सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 47: आदेश 8 नियम 10 के प्रावधान

Update: 2023-12-21 10:46 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 8 लिखित कथन से संबंधित है जो प्रतिवादी का प्रतिवाद पत्र होता है। आदेश 8 का अंतिम नियम नियम 10 है जो कि लिखित कथन प्रस्तुत करने में प्रतिवादी के असफल होने के संबंध में प्रावधान करता है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 10 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-10 जब न्यायालय द्वारा अपेक्षित लिखित कथन को उपस्थित करने में पक्षकार असफल रहता है, तब प्रक्रिया-जहाँ ऐसा कोई पक्षकार जिससे नियम 1 या नियम 9 के अधीन लिखित कथन अपेक्षित है, उसे न्यायालय द्वारा यथास्थिति, अनुज्ञात या नियत समय के भीतर उपस्थित करने में असफल रहता है वहाँ न्यायालय उसके विरुद्ध निर्णय सुनाएगा या वाद के सम्बन्ध में ऐसा आदेश करेगा, जो वह ठीक समझे और ऐसा निर्णय सुनाए जाने के पश्चात् डिक्री तैयार की जाएगी।

यह नियम प्रतिवाद-पत्र पादल न करने के परिणाम बताता है।

जहाँ प्रतिवादी ने अभिवचन फाइल नहीं किया है, यहाँ न्यायालय के लिए वादपत्र में अच्छे के आधार पर निर्णय सुनाना, जहाँ तक निर्दोग्यधीन व्यक्ति को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति का सम्बन्ध है, विधिपूर्ण होगा, किन्तु न्यायालय किसी ऐसे तथ्य को साबित किए जाने की अपेक्षा स्वविवेकानुसार कर सकेगा।

न्यायालय उपनियम (1) के परन्तुक के अधीन या उपनियम (2) के अधीन अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करने में इस तथ्य पर सम्यक ध्यान देगा कि क्या वादी किसी प्लीडर को नियुक्त कर सकता था या उसने किसी प्लीडर को नियुक्त किया है।

इस नियम के अधीन जब कभी निर्णय सुनाया जाता है तब ऐसे निर्णय के अनुसार डिक्री तैयार की जाएगी और ऐसी डिक्री पर वही तारीख दी जाएगी जिस तारीख को निर्णय सुनाया गया था।

प्रतिवाद-पत्र फाइल करने के अधिकार का समापहरण- संशोधन 1976 का प्रभाव - जब अनेक अवसर देने के उपरान्त भी प्रतिवादियों ने प्रतिवाद-पत्र फाइल नहीं किये, तो ऐसी परिस्थितियों में उनके विरुद्ध आदेश 8, नियम 10 के अधीन कार्यवाही करना पूर्णतः न्याय संगत था। अब 1976 के संशोधन के बाद आदेश 8, नियम 1 के अधीन प्रतिवादी का विधि द्वारा प्रतिवाद-पत्र प्रथम सुनवाई पर या उससे पहले या न्यायालय द्वारा दिये गये समय के भीतर फाइल करने का निर्देश दिया गया है।

अब प्रतिवादी को कोई विकल्प नहीं है: परन्तु उसे आदेश 8, नियम 1 के अनुसार प्रतिवाद-पत्र फाइल करना होगा। प्रतिवादी के असफल रहने पर न्यायालय के समक्ष अब दो मार्ग हैं- (1) कि न्यायालय निर्णय सुनावे, या (2) यह जैसा उचित समझे आदेश दे। यदि न्यायालय आदेश 8, नियम 10 में वर्णित पहला मार्ग नहीं अपना कर कोई निर्णय प्रतिवादी के विरुद्ध नहीं देता, तो उसे वाद की आगे सुनवाई, उस वाद की परिस्थितियों में जैसा वह उचित समझे: करनी होगी।

इस प्रकार प्रतिवादी को उस वाद में इसके बाद कोई प्रतिवाद-पत्र पेश नहीं करने दिया जायेगा, परन्तु फिर भी उसे (1)वादी के गवाहों की प्रति परीक्षा करने, (2) वादपत्र के कथनों के विरुद्ध उनका खण्डन करने के लिए साक्ष्य देने, और (3) वाद के निर्णय से पूर्व अन्तिम बहस में भाग लेने के लिए अनुमति दी जा सकती है।

प्रतिवाद-पत्र फाइल न करने पर न्यायालय को आदेश 17 के अधीन विधि के अनुसार कार्यवाही करनी चाहिए। न्यायालय एक पक्षीय कार्यवाही करने का आदेश नहीं दे सकता, क्योंकि इसके लिए विशिष्ट नियम (आदेश 1 में दिये गये) हैं। आदेश 8 नियम 10 के अधीन कार्यवाही करने के लिए निम्नतर न्यायालय के सामने दो विकल्प हैं- (1) वादपत्र के अभिकथनों को सही मानकर तुरन्त निर्णय सुनाना, या (2) मामले में आगे कार्यवाही कर साक्ष्य लेने के बाद निर्णय देना। परन्तु प्रतिवादी को प्रतिवाद-पत्र फाइल की अनुमति नहीं दी जाएगी।

