ईयरली राउंड अप : क्रिमिनल लॉ पर सुप्रीम कोर्ट के साल 2019 के ये अहम फैसले
LiveLaw News Network
1 Jan 2020 12:30 PM IST
साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट के क्रिमिनल लॉ पर दिए गए खास जजमेंट/ऑर्डर पर एक नज़र।
मजिस्ट्रेट ट्र्रायल शुरू होने से पहले तक मामले में आगे की जांच के आदेश दे सकते हैं, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की एक बेंच ने वस्तुतः एक 43 साल पुरानी मिसाल को बदल दिया। न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति वी रामासुब्रमण्यन की पीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के एक आदेश को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि मजिस्ट्रेट के पास एक अपराध की जांच करने का आदेश देने की शक्ति नहीं होगी।
विनुभाई हरिभाई मालवीय बनाम गुजरात राज्य में पीठ द्वारा विचार किया गया प्रश्न यह था कि क्या पुलिस द्वारा चार्जशीट दायर किए जाने के बाद,मजिस्ट्रेट के पास आगे की जांच का आदेश देने की शक्ति है और यदि ऐसा है तो यह शक्ति अपराध के किस चरण तक है। कोड के विभिन्न प्रावधानों की जांच करने के बाद, बेंच ने देखा, "स्पष्ट है कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट की शक्ति बहुत व्यापक हैं, क्योंकि यह न्यायिक प्राधिकरण है जिसे इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि पुलिस द्वारा की गई जांच उचित है।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि पुलिस द्वारा की गई जांच उचित और निष्पक्ष है, उसकी निगरानी मजिस्ट्रेट करता है - भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 यह कहता है कि सभी आवश्यक शक्तियां, जो आकस्मिक या निहित भी हो सकती हैं , एक उचित जांच सुनिश्चित करने के लिए मजिस्ट्रेट पास उपलब्ध हैं, जो संदेह के बिना, धारा 173 (2) के तहत उसके द्वारा एक रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद आगे की जांच के आदेश को शामिल करेगा और ट्रायल शुरू होने तक आपराधिक कार्यवाही के सभी चरणों में ऐसी शक्ति मजिस्ट्रेट के पास जारी रहेगी।
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वरिंदर कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य
एक महत्वपूर्ण निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मोहन लाल बनाम पंजाब राज्य में निर्णय में निर्धारित कानून से पहले सभी लंबित आपराधिक मुकदमों, ट्रायल और अपीलों (यदि जांचकर्ता-सूचनाकर्ता एक ही व्यक्ति है) के मामले के व्यक्तिगत तथ्यों द्वारा शासित होना जारी रहेगा।
CJI रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति केएम जोसेफ की पीठ ने एक NDPS मामले में एक दोषी के खिलाफ अपील (वरिंदर कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश) पर विचार कर रही थी। मोहन लाल के फैसले पर मजबूती से भरोसा दिखाते हुए कहा गया कि अभियोजन पक्ष को सूचित किया जाए क्योंकि सूचना देने वाला और जांच अधिकारी एक ही व्यक्ति है।
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जहां महिला रहती है, उसी स्थान पर कर सकती है आईपीसी की धारा 498ए के तहत शिकायत, सुप्रीम कोर्ट ने दी इजाज़त
Rupali Devi V. State of Uttar Pradesh
"प्रीति कुमारी बनाम बिहार राज्य" मामले में न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर अपील को स्वीकार कर लिया है।
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि उस स्थान पर कार्रवाई की कोई वजह या कारण नहीं है, जहां पर वह रहती है। पीठ ने कहा कि यह मामला 'रुपाली देवी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य' मामले में दिए गए निर्णय द्वारा कवर होता है।
'रूपाली देवी' मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने माना था कि पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा की गई क्रूरता के कृत्यों के कारण जब पत्नी अपने पति का घर छोड़ देती है या उसे घर से निकाल दिया जाता है तो ऐसी स्थिति में यह मामले की तथ्यात्मक स्थिति पर निर्भर करता है कि महिला जहां पर भी शरण लेती है, वह उस स्थान पर भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए के तहत अपराधों का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कर सकती है।
