सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 55: आदेश 10 नियम 1 एवं 2 के प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 10 न्यायालय द्वारा पक्षकारों की विवाधक तय करने के पूर्व ली जाने वाली परीक्षा है। संहिता का यह आदेश एक छोटा सा आदेश है जिसमें कुल चार नियम हैं। इस आदेश को संहिता में रखे जाने का उद्देश्य विचारण पूर्व न्यायालय पक्षकारों के मध्य विवाद को समझ सकें एवं उस विवाद के आधार पर विवाधक बिंदु तय कर सके, यह आदेश न्यायालय के काम में सरलता दिए जाने हेतु संहिता में दिया गया है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 10 के नियम 1 व 2 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-1 यह अभिनिश्चय करना कि अभिवचनों में के अभिकथन स्वीकृत हैं या प्रत्याख्यात हैं-न्यायालय हर एक पक्षकार से या उसके प्लीडर से वाद की प्रथम सुनवाई में यह अभिनिश्चित करेगा कि क्या वह तथ्य के उन अभिकथनों को जो वादपत्र में या यदि विरोधी पक्षकार का कोई लिखित कथन है तो उसमें किए गए हैं और जो उस पक्षकार द्वारा जिसके विरुद्ध वे किए गए हैं, अभिव्यक्त रूप से या आवश्यक विवक्षा से स्वीकार या प्रत्याख्यात नहीं किए गए हैं, स्वीकार करता है या प्रत्याख्यात करता है। न्यायालय ऐसी स्वीकृतियों और प्रत्याख्यानों को लेखबद्ध करेगा।
नियम-2 पक्षकारों को या पक्षकारों के साथी की मौखिक परीक्षा- (1) न्यायालय वाद की प्रथम सुनवाई में
(क) पक्षकारों में से ऐसे पक्षकारों की जो न्यायालय में उपसंजात है या उपस्थित हैं, वाद में विवादग्रस्त बातों के विशदीकरण की दृष्टि से मौखिक परीक्षा करेगा जो वह ठीक समझे; और
(ख) वाद से संबंधित किन्हीं तात्विक प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थ ऐसे किसी व्यक्ति की, जो न्यायालय में स्वयं उपसंजात या उपस्थित पक्षकार या उसके प्लीडर के साथ है, मौखिक परीक्षा कर सकेगा।
(2) न्यायालय किसी पश्चात्वर्ती सुनवाई में, न्यायालय में स्वयं उपसंजात या उपस्थित पक्षकार की या वाद से संबंधित किन्हीं तात्विक प्रश्नों के उत्तर देने के समर्थ ऐसे किसी व्यक्ति की, जो ऐसे पक्षकार या उसके प्लीडर के साथ है, मौखिक परीक्षा कर सकेगा।
(3) यदि न्यायालय ठीक समझे तो वह दोनों पक्षकारों में से किसी के भी द्वारा सुझाए गए प्रश्नों को इस नियम के अधीन किसी परीक्षा के दौरान पूछ सकेगा।
आदेश 10 का नियम 1 मूल प्रावधान है। इसमें न्यायालय को अभिवचनों में पक्षकार द्वारा दिये गये अभिकथनों की स्वीकृति या प्रत्याख्यान लेखबद्ध करने की शक्ति दी गई है, जिसका नियम 2 में दिये गये तरीके से प्रयोग किया जावेगा। यह संहिता का एक उपबन्ध आज्ञापक है।
स्वीकृति और प्रत्याख्यान को लेखबद्ध करना
न्यायालय में वादपत्र के उत्तर में प्रतिवादी ने लिखित - कथन प्रस्तुत कर दिया है। वादपत्र और लिखित -कथन के आधार पर कुछ ऐसे अभिकथन हैं, जिनको स्पष्ट रूप से या आवश्यक विवक्षा से स्वीकार या अस्वीकार नहीं किया गया है। इससे मामला स्पष्ट नहीं हो पाया है।
न्यायालय प्रथम सुनवाई में हर एक पक्षकार (वादी और प्रतिवादी) से या उसके लीडर से ऐसे अभिकथनों को स्वीकार या अस्वीकार करने को कहेगा ।
ऐसी स्वीकृतियों और प्रत्याख्यानों (अस्वीकृतियों) को लेखबद्ध किया जावेगा। स्वीकृतियों को साबित करना आवश्यक नहीं हैं।
वाद की पहली सुनवाई
