संविधान का अनुच्छेद 47: जानिए शराब पर प्रतिबन्ध को लेकर भारत का संविधान क्या कहता है?
बीते 04 मई 2020 को मद्रास उच्च न्यायालय ने आर. धनासेकरण बनाम तमिलनाडु सरकार एवं अन्य WP No. 7565/2020 के मामले में तमिलनाडु राज्य में शराब के निर्माण, बिक्री और उपभोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली रिट याचिकाओं पर विचार करने से इनकार कर दिया था।
दरअसल इस मामले में, याचिकाकर्ता आर. धनासेकरण ने यह मांग की थी कि चूंकि लोग COVID-19 लॉकडाउन के कारण शराब का सेवन न करने के आदी हो गए हैं, इसलिए सरकार को इस अवसर का उपयोग, शराब के उपभोग और सेवन पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने के लिए करना चाहिए।
उन्होंने अपनी याचिका में विशेष रूप से यह तर्क दिया कि शराब की दुकानों को फिर से खोलना, आम जनता के हित में नहीं है और संविधान के अनुच्छेद 47 के तहत सरकार इस तरह के कदम उठाने के लिए बाध्य है, जो बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य के मानकों के अनुरूप हैं।
मौजूदा लेख में हम इस मामले में याचिकाकर्ता आर. धनासेकरण के इस तर्क के प्रकाश में भारत के संविधान के अनुच्छेद 47 को समझेंगे और यह जानने का प्रयास करेंगे कि इस अनुच्छेद का स्वभाव क्या है और क्या यह वाकई राज्य पर कोई बाध्यकारी कर्त्तव्य डालता है (जैसा कि याचिकाकर्ता ने कहा)?
तो चलिए इस लेख की शुरुआत करते हैं और सबसे पहले यह समझते हैं कि आखिर यह अनुच्छेद कहता क्या है।
क्या कहता है संविधान का अनुच्छेद 47?
दरअसल, भारत के संविधान का अनुच्छेद 47 'पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने के राज्य के कर्तव्य' (Duty of the State to raise the level of nutrition and the standard of living and to improve public health) के विषय में बात करता है।
यह अनुच्छेद, संविधान के उस भाग (भाग IV) का हिस्सा हैं, जिसके अंतर्गत राज्य के नीति के निदेशक तत्व (Directive Principles of the State Policy) का उल्लेख मिलता है।
अनुच्छेद 47 यह कहता है कि,
राज्य, अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में मानेगा और राज्य, विशिष्टतया, मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर ओषधियों के, औषधीय प्रयोजनों से भिन्न, उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा।
यदि शराब-बंदी की बात की जाए तो अनुच्छेद 47 को पढने पर यह साफ़ हो जाता है कि यह अनुच्छेद, शराब पर (उसके उपभोग पर) सीधे तौर पर प्रतिबंध नहीं लगाता है, यह केवल राज्य को उस दिशा में प्रयास करने के लिए कहता है।
इस अनुच्छेद का प्रासंगिक यह हिस्सा कहता है,
"...राज्य, विशिष्टतया, मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर ओषधियों के, औषधीय प्रयोजनों से भिन्न, उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा" (State shall endeavour to bring about prohibition of the consumption except for medicinal purposes of intoxicating drinks and of drugs which are injurious to health)।
यह अनुच्छेद सिर्फ इतना ही कहता है कि राज्य द्वारा मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर ओषधियों (औषधीय प्रयोजनों से भिन्न) के उपभोग का प्रतिषेध करने के लिए 'प्रयास' या प्रयत्न किया जायेगा (यानी ऐसा करना उसके लिए बाध्यकारी रूप से आवश्यक नहीं है)।
दूसरे शब्दों में, यह प्रावधान राज्य पर ऐसा कोई बाध्यकारी कर्तव्य नहीं डालता है कि वह शराब या अन्य मादक पदार्थों के उपभोग को प्रतिबंधित कर ही दे, बल्कि यह अनुच्छेद केवल राज्य को ऐसा प्रयास करने के लिए कहता है।
जाहिर है कि यह प्रयास तमाम चीज़ों पर निर्भर करेगा और उसका आंकलन राज्य को ही करना होता है, जैसे कि राज्य में कानून व्यवस्था कैसी है, राज्य की वित्तीय स्थिति कैसी है, राज्य में ऐसा करना क्या व्यवहारिक रूप से संभव है, राज्य के लोग कितने तैयार हैं, वे लोग शराब के दुष्प्रभाव के बारे में कितने जागरूक हैं, क्या कठोर कदम उठाना राज्य के हित में है, इत्यादि।
गौरतलब है कि यह प्रयास राज्य द्वारा इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि यह राज्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में माने (अनुच्छेद 47 के अनुसार)।