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न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी अभियुक्त को उसकी सहमति के बिना भी जांच के लिए उसकी आवाज के नमूने देने का आदेश दे सकता है : सुप्रीम कोर्ट
एक महत्वपूर्ण फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि एक न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी अभियुक्त को उसकी सहमति के बिना भी जांच के लिए उसकी आवाज के नमूने प्रदान करने का निर्देश दे सकता है। CJI की अगुवाई वाली तीन जजों की बेंच ने शुक्रवार को उस भ्रम की स्थिति को सुलझा दिया जो 2012 के यूपी के रितेश सिन्हा बनाम राज्य में दो जजों की बेंच द्वारा दिए गए अलग- अलग फैसले से उत्पन्न हुई थी। CJI के नेतृत्व वाली पीठ ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता में विशिष्ट शक्तियों की अनुपस्थिति में संविधान की धारा 142 के तहत निहित शक्तियों का आह्रान कर मजिस्ट्रेट को ऐसी शक्ति प्रदान की जानी चाहिए।
निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 143 ए पूर्वव्यापी मामलों पर लागू नहीं
चेक बाउंस मामलों के अभियोजन में एक भ्रम की स्थिति का निपटारा करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मामले की पेंडेंसी के दौरान शिकायतकर्ता को अंतरिम मुआवजे के भुगतान पर निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 143 ए में पूर्वव्यापी लागू नहीं होगी।
इसका अर्थ है कि धारा 143 ए केवल उन शिकायतों पर लागू होगा जो एनआई अधिनियम में 2018 के संशोधन के बाद दर्ज की गई थीं, जिसमें प्रावधान शामिल था।
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निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 148 पूर्वव्यापी मामलों पर लागू होगी
एक महत्वपूर्ण निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 148 में संशोधन किया गया है, जो कि एनआई की धारा 138 के तहत अपराध के लिए सजा और सजा के आदेश के खिलाफ अपील के संबंध में लागू होगा। एक्ट, यहां तक कि ऐसे मामले में जहां अपराध के लिए अपराधों की धारा 138 के तहत एन.आई. अधिनियम 2018 संशोधन अधिनियम से पहले यानी 01.09.2018 से पहले दायर किए गए थे, उन मामलों में भी लागू होगा।
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पुलिस जांच के दौरान CrPC की धारा 102 के तहत अचल संपत्ति ज़ब्त नहीं कर सकती, सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि पुलिस के पास आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 102 के तहत जांच के दौरान अचल संपत्ति को ज़ब्त करने की शक्ति नहीं है। यह निर्णय जस्टिस दीपक गुप्ता और संजीव खन्ना की पीठ ने सुनाया। हालांकि, पुलिस के पास आरोपियों की चल संपत्तियों को फ्रीज़ करने का अधिकार है, पीठ ने स्पष्ट किया। सीआरपीसी की धारा 102 (1)कहती है कि "कोई भी पुलिस अधिकारी किसी भी संपत्ति को जब्त कर सकता है जो कथित रूप से चोरी की हुई या संदिग्ध हो सकती है, या जो किसी भी अपराध से जुड़ी होने का संदेह पैदा करने वाली परिस्थितियों में पाई जा सकती है।"
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18 से 21 वर्ष के बीच की आयु के पुरुष को वयस्क महिला से विवाह करने पर सज़ा नहीं दी जा सकती : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि 18 से 21 वर्ष के बीच की आयु का पुरुष, जो किसी वयस्क महिला के साथ विवाह का करार करता है, उसे बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 की धारा 9 के तहत दंडित नहीं किया जा सकता।
एक दंपत्ति ने चंडीगढ़ में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जो पुलिस सुरक्षा की मांग कर रहा था। बाद में, लड़की के पिता ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिसमें उन्होंने (स्कूल रिकॉर्ड के आधार पर) प्रस्तुत किया कि शादी के समय लड़का केवल 17 वर्ष का था। उच्च न्यायालय ने तब संरक्षण आदेश को वापस ले लिया और बाल विवाह निषेध अधिनियम की धारा 9 के तहत आपराधिक अपराध के लिए प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दिया।