यह शब्दावली आदेश 10, नियन 1, आदेश 14, नियम 1 (5) और आदेश 15, नियम में प्रयोग में ली गई है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार, इसका अर्थ कभी भी पक्षकारों की प्रारम्भिक परीक्षा और विवाद्यकों के स्थिरीकरण के लिए निश्चित किए गए दिनांक से पहले नहीं हो सकता।
जहां राज्य के अधिनियमों में इस शब्दावली का प्रयोग किया गया है, वहां राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय इस शब्दावली के निर्वचन के लिए सर्वश्रेष्ठ मार्ग दर्शक हैं।
अतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब उ. प्र. नगर भवन (पट्टा, किराया एवं बेदखली) अधिनियम, 1972 की धारा 20(4) में शब्दावली वाद की पहली सुनवाई का अर्थ विवाद्यक बनाने के बाद जब वाद का विचरण करने और साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए दिनांक तय की जाती है, उसे पहली सुनवाई की दिनांक स्वीकार किया है, तो इसमें कोई गलती नहीं है। शब्दावली सुनवाई का
राजस्थान उच्च न्यायालय ने किराया नियंत्रण अधिनियन की पारा 13(3) में प्रयुक्त इस शब्दावली का अर्थ करते हुए बताया है कि-
(1) आदेश 5, नियम 1, सीपीसी के अधीन जारी किए गये समन के वापस आने के लिए नियत किया गया दिनांक, जो विवाद्यक स्थिर करने के लिए है या वाद के अंतिम निपटारा के लिये है और उस दिनांक को प्रतिवादी को सीपीसी के आदेश 9 नियम में उपबंधित के अनुसार उपसंजात (उपस्थित) होना चाहा गया है।
(2) वह दिनांक, जिसके लिये विवाद्यकों के स्थिरीकरण के लिए समन जारी किये गये हैं।
(3) वह दिनांक, जब समन की सम्यकू तामील के बाद जिसके साथ वादपत्र की प्रति संलग्न है, प्रतिवादी उपस्थित होता है और दावे का उत्तर देता है।
उच्चतम न्यायालय ने पंजाब किराया नियंत्रण अधिनियम की पारा 13(2) (1) के परन्तुक में प्रयुक्त इस शब्दावली का अर्थ बताया है कि यह समन के वापस आने या वापसी के दिन के लिए निश्चित दिनांक नहीं है, परन्तु वह दिन है जब न्यायालय उस मामले पर विचार करता है।
एक मामले में कहा गया है कि जब किसी बंधक सम्पत्ति को विक्रय कर दिया गया है और दूसरे वाद में उस सम्पत्ति के मोचन का दावा किया गया और अभिवचन में बंधककर्ताओं ने इस बात को छिपा लिया, तो ऐसी स्थिति में पक्षकारों की परीक्षा करना न्यायालय का बाध्यकारी कर्तव्य था।
वादी की परीक्षा करने का प्रक्रम- वादी की न्यायालय द्वारा परीक्षा प्रतिवादी द्वारा लिखित-कथन फाइल करने के बाद की जावेगी या उस समय जब प्रतिवादी लिखित-कथन प्रस्तुत करने का प्रस्ताव नहीं करे। यह परीक्षा नियन 2 व 3 के अनुसार की जावेगी।
वादहेतुक का अप्रकटीकरण-
परिसीमा का वादप्रश्न तथा वादपत्र वादहेतुक प्रकट करता है या नहीं, इन प्रश्नों पर बिना साक्ष्य लिए न्यायालय कब निर्णय ले सकता है एक प्रकरण में विचार किया गया है। विभाजन वाद में वादहेतुक के अप्रकटीकरण के कारण वादपत्र को खारिज नहीं किया जा सकता है, जब कि वादी का कथन था कि पहले की विभाजन की डिक्री बनावटी और झूठी थी, जो केवल कर के दायित्व को कम कर लेने के अर्थ में थी। ऐसे कथन को बिना साक्ष्य लिए विनिश्चित नहीं किया जा सकता।
संहिता में आदेश 10 के नियम 1 में संशोधन करते हुए निम्न नियम जोड़े गए हैं-
