सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 173: आदेश 32 नियम 2 व 2(क) के प्रावधान

Shadab Salim

27 April 2024 3:26 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 173: आदेश 32 नियम 2 व 2(क) के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 32 का नाम 'अवयस्कों और विकृतचित्त व्यक्तियों द्वारा या उनके विरुद्ध वाद' है। इस आदेश का संबंध ऐसे वादों से है जो अवयस्क और मानसिक रूप से कमज़ोर लोगों के विरुद्ध लाए जाते हैं या फिर उन लोगों द्वारा लाए जाते हैं। इस वर्ग के लोग अपना भला बुरा समझ नहीं पाते हैं इसलिए सिविल कानून में इनके लिए अलग व्यवस्था की गयी है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 32 के नियम 2 व 2(क) पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-2 जहां वाद-मित्र के बिना वाद संस्थित किया जाए वहां वादपत्र फाइल से निकाल दिया जाएगा - (1) जहां अवयस्क द्वारा या उसकी ओर से वाद, वाद-मित्र के बिना संस्थित किया जाता है वहां प्रतिवादी यह आवेदन कर सकेगा कि वादपत्र फाइल से निकाल दिया जाए और खर्चे उस प्लीडर या अन्य व्यक्ति द्वारा दिए जाएं जिसने उसे उपस्थित किया था।

    (2) ऐसे आवेदन की सूचना ऐसे व्यक्ति को दी जाएगी और उसके आक्षेप (यदि कोई हों) सुनने के पश्चात् न्यायालय उस विषय में ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे

    नियम-2(क) वाद-मित्र द्वारा प्रतिभूति का तय दिया जाना जहां इस प्रकार आदिष्ट किया जाए - (1) जहां अवयस्क की ओर से उसके वाद-मित्र द्वारा वाद संस्थित किया जाता है वहां न्यायालय वाद के किसी भी प्रक्रम में या तो स्वप्रेरणा से या किसी प्रतिवादी के आवेदन पर और ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे, वाद-मित्र को यह आदेश दे सकेगा कि वह प्रतिवादी द्वारा उपगत या उपगत किए जाने संभाव्य सभी खर्चों के संदाय के लिए प्रतिभूति दे।

    (2) जहां निर्धन व्यक्ति द्वारा ऐसा वाद संस्थित किया जाता है वहां प्रतिभूति के अन्तर्गत सरकार को संदेय न्यायालय फीस भी होगी।

    (3) जहां न्यायालय इस नियम के अधीन प्रतिभूति देने का निदेश देते हुए आदेश करता है वहां आदेश 25 के नियम 2 के उपबन्ध वाद को, जहां तक हो सके, लागू होंगे।

    आदेश 32, नियम 2 वादपत्र को फाइल से निकालने की व्यवस्था करता है, जब यह वादमित्र के बिना संस्थित किया जाता है।

    इस नियम के महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि एक अवयस्क व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से एक वाद फाइल किया गया है। उसका कोई बाद मित्र नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रतिवादी यह आवेदन कर सकेगा कि वादपत्र फाइल से निकाल दिया जाए और वाद के खर्चे उस प्लीडर या अन्य व्यक्ति द्वारा दिए जाएं, जिसने उसे उपस्थित (प्रस्तुत/फाइल) किया है। ऐसा आवेदन प्राप्त होने पर उस व्यक्ति (वाद फाइल करने वाले) को एक नोटिस (सूचना) दिया जावेगा। आगे आक्षेप (यदि कोई हो) सुने जायेंगे। इसके बाद न्यायालय उस आवेदन पर उचित आदेश पारित करेगा। वादी का अवयस्क होना-दो परिस्थितियाँ उपरोक्त शर्तों को पूरी करने के लिए प्रतिवादी को यह साबित करना होगा कि वादी अवयस्क है।