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पीड़ित को मजिस्ट्रेट के समक्ष सुनवाई में सहायता करने का अधिकार, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हालांकि दंडाधिकारी केवल पीड़ित के कहने या पूछने के आधार पर उसे मुकदमा चलाने या पैरवी करने की अनुमति देने के लिए बाध्य नहीं है,लेकिन पीड़ित को दंडाधिकारी के समक्ष सुनवाई में सहायता करने का अधिकार है।
जस्टिस एल.नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ ने कहा कि अगर दंडाधिकारी इस बात से संतुष्ट हैं कि पीड़ित कोर्ट की सहायता करने में स्थिति में है और मुकदमे में ऐसी जटिलताएं शामिल नहीं है,जिन्हें पीड़ित द्वारा नियंत्रित ना किया जा सके तो यह उसके अधिकार क्षेत्र में होगा कि वह पीड़ित को दंडाधिकार के समक्ष लंबित या पेंडेंसी की जांच करने की अनुमति दे दे। इस मामले में (आमिर हमजा शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य), हाईकोर्ट ने से भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए, 406 रेड विद 34 के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी थी। शीर्ष कोर्ट के समक्ष अपील दायर हुई तो शीर्ष कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने संबंधित पैरामीटर का निरीक्षण किए बिना ही इसकी अनुमति दे दी।
सीआरपीसी की धारा 207: अगर दस्तावेज काफी अधिक नहीं हैं, तो मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट के साथ सौंपे गए किसी भी दस्तावेज को रोक नहीं सकता : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जांच अधिकारी ने जो दस्तावेज सौंपे हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट के साथ उनमें से किसी को अदालत के समक्ष रखने से रोक नहीं सकता।
ऐसा वह उसी स्थिति में कर सकता है जब रिपोर्ट काफी विस्तृत या मोटी हो। अदालत ने कहा कि रिपोर्ट या दस्तावेजों के काफी ज्यादा मोटा होने की स्थिति में आरोपी को इन दस्तावेजों को खुद या अपने वकील के माध्यम से देखने की इजाजत दी जा सकती है।
पी गोपालकृष्णन @दिलीप बनाम केरल राज्य मामले में अपील पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और दिनेश माहेश्वरी की पीठ ने कहा। पीठ केरल के फिल्म अभिनेता दिलीप ने फरवरी 2017 में केरल की अभिनेत्री के खिलाफ यौन अपराध के मामले में विजुअल्स की कॉपी वापस करने की मांग की थी। अदालत ने कहा कि किसी अपराध से संबंधित मेमरी कार्ड के कंटेंट एक 'दस्तावेज'है कोई 'मटेरियल ऑब्जेक्ट' नहीं है।
भ्रष्टाचार के सभी मामलों में एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करना अनिवार्य नहीं : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सभी भ्रष्टाचार के मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करना अनिवार्य नहीं है।
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ राज्य की अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें एक पुलिस अधिकारी के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई को रद्द कर दिया गया था, जिसके पास आय के अपने ज्ञात स्रोतों के अनुपातहीन कथित रूप से रु 3,18,61,500 की संपत्ति होने का आरोप था। तेलंगाना राज्य बनाम श्री मनगीपेट @ मंगिपेट सर्वेश्वर रेड्डी मामलेे पर सुनवाई के दौरान ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले पर भरोसा करते हुए शीर्ष न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया कि एक अपराध के पंजीकरण से पहले एक प्रारंभिक जांच अनिवार्य है।
COFEPOSA : अगर निरोधी पहले से ही न्यायिक हिरासत में है तो भी निरोधक हिरासत के आदेश दिए जा सकते हैं : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर कोई व्यक्ति न्यायिक हिरासत में है तो भी उसे COFEPOSA जैसे निरोधक कानून के तहत हिरासत में लिया जा सकता है।
दिल्ली उच्च न्यायालय के उस आदेश को रद्द करते हुए, जिसमें विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम, 1974 [COFEPOSA], तहत कुछ लोगों की हिरासत को रद्द कर दिया था, न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और न्यायमूर्ति एमआर शाह की पीठ ने कहा कि ऐसी हिरासत वैध है बशर्ते कि निरोधक प्राधिकरण द्वारा विवेक का इस्तेमाल किया गया हो:
(i) हिरासत में मौजूद किसी व्यक्ति के खिलाफ वैध रूप से हिरासत का आदेश पारित किया जा सकता है और इस उद्देश्य के लिए यह आवश्यक है कि हिरासत का आधार यह दिखाना चाहिए कि क्या प्राधिकरण को इस तथ्य के बारे में पता था कि निरोधी पहले से ही हिरासत में है;
(ii) कि निरोधक प्राधिकरण को और अधिक संतुष्ट होना चाहिए कि निरोधी के हिरासत से रिहा होने की संभावना है और हिरासत की गतिविधियों की प्रकृति से संकेत मिलता है कि अगर वह रिहा हो जाता है तो उसके इस तरह की पूर्वाग्रही गतिविधियों में लिप्त होने की संभावना है और इसलिए, उसे इस तरह की गतिविधियों में संलग्न होने से रोकने के लिए उसे हिरासत में लेना आवश्यक है; तथा
(iii) निरोधक प्राधिकरण की संतुष्टि कि निरोधी पहले से ही हिरासत में है और उसके जमानत पर रिहा होने की संभावना है और रिहा होने पर उसके निरोधक प्राधिकरण की व्यक्तिपरक संतुष्टि के साथ उसी पूर्वाग्रही गतिविधियों में लिप्त होने की संभावना है।
साथ नहीं रहने के आधार पर तलाक लेने वाली महिला भरण पोषण की हकदार है? पढ़िए क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर किसी पत्नी को उसके पति ने इस आधार पर तलाक़ दिया है कि पत्नी ने उसे छोड़ दिया है, तो उसे (पत्नी को) दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)की धारा 125 के तहत भरण पोषण की राशि प्राप्त करने का अधिकार है।
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस ने इस मामले को किसी बड़ी पीठ को सौंपने से मना कर दिया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट लगातार यह कहता रहा है और उसका यह मत दंड प्रक्रिया संहिता के पूरी तरह अनुरूप है।
पीठ ने इस संदर्भ में वनमाला बनाम एचएम रंगनाथ भट्ट और रोहतास सिंह बनाम रमेंद्री मामलों में दो जजों की पीठ और मनोज कुमार बनाम चम्पा देवी मामले में तीन जजों की पीठ के फ़ैसले का हवाला दिया।
पीठ ने कहा, "दो जजों की पीठों द्वारा दिए गए फ़ैसलों को तीन जजों की पीठ सही ठहरा चुका है और हम किसी बड़ी पीठ को यह मामला नहीं सौंप सकते। वैसे भी इस अदालत ने भी लगातार यही राय व्यक्त की है और जो राय दी गई है वह सीआरपीसी की भावना के अनुरूप है। यह दलील कि तलाकशुदा पत्नी अपने पूर्व पति के साथ रहने के लिए बाध्य है, तर्कहीन है।"
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, दोषी अपना अपराध स्वीकारते हुए जुर्माना देकर बच निकलेगा, ,सड़क यातायात के अपराध को आईपीसी और मोटर वाहन अधिनियम दोनों के तहत अभियोजित किया जा सकता है
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सड़क यातायात के अपराधों पर मोटर वाहन अधिनियम और भारतीय दंड संहिता दोनों के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति खन्ना की पीठ ने यह टिप्पणी करते हुए गुवाहाटी हाईकोर्ट द्वारा असम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश राज्य को जारी निर्देशों को रद्द कर दिया है। इन निर्देशों में हाईकोर्ट ने कहा था कि सड़क यातायात अपराधों के मामले में कार्रवाई केवल मोटर वाहन अधिनियम के प्रावधानों के तहत की जाए, न कि भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत।
मामूली मिलावट के नाम पर खाद्य अपमिश्रण के आरोपी को बरी नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट
उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यदि खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम के मानकों का पालन नहीं किया जाता तो मिलावट करने के आरोपी को इस आधार पर बरी नहीं किया जा सकता कि मिलावट मामूली थी।
'राज कुमार बनाम उत्तर प्रदेश सरकार' के मामले में आरोपी ने यह दलील दी थी कि यदि तय मानक की तुलना में मामूली मिलावट हो तो अदालत की ओर से आरोपी को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए। आरोपी के यहां से संग्रहित दूध के नमूने में 4.6 प्रतिशत मिल्क फैट और 7.7 प्रतिशत मिल्क सॉलिड नन-फैट पाया गया था, जो तय मानक के तहत 8.5 प्रतिशत होना चाहिए था। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया था, जिसे सत्र अदालत एवं हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था।
