मजिस्ट्रेट ट्र्रायल शुरू होने से पहले तक मामले में आगे की जांच के आदेश दे सकते हैं, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला

LiveLaw News Network

17 Oct 2019 3:49 AM GMT

  • मजिस्ट्रेट ट्र्रायल शुरू होने से पहले तक मामले में आगे की जांच के आदेश दे सकते हैं, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला

    सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दिए एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि मजिस्ट्रेट के पास किसी अपराध की आगे की जांच करने का आदेश देने की शक्ति है। यहां तक कि मामले में संज्ञान लेने के चरण के बाद भी मजिस्ट्रेट ट्र्रायल शुरू होने से पहले तक जांच का आदेश दे सकते हैं।

    न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति वी रामासुब्रमण्यन की पीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के एक आदेश को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि मजिस्ट्रेट के पास एक अपराध की जांच करने का आदेश देने की शक्ति नहीं होगी।

    विनुभाई हरिभाई मालवीय बनाम गुजरात राज्य में पीठ द्वारा विचार किया गया प्रश्न यह था कि क्या पुलिस द्वारा चार्जशीट दायर किए जाने के बाद,मजिस्ट्रेट के पास आगे की जांच का आदेश देने की शक्ति है और यदि ऐसा है तो यह शक्ति अपराध के किस चरण तक है।

    कोड के विभिन्न प्रावधानों की जांच करने के बाद, बेंच ने देखा,

    "स्पष्ट है कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट की शक्ति बहुत व्यापक हैं, क्योंकि यह न्यायिक प्राधिकरण है जिसे इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि पुलिस द्वारा की गई जांच उचित है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि पुलिस द्वारा की गई जांच उचित और निष्पक्ष है, उसकी निगरानी मजिस्ट्रेट करता है - भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 यह कहता है कि सभी आवश्यक शक्तियां, जो आकस्मिक या निहित भी हो सकती हैं , एक उचित जांच सुनिश्चित करने के लिए मजिस्ट्रेट पास उपलब्ध हैं, जो संदेह के बिना, धारा 173 (2) के तहत उसके द्वारा एक रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद आगे की जांच के आदेश को शामिल करेगा और ट्रायल शुरू होने तक आपराधिक कार्यवाही के सभी चरणों में ऐसी शक्ति मजिस्ट्रेट के पास जारी रहेगी।

    दरअसल, यहां तक ​​कि धारा 2 (एच) के तहत "जांच" की परिभाषा के अनुसार, सीआरपीसी की धारा 156 (1) में उल्लिखित "जांच" में पुलिस अधिकारी द्वारा साक्ष्य इकट्ठा करने के लिए सभी कार्यवाही शामिल हैं, जो निश्चित रूप से सीआरपीसी की धारा 173 (8) के तहत आगे की जांच के माध्यम से कार्यवाही शामिल होगी।"

    कानून में इस सवाल का जवाब खोजते हुए कि क्या धारा 156 (3) के तहत शक्ति का प्रयोग केवल पूर्व-संज्ञान चरण (अंतिम रिपोर्ट देने से पहले) में करना गलत होगा? अदालत ने कहा कि देवरपल्ली लक्ष्मीनारायण रेड्डी और अन्य बनाम वी नारायण रेड्डी में यह पाया गया कि धारा 156 (3) के तहत शक्ति का प्रयोग केवल संज्ञान लेने से पूर्व के चरण में किया जा सकता है, यह गलत धारणा है। अदालत ने इस निर्णय में धारा 156 (3) के तहत शक्ति के प्रयोग के विवरण को सही नहीं पाया और कहा,
    "जबकि यह सच है कि 1973 कोड लागू होने के बाद भी धारा 156 (3) अपरिवर्तित बनी हुई है, फिर भी 1973 कोड का एक बहुत महत्वपूर्ण है, अर्थात् धारा 173 (8), जो 1898 कोड के तहत मौजूद नहीं थी, उसका अधिनियम में जुड़ना महत्वपूर्ण है।


    जैसा कि हमने इस निर्णय में पहले देखा है, 1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (h) इस अंतर से "जांच" को उसी रूप में परिभाषित करती है, जिसमें 1898 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (l) में निहित अंतर इस परिभाषा के साथ है कि - 1973 की संहिता लागू होने के बाद "जांच" में अब एक पुलिस अधिकारी द्वारा किए गए सबूतों के संग्रह के लिए सीआरपीसी के तहत सभी कार्यवाही शामिल होगी। "सभी" में स्पष्ट रूप से धारा 173 (8) के तहत कार्यवाही शामिल होगी।


    इस प्रकार, जब धारा 156 (3) में कहा गया है कि धारा 190 के तहत सशक्त मजिस्ट्रेट "इस तरह की जांच" का आदेश दे सकते हैं, तो इस तरह के मजिस्ट्रेट धारा 173 (8) के तहत आगे की जांच का आदेश भी दे सकते हैं, जिसके संबंध में धारा 2 (एच) में "जांच" की परिभाषा निहित थी।


    धारा 2 (एच) को पूर्वोक्त निर्णय द्वारा ध्यान नहीं दिया गया है, जिसके परिणामस्वरूप कानून में गलत धारणा है कि धारा 156 (3) के तहत शक्ति केवल पूर्व-संज्ञान चरण में ही प्रयोग की जा सकती है। धारा 156 (3) में कही गई "जांच" पूरी प्रक्रिया को अपनाएगी, जो सबूतों के संग्रह से शुरू होती है और तब तक जारी रहती है जब तक कि अदालत द्वारा आरोप तय नहीं किए जाते हैं, जिस स्तर पर ट्रायल शुरू किया जा सकता है। इन कारणों से, देवरापल्ली लक्ष्मीनारायण रेड्डी में पैरा 17 में निहित कानून के विवरण पर भरोसा नहीं किया जा सकता।"

    पीठ ने यह भी पाया कि यह गलत धारणा अमृतभाई शंभुभाई पटेल बनाम सुमनभाई कांतिबाई पटेल में दोहराई गई थी जब उन्होंने यह देखा कि मामले में संज्ञान लेने के चरण के बाद मजिस्ट्रेट द्वारा मामले में आगे कोई भी जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता है। इन निर्णयों (जो इस आदेश का पालन करते हैं) को खारिज करते हुए, पीठ ने देखा,

    "इन फैसलों में कोर्ट द्वारा कोई ठोस कारण नहीं बताया गया है कि क्यों आगे की जांच का आदेश देने की मजिस्ट्रेट की शक्ति अचानक समाप्त हो जाएगी और मजिस्ट्रेट के सामने अभियुक्त के पेश होने से लेकर आगे की जांच करने के लिए पुलिस की शक्ति मुकदमे की सुनवाई शुरू होने तक जारी रहेगी।


    इस तरह का विचार इस अदालत के पहले के निर्णयों के अनुरूप नहीं होगा, विशेष रूप से, सकरी (सुप्रा), समाज परिवार समुदाय (सुप्रा), विनय त्यागी (सुप्रा), और हरदीप सिंह (सुप्रा); हरदीप सिंह (सुप्रा) ने स्पष्ट रूप से कहा कि संज्ञान लेने के बाद आपराधिक मुकदमा शुरू नहीं होता है, बल्कि यह तब शुरू होता है जब आरोप तय हो जाते हैं।
    हाल के निर्णयों में संविधान का अनुच्छेद 21 को महत्व नहीं दिया गया है और यह तथ्य है कि अनुच्छेद 21 निष्पक्ष और न्यायपूर्ण जांच की मांग से कम नहीं है। "

    फैसले की कॉपी डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें


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