जिन परिप्रश्नों की तामील की जाती है उनका प्रश्नगत विषयों से युक्तियुक्त निकट सम्बन्ध होना चाहिए।