मामूली मिलावट के नाम पर खाद्य अपमिश्रण के आरोपी को बरी नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

5 Oct 2019 6:35 AM GMT

  • मामूली मिलावट के नाम पर खाद्य अपमिश्रण के आरोपी को बरी नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

    उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यदि खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम के मानकों का पालन नहीं किया जाता तो मिलावट करने के आरोपी को इस आधार पर बरी नहीं किया जा सकता कि मिलावट मामूली थी।

    'राज कुमार बनाम उत्तर प्रदेश सरकार' के मामले में आरोपी ने यह दलील दी थी कि यदि तय मानक की तुलना में मामूली मिलावट हो तो अदालत की ओर से आरोपी को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए। आरोपी के यहां से संग्रहित दूध के नमूने में 4.6 प्रतिशत मिल्क फैट और 7.7 प्रतिशत मिल्क सॉलिड नन-फैट पाया गया था, जो तय मानक के तहत 8.5 प्रतिशत होना चाहिए था। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया था, जिसे सत्र अदालत एवं हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था।

    न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने अपील के दौरान रखी गयी दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि विधायिका द्वारा एक बार जो मानक तय कर दिया गया उसका अनुपालन किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा,

    "दूध जैसी प्रमुख खाद्य सामग्री में कानून के तहत यह साबित करना जरूरी नहीं है कि यह (दूध) इस्तेमाल करने लायक नहीं रह गया था। इस कानून के तहत आने वाली खाद्य सामग्रियों के मामले में यह साबित करना जरूरी नहीं है कि खाद्य सामग्री स्वास्थ्य के लिए हानिकारक थी। इस मामले में केवल इस सवाल का निर्धारण करना है कि क्या सामग्री में तय मानकों का अनुपालन किया गया था या नहीं? यदि मानकों का अनुपालन नहीं किया गया तो इसे मिलावटी सामग्री की श्रेणी में रखा जायेगा, भले ही यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक न हो। तय मानक में मामूली अंतर की भी अनदेखी नहीं की जा सकती।"

    पीठ ने 'केरल सरकार बनाम परमेश्वरनन पिल्लई वासुदेवन नैयर' के मामले में दिये गये फैसले का भी उल्लेख किया जिसमें कहा गया था कि यह कानून तय मानकों में मामूली छूट या बॉर्डर लाइन अंतर की भी इजाजत नहीं देता। बेंच ने कहा, "

    "उपरोक्त स्थापित कानून के मद्देनजर हम यह व्यवस्था देते हैं कि यदि मानकों का अनुपालन नहीं किया गया तो यह अदालत मिलावट के आरोपी व्यक्ति को बरी करना न्यायोचित नहीं मानती, भले ही मिलावट मामूली क्यों न हो?"

    जब कानून को मजाक बनाया जा रहा हो, तो अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल इस तरह नहीं किया जा सकता

    यह घटना 20 साल से भी अधिक पहले की है और इसे आधार बनाकर अदालत के समक्ष संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त अधिकारों के इस्तेमाल का भी आग्रह किया गया था। पीठ ने यह कहते हुए इस दलील को खारिज कर दिया,

    ''हमारा सुस्पष्ट मत है कि अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का इस्तेमाल किसी कानून के खास प्रावधान के खिलाफ नहीं किया जा सकता है। खाद्य अपमिश्रण निवारण कानून की धारा 16(एक)(ए) में छह माह की सजा का प्रावधान है। मिलावट के अभिशाप, नागरिकों के स्वास्थ्य (खासकर, जब बात बच्चों के दूध की हो) पर मिलावट और अपमिश्रित खाद्य पदार्थों के दुष्प्रभावों पर विचार करते हुए विधायिका ने छह माह की सजा के प्रावधान किये हैं। समय बीत जाने को आधार बनाकर न्यूनतम सजा में कमी का आदेश नहीं दिया जा सकता।

    साथ ही, हमारा सुविचारित मत है कि अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का इस्तेमाल कानून के उल्लंघन के लिए नहीं किया जा सकता। जब कानून के तहत न्यूनतम सजा का प्रावधान किया गया है तो इस अदालत द्वारा अनुच्छेद 142 में मिली शक्तियों का इस्तेमाल किया जाना कानून के बिल्कुल विपरीत होगा। यदि इस अधिकार का इस्तेमाल खाद्य अपमिश्रण के मामले में न्यूनतम सजा को भी कम करने के लिए किया जाता है, तो हत्या और बलात्कार के मामलों में भी इस अदालत को न्यूनतम सजा में कमी करने का समान सिद्धांत लागू करना होगा। हमारा मानना है कि ऐसा करना अनुच्छेद 142 के उद्देश्य के खिलाफ है। हमारे मनोमस्तिष्क में इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि अनुच्छेद 142 को इस तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता कि यह कानून का मजाक बनकर रह जाये।"

    क्षमा की शक्तियों का इस्तेमाल अदालतें नहीं कर सकतीं

    'संतोष कुमार बनाम नगर निगम' मामले में दिये गये फैसले को आधार बनाकर पीठ से आग्रह किया गया था कि वह दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 433 के तहत सजा कम करने का राज्य सरकार को आदेश दे। पीठ ने इस दलील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि

    "सीआरपीसी की धारा 433 के अवलोकन से पता चलता है कि धारा 433 में प्रदत्त शक्तियों का इस्तेमाल राज्य सरकार ही कर सकती है। इन अधिकारों का इस्तेमाल इस कोर्ट सहित कोई भी न्यायालय नहीं कर सकता। कोर्ट राज्य सरकार को इस अधिकार के इस्तेमाल की सिफारिश कर सकता है, लेकिन संबद्ध सरकार की शक्तियों को न्यायालय छीन नहीं सकता और राज्य सरकार को इस मामले में आदेश पर अमल के लिए नहीं कहा जा सकता। इसलिए हम ऐसा कोई आदेश पारित करने के पक्ष में नहीं हैं जो इस अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो। "



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