जहाँ न्यायालय बिना प्रतिवाद-पत्र के किसी वाद की सुनवाई आगे करने का निर्णय लेता है, तो उसे प्रतिवादी को उस मामले को आगे की कार्यवाही में भाग लेने से मना नहीं किया जायेगा। परन्तु उसका इस प्रकार भाग लेना कई सीमाओं में बंधा रहेगा। जिन तथ्यों के प्रश्नों पर यह प्रतिवाद-पत्र अभिवचन कर सकता था, उनके बारे में यह वादी के गवाहों की प्रतिपरीक्षा नहीं कर सकेगा, न स्वयं की साक्ष्य पेश कर सकेगा। येन केन, वह वादी के गवाहों की प्रतिपरीक्षा वादी के मामले में उनके कथन को खंडित करने के लिए कर सकेगा।

प्रतिवाद-पत्र फाइल न करने पर की गई एकपक्षीय कार्यवाही के बाद शेष कार्यवाही में प्रतिवादी भाग ले सकता है। प्रतिवाद-पत्र फाइल करने का अधिकार प्रथन सुनवाई के दिन के बाद ही जब्त किया जा सकता है, उससे पहले नहीं।

जब प्रतिवादी जानबूझ कर कार्यवाही में देरी कर रहा हो, तो उसके प्रतिवाद-पत्र पेश करने के अधिकार को जब्त (समान) किया जा सकता है। इस मामले में ऐसे अधिकार की समात्रि को वैध माना गया।

प्रतिवाद-पत्र फाइल न करने का परिणाम-

नियम 10 साधारण अर्थ में न्यायालय का केवल प्रतिवाद-पत्र प्रस्तुत नहीं करने पर प्रतिवादी के विरुद्ध निर्णय सुराने अथवा उस वाद में ऐसा आदेश, जो वह उचित समझे, देने का विवेकाधिकार प्रदान करता है। इसका अर्थ यह होगा कि न्यायालय अपने स्वविवेक से उस मामले को स्थगित करके प्रतिवादी को और अधिक समय दे सकता है। न्यायालय आवश्यक रूप से प्रतिवादी के विरुद्ध निर्णय सुनाने के लिये बाध्य नहीं है, क्योंकि वह न्यायालय द्वारा दिये गये समय में प्रतिवाद-पत्र पेश करने में असफल रहा। केवल प्रतिवाद-पत्र फाइल करने का लोप करने से यह नहीं माना जा सकता कि वादपत्र में कहे गये तथ्यों को प्रतिवादी द्वारा स्वीकार कर लिया गया।

न्यायालय की अधिकारिता की सीमायें आदेश 8, नियम 10 के अधीन कार्यवाही करने के लिये पुरोभाव्य (प्राथमिक) शर्त यह है कि न्यायालय द्वारा प्रतिवादी को प्रतिवाद-पत्र फाइल करने की अपेक्षा की गई हो और यदि ऐसी अपेक्षा की जाने पर प्रतिवादी दिये गये समय में उस आदेश की पालना करने में असफल हो जाता है, तो न्यायालय को उस प्रतिवादी के विरुद्ध निर्णय सुनाने की शक्ति दी गई है।

जहां प्रतिवादी स्वयं प्रतिवाद-पत्र फाइल करना चाहता है और न्यायालय उसको केवल ऐसा करने के लिये समय दे देता है, तो यह न्यायालय का ऐसा आदेश नहीं हो जाता जिसके द्वारा प्रतिवादी से प्रतिवाद-पत्र फाइल करने की अपेक्षा की गई हो। जहां प्रतिवादी ने स्वयं ही प्रतिवाद-पत्र फाइल करना चाहा और उसके लिये समय मांगा और इस प्रकार दिये गये समय में वह प्रतिवाद-पत्र फाइल नहीं कर सका, तो आदेश 8, नियम 10 वहां लागू नहीं होता और ऐसी स्थिति में उक्त न्यायालय को प्रतिवादी के विरुद्ध निर्णय घोषित करने की अधिकारिता नहीं है।

आदेश 8 के नियम 10 का क्षेत्र- नियम 10 के अंतिम भाग में उपबन्धित (दिये गये) परिणामों को दोषी प्रतिवादी पर लागू करने के लिए न्यायालय को शक्ति से सुसज्जित करने के लिए उस मामले में न्यायालय द्वारा प्रतिवाद-पत्र फाइल करने के लिए विनिर्दिष्ट (स्पष्ट) अपेक्षा होनी चाहिए। समन में प्रतिवाद-पत्र फाइल करने का एक साधारण निर्देश नियम 10 के परिक्षेत्र में नहीं आयेगा।

लिखित कथन प्रस्तुत करने का अधिकार और उसकी समाप्ति- प्रतिवादी द्वारा प्रतिवाद-पत्र प्रस्तुत करने का अधिकार किसी मामले में केवल सुनवाई के प्रथम दिन तक रहता है, जबकि न्यायालय ने उसे ऐसा करने के लिये नहीं कहा हो। उस दिन के बाद न्यायालय को यह छूट है कि वह उसके लिये समय दे या मना कर दे। यह न्यायालय की अन्तर्हित शक्ति है कि वह संहिता के अनुसार प्रक्रिया को विनियमित करे।

यदि संहिता उस प्रतिवादी को ऐसा प्रतिवाद-पत्र किसी निश्चित दिनांक तक फाइल करने की छूट (option) देती है, तो ऐसी छूट उस दिनांक के बाद समाप्त हो गई मानी जावेगी और ऐसी परिस्थितियों में प्रतिवादी न्यायालय की दया पर निर्भर हो जाता है। अतः इस प्रथम सुनवाई के दिनांक के बाद न्यायालय को प्रतिवाद-पत्र फाइल करने के लिए अवधि बढ़ाने की स्वीकृति देने या न देने की छूट है और स्वीकृति देना या न देना न्यायालय की अन्तर्हित शक्ति है।

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