1(क)वैकल्पिक-विवाद संकल्प के किसी एक तरीके के लिए विकल्प देने के लिए न्यायालय का निदेश- प्रत्याख्यानों को अभिलिखित करने के पश्चात्, न्यायालय वाद के पक्षकारों को धारा स्वीकृतियों और 89 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट रूप से न्यायालय के बाहर समझौते का कोई भी तरीके का विकल्प देने के लिए निर्देशित करेगा। पक्षकारों के विकल्प पर न्यायालय ऐसे मंच या प्राधिकरण के समक्ष, जो पक्षकारों द्वारा विकल्प दिया जाए, उपसंजात की तारीख नियत करेगा।
1(ख) सुलह मंच या प्राधिकरण के समक्ष उपसंजात होना--जहां कोई वाद नियम 1क के अधीन निर्दिष्ट किया जाता है वहां पक्षकार वाद के सुलह के लिए ऐसे मंच या प्राधिकारी के समक्ष उपसंजात होंगे। न्यायालय के समक्ष उपसंजात होना--जहां
1(ग) सुलह के प्रयासों के असफल होने के परिणामस्वरूप कोई वाद नियम 1क के अधीन निर्दिष्ट किया जाता है और सुलह मंच या प्राधिकरण के पीठासीन अधिकारी का यह समाधान हो जाता है कि मामले का आगे अग्रसर होना न्याय के हित में उचित नहीं होगा तो वह न्यायालय को पुनः मामला निर्दिष्ट करेगा और पक्षकारों को उसके द्वारा नियत तारीख को न्यायालय के समक्ष उपसंजात होने के लिए निर्देशित करेगा।
आमतौर पर सिविल वादों का निर्णय कई वर्षों तक नहीं हो पाता है, इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए विचाराधीन मामलों का न्यायालय से बाहर निपटारा (समझौता) करवाने की सूझबूझ उदित हुई। देरी से पिण्ड छुड़ाने और विवाद (मुकदमेबाजी) से बचने के लिए एक नई परम्परा स्थापित की गई। लोक अदालत की योजना की सफलता को देखते हुए "पसिविल प्रक्रिया संहिता में 1999 में संशोधन कर न्यायालय से बाहर समझौते की प्रक्रिया को धारा 89 जोड़कर सम्मिलित कर लिया गया है, जो 1 जुलाई, 2002 से लागू कर दी गई है।
आदेश के नियम 1-क, 1-ख और 1ग के अनुसार, निम्न प्रकार से समझौता के लिए कार्यवाही की जावेगी-
(1) न्यायालय द्वारा निर्देश-न्यायालय स्वीकृति या अस्वीकृति को लेखबद्ध करने के बाद देखेगा कि क्या इस विद्यमान मामले में कोई सुलह या समझौता करने वाला कोई तत्व है? यदि हाँ, तो न्यायालय इसकी शर्तों को सूत्रबद्ध कर पक्षकारों को देगा और उनके विचार प्राप्त कर उनके आधार पर संभावित समझौते की शर्ते पुनः सूत्रबद्ध करेगा और नियम 1-क के अनुसार उपर्युक्त चार तरीकों में से किसी एक के लिए विकल्प देने के लिए पक्षकारों को निर्देश देगा।
(2) पक्षकारों द्वारा विकल्प देना - 'पक्षकारों द्वारा विकल्प देना' इस धारा को लागू करने के लिए प्रथम-शर्त है, जो आज्ञापक है। यदि पक्षकार राजी होकर विकल्प देते हैं, तो उसके अनुसार उस मामले को सम्बन्धित न्यायमंच या लोक अदालत को संदर्भित (रेफर) किया जावेगा। न्यायालय सम्बन्धित न्यायमंच के समक्ष पक्षकारों की उपस्थिति की तारीख तय करेगा।
(3) समझौता-न्यायमंच के समक्ष उपस्थिति-न्यायालय द्वारा तय तारीख को पक्षकार सम्बन्धित न्याय मंच/प्राधिकारी के समक्ष सुलह करने के लिए उपस्थित होंगे। सुलह का प्रयास सम्बन्धित विधि (माध्यस्थम् अधिनियम या विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम) के अनुसार किया जावेगा और समझौता अभिलिखित कर न्यायालय को वापस भेजा जावेगा, जिस पर न्यायालय अपनी मोहर लगावेगा। यह इस कार्यवाही की सफलता होगी।
असफल होने पर-नियम 1-ग के अनुसार, जब सुलह के प्रयास असफल हो जावें, तो मामला वापस न्यायालय को भेजा जावेगा और पक्षकारों के लिए न्यायालय में उपस्थित होने की तारीख नियत की जावेगी।