स्टेट ऑफ़ बॉम्बे एवं अन्य बनाम एफ. एन. बलसारा [1951] S.C.R. 682 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 47 का उल्लेख करते हुए कहा था कि मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर ओषधियों के उपभोग का प्रतिषेध करने का विचार सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है।
अनुच्छेद 47 का अनुपालन राज्य के लिए नहीं है एक बाध्यता
संविधान के इसी भाग (भाग IV) के अनुच्छेद 37 द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि संविधान के भाग IV (जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 47 भी आता है) में अंतर्विष्ट उपबंध, किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय/लागू करने योग्य (Enforceable) नहीं होंगे, किंतु फिर भी इनमें अधिकथित तत्त्व, देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्त्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।
हाँ, यह जरुर है कि यदि किसी राज्य को ऐसा करना उचित लगे तो वह अपने राज्य में मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर ओषधियों के उपभोग का प्रतिषेध (औषधीय प्रयोजनों से भिन्न) करने के लिए कदम उठा सकता है।
जैसा कि बिहार राज्य ने वर्ष 2016 में संविधान के अनुच्छेद 47 को ध्यान में रखते हुए अपने राज्य में शराब-बंदी को लागू किया था। इसके अलावा, केरल राज्य ने वर्ष 2014 में शराब पर प्रतिबंध लगाया था, हालाँकि वर्ष 2017 में इस प्रतिबंध को राज्य सरकार द्वारा वापस ले लिया गया था।
'अनुच्छेद 47' एक लागू करने योग्य प्रावधान (Enforceable Provision) नहीं
संविधान सभा की बैठक के दौरान, शराब-बंदी के मुद्दे पर गंभीर बहस हुई थी। इसके पश्च्यात, मसौदा समिति के अध्यक्ष, डॉक्टर बी. आर. आम्बेडकर ने सभा के सदस्यों को यह याद दिलाया था कि यह अनुच्छेद (अनुच्छेद 47) राज्य के नीति के निदेशक सिद्धांतों का एक हिस्सा है।
उन्होंने यह साफ़ किया था कि यह अनुच्छेद, एक गैर-बाध्यकारी अनुच्छेद है, जिसे भविष्य में राज्यों द्वारा लागू किए जाने योग्य बनाया जा सकता है (तमाम परिस्थितियों का आंकलन करते हुए)। हालाँकि, इसको लेकर उनपर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता है।
आर. धनासेकरण बनाम तमिलनाडु सरकार एवं अन्य WP No. 7565/2020 के हालिया मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने भी यह माना कि शराब का नियमन, विशुद्ध रूप से राज्य की नीति का मामला है, जिसमे न्यायिक हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।
इसके अलावा, अदालत द्वारा यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 47 एक "प्रवर्तनीय प्रावधान" (Enforceable provision) नहीं है और इस प्रकार, परमादेश रिट याचिका को बनाए रखने के लिए कोई आधार मौजूद नहीं है।
गौरतलब है परमादेश रिट को जारी करने का आदेश, उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा ही दिया जा सकता है (अनुच्छेद 32 या 226 के अंतर्गत)। और यह रिट तब जारी की जाती है जब सरकार, निगम या अधिकरण या लोक प्राधिकरण पर सार्वजनिक या वैधानिक कर्तव्य तो डाले गए हैं, लेकिन वे उन्हें निभा पाने में विफल रहते हैं।
मद्रास उच्च न्यायालय ने परमादेश रिट याचिका पर विचार करने से इंकार करते हुए यह भी साफ़ किया कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 47, याचिकाकर्ता को कोई लागू करने योग्य अधिकार नहीं देता है, और इसलिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत याचिकाकर्ता द्वारा दायर परमादेश रिट (Writ of Mandamus), किसी कार्रवाई को जन्म नहीं देती है।
गौरतलब है कि रंजन द्विवेदी बनाम भारत संघ AIR 1983 SC 624 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह साफ़ किया था कि अदालत द्वारा राज्य के नीति के निदेशक तत्वों (Directive Principles of the State Policy) के सम्बन्ध में एक आदेश या परमादेश रिट जारी नहीं की जा सकती है।
इसके अलावा, लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2000) 6 SCC 224 के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने यह दोहराया था कि संविधान के भाग IV में दिए गए राज्य के नीति के निदेशक तत्व (Directive Principles of the State Policy), न्यायालयों में लागू करने योग्य नहीं हैं, क्योंकि वे किसी भी व्यक्ति के पक्ष में कोई न्यायसंगत अधिकार को जन्म नहीं देते हैं।