टाडा मामले : उचित अधिकारी की सहमति के बिना एफआईआर दर्ज नहीं हो सकती, जानिए सुप्रीम कोर्ट का नज़रिया
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आतंकवादी और विध्वंसकारी गतिविधियां (निवारण) अधिनियम (टाडा) के तहत सीआरपीसी की धारा 154 के अंतर्गत कोई एफआईआर उपयुक्त अधिकारी की सहमति के बिना दर्ज नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की पीठ ने मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि टाडा अधिनियम की धारा 20A(1) के तहत यह प्रतिबंध सीआरपीसी की धारा 154 के तहत दर्ज की गई सूचना पर भी लागू होता है। लेकिन पीठ ने स्पष्ट किया कि यह प्रतिबंध उस रुक्का या संदेश पर लागू नहीं होगा जो अनुमति मांगने के लिए पुलिस अधिकारी ज़िला पुलिस अधीक्षक को भेजते हैं। ऐसा नहीं हुआ तो कार्रवाई की अनुमति मांगने के संवाद का आदान-प्रदान नहीं होगा और टाडा क़ानून का उद्देश्य यह नहीं रहा होगा।
अदालत ने कहा कि जब बलात्कार, हत्या जैसे मामले की बात हो, पुलिस अधिकारी सूचना दर्ज कर सकते हैं और आईपीसी के तहत इस तरह के अपराध के लिए उस व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकते हैं पर टाडा के तहत कार्रवाई के लिए किसी उपयुक्त अधिकारी की अनुमति लेनी होगी।
एनडीपीएस : निजी तलाशी के दौरान धारा 50 का पालन नहीं करने से वाहन से हुई बरामदगी अमान्य नहीं हो जाती : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आरोपी की निजी तलाशी के दौरान नशीला पदार्थ अधिनियम (एनडीपीएस ) की धारा 50 का पालन नहीं करने के कारण वाहन से हुई बरामदगी अमान्य नहीं हो जाती है।
न्यायमूर्ति यूयू ललित, इंदु मल्होत्रा और कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 सिर्फ निजी तलाशी तक सीमित है न कि वाहन या किसी कंटेनर परिसर की। हाईकोर्ट ने आरोपी को किया था बरी इस मामले में हाईकोर्ट ने एनडीपीएस अधिनियम के तहत एक आरोपी को दोषी ठहराए जाने के आदेश को इस आधार पर खारिज कर दिया कि आरोपी की निजी तलाशी मजिस्ट्रेट या किसी गजेटेड अधिकारी के समक्ष नहीं ली गई और इस तरह से धारा 50 के प्रावधानों का पालन नहीं हुआ।
पंजाब राज्य बनाम बलजिंदर सिंह मामले में दाखिल अपील में राज्य ने कहा कि हो सकता है कि जहां तक आरोपी की तलाशी की बात है, हो सकता है कि धारा 50 का अतिक्रमण हुआ होगा पर वाहन से बरामदगी की बात एक स्वतंत्र मामला है जिस पर गौर किया जाना चाहिए। पीठ ने इस बात पर गौर किया... अगर किसी व्यक्ति के वाहन से नशीला पदार्थ बरामद होता है जो कि हो सकता है कि धारा 50 के अनुरूप नहीं हो; लेकिन वाहन की तलाशी से नशीला पदार्थ बरामद हुआ जिसकी स्वतंत्र रूप से जांच की जा सकती है तो क्या दोषी को इसलिए बरी किया जा सकता है, क्योंकि वाहन की तलाशी के दौरान हुई बरामदगी में धारा 50 की शर्तों का पालन नहीं हुआ?
एमिकस- मृत्यदंड या उम्रकैद के दंडनीय अपराध के मुकदमे में अभियुक्त की पैरवी करने के लिए वकील को 10 वर्ष की प्रैक्टिस का अनुभव आवश्यक : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर आपराधिक मामलों में अभियुक्तों के बचाव के लिए एमिकस क्यूरी की नियुक्ति के मामले में दिशानिर्देश जारी किए हैं। न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की पीठ ने एक बलात्कार और हत्या के आरोपी (जिसके खिलाफ चल ट्रायल को 13 दिनों के भीतर निपटा दिया गया था) को दी गई मृत्युदंड की सजा को रद्द करते हुए ये दिशानिर्देश जारी किए हैं। कोर्ट ने पाया कि इस मामले में नियुक्त एमिकस क्यूरी को न तो बुनियादी दस्तावेजों को देखने का पर्याप्त समय मिला, न ही आरोपी के साथ किसी चर्चा या बातचीत का मौका मिला और न ही मामले को पूरी तरह समझने का समय मिला। यह भी कहा गया कि आपराधिक मामलों के शीघ्र निपटारे का परिणाम कभी भी ऐसा न हो को न्याय को दफना दिया जाए।
एमिकस- मृत्यदंड या उम्रकैद के दंडनीय अपराध के मुकदमे में अभियुक्त की पैरवी करने के लिए वकील को 10 वर्ष की प्रैक्टिस का अनुभव आवश्यक : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर आपराधिक मामलों में अभियुक्तों के बचाव के लिए एमिकस क्यूरी की नियुक्ति के मामले में दिशानिर्देश जारी किए हैं।
न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की पीठ ने एक बलात्कार और हत्या के आरोपी (जिसके खिलाफ चल ट्रायल को 13 दिनों के भीतर निपटा दिया गया था) को दी गई मृत्युदंड की सजा को रद्द करते हुए ये दिशानिर्देश जारी किए हैं। कोर्ट ने पाया कि इस मामले में नियुक्त एमिकस क्यूरी को न तो बुनियादी दस्तावेजों को देखने का पर्याप्त समय मिला, न ही आरोपी के साथ किसी चर्चा या बातचीत का मौका मिला और न ही मामले को पूरी तरह समझने का समय मिला। यह भी कहा गया कि आपराधिक मामलों के शीघ्र निपटारे का परिणाम कभी भी ऐसा न हो को न्याय को दफना दिया जाए।
सीआरपीसी की धारा 362 आदेश को रोकने की हाईकोर्ट की निहित शक्ति पर रोक नहीं लगाती: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हाईकोर्ट के पास दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत एक आदेश को वापस लेने की अंतर्निहित शक्ति है और सीआरपीसी की धारा 362 के प्रावधान ऐसी शक्तियों के प्रयोग से रोक नहीं सकते।
इस मामले में हाईकोर्ट ने कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए के तहत दोषी ठहराए जाने से किसी व्यक्ति के करियर पर असर नहीं पड़ेगा। नियोक्ता ने आदेश वापस लेने के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत एक आवेदन दायर किया था, जिसमें दलील दी गई थी कि नियोक्ता को कर्मचारी के किसी भी कदाचार, जिसके कारण कोर्ट ने उसे दोषी ठहराया हो, को ध्यान में रखने का अधिकार है, नियोक्ता की पीठ के पीछे आनुशंगिक कार्यवाही में नहीं ले जाया जा सकता है। इस आवेदन को हाईकोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि सीआरपीसी की धारा 362 के प्रावधानों के मद्देनजर समीक्षा बरकरार नहीं रखी जा सकती है।
'मिसब्राडिंग' के आरोप में भी विक्रेता के पास अपने सैंपल्स का परीक्षण करवाने का अधिकारः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जहां खाद्य वस्तुओं की सामग्री/घटक की जांच 'मिसब्राडिंग' के अपराध को साबित करने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है, जिसे खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम की धारा 11-13 के तहत निर्धारित किया गया है, वहां, ये ध्यान दिए बिना कि 'मिलावट' का आरोप है या नहीं, जांच की जानी ही चाहिए। मेसर्स अल्केम लेबोरेटरीज लिमिटेड ने खाद्य अपमिश्रण निरोधक अधिनियम की धारा 16 (1) (ए) (ii), धारा 2 (ix) (g) और (ii) के साथ पढ़ें, के तहत मिसब्रांडेड खाद्य सामग्री बेचने के कथित अपराध में दर्ज शिकायत को रद्द कराने के लिए हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
हाइकोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि 1954 अधिनियम की धारा 13 (2) के तहत केंद्रीय खाद्य प्रयोगशाला द्वारा नमूने की पुनर्जांच कराने का अधिकार केवल केवल एक 'मिलावटी' खाद्य सामग्री बेचने वाले विक्रेता को है, न कि 'मिसब्रांडेड' खाद्य सामग्री के विक्रेता को।
अभियोजन पक्ष की सहायता के लिए नियुक्त निजी वकील जिरह और गवाहों का परीक्षण नहीं कर सकता : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हालांकि, पीड़ित व्यक्ति अभियोजन पक्ष की सहायता के लिए एक निजी वकील को मामले में शामिल कर सकता है, लेकिन ऐसे वकील को मौखिक रूप से दलील देने या गवाहों का परीक्षण करने और जिरह करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता।
न्यायमूर्ति मोहन एम शांतनगौदर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए एक आपराधिक मामले में पीड़िता द्वारा दिए गए आवेदन को खारिज कर दिया। इस आवेदन में लोक अभियोजक के बाद उसके वकील को गवाह का क्रॉस एक्ज़ामिन करने के लिए उसके वकील की अनुमति मांगी। न्यायालय ने कहा कि पीड़ित के वकील के पास अभियोजन पक्ष की सहायता करने का एक सीमित अधिकार है, जो अदालत या अभियोजन पक्ष को प्रश्न सुझाने तक विस्तारित हो सकता है, लेकिन उन्हें स्वयं नहीं पूछ सकता।