    इसके लिए दो परिस्थितियाँ हो सकती हैं:-

    (1) वादपत्र के मुख पर (शीर्षक आदि से) यह पता चलता हो कि वादी अवयस्क है।

    (2) जब प्रतिवादी आक्षेप कर इस नियम के अधीन आवेदन करता है और वाद करने वाले व्यक्ति को जब सूचना उप नियम (2) के अधीन देकर सुनवाई की जाती है, तो न्यायालय का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह वादी की अवयस्कता के प्रश्न पर विचार कर निर्णय दे। स्पष्ट हो जाता है कि वादी अवयस्क है, तो इस प्रकार पहली परिस्थिति में जब यह वादपत्र को देखने से ही स्थिति में वादपत्र को फाइल पर से निकाल दिया जावेगा। परन्तु दूसरी परिस्थिति में वादी की अवयस्कता का निर्णय साक्ष्य लेने के बाद तय किया जावेगा और वादी या वाद संस्थित करने वाले का अभिप्राय देखा जाएगा कि उसने न्यायालय को धोखा देने की नियत से अवयस्कता का पता होते हुए भी ऐसा किया या बिना ऐसे ज्ञान या अभिप्राय के। अनुचित नियत होने पर वादपत्र को फाइल से निकालने के बाद न्यायालय उस प्लीडर (वकील) या वादी की ओर से वाद फाइल करने वाले व्यक्ति पर वाद के खर्चे लगा सकता है, परन्तु ऐसी अनुचित नियत के अभाव में खर्चे लगाना न्यायोचित नहीं होगा।

    दो मत-दो निर्णय बम्बई उच्च न्यायालय के अनुसार पहली परिस्थिति में अर्थात् वाद पत्र को देखने पर वादी अवयस्क पाया जाए, तो वादपत्र को अभिलेख पर से निकालने का आदेश दिया जाएगा। कलकत्ता उच्च न्यायालय के अनुसार पहली परिस्थिति में यह नियम लागू होगा और न्यायालय वाद को खारिज करते हुए डिक्री पारित करेगा, परन्तु दूसरी परिस्थिति में नहीं, जहां न्यायालय द्वारा जांच करने पर अवयस्कता का तथ्य साबित हुआ हो। दोनों उच्च न्यायालयों के व्यवहार (प्रेक्टिस) में अन्तर है, जो महत्वपूर्ण है, क्योंकि वाद को खारिज करने पर उस डिक्री की अपील हो सकेगी, परन्तु उसे फाइल पर से निकालने के आदेश की कोई अपील नहीं हो सकेगी।

    अवयस्क के वाद का संस्थित (फाइल) किया जाना एक अवयस्क वादी के मामले में वाद उस समय फाइल किया गया समझा जावेगा, जब उसके वादमित्र द्वारा सम्यक (सही) रूप से वादपत्र फाइल किया गया।

    वाद जब खारिज नहीं किया जा सकता यदि किसी अवयस्क द्वारा या उनकी ओर से बिना इस बात के जाने या महसूस किए कि वह अवयस्क है, कोई वाद वादमित्र के बिना फाइल किया जाता है तो वादपत्र प्रतिवादी के आवेदन पर फाइल से निकाल दिया जाएगा।

    यदि उक्त दशाओं में किसी अवयस्क द्वारा वाद फाइल किया गया है और वादपत्र फाइल से निकाला नहीं जाता है तथा अवयस्क इस बीच वयस्क हो जाता है, तो यह मान लिया जाएगा कि वादपत्र फाइल से निकाल दिया गया था और उसे अवयस्क के वयस्कता प्राप्त करने के पश्चात् पुनः चालू किया गया है। ऐसा वाद खारिज नहीं किया जा सकता।

    अवयस्क द्वारा वाद में प्रतिनिधित्व का अभाव डिक्री अवैध एक दान-पत्र को शून्य घोषित करने और निरस्त करने के लिए संस्थित किए गए वाद में एक वादी अवयस्क था, जिसका प्रतिनिधित्व उसके पिता ने किया। परन्तु वाद के लम्बित रहते उस पिता ने संरक्षकत्व को वापस ले लिया। अवयस्क का उचित संरक्षक नियुक्त किए बिना न्यायालय ने उसके विरुद्ध डिक्री दे दी, जो अवैध थी।

    अवयस्क इस वाद में उचित प्रतिनिधित्व के अभाव में भी अवयस्क बना रहा, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वह अवयस्क (लड़की) पक्षकार ही नहीं थी वह वाद संस्थित करने के समय उचित रूप से प्रतिनिधित्व द्वारा एक पक्षकार थी और पक्षकार बनी रही, हालांकि बाद के प्रक्रम पर उसका उचित प्रतिनिधित्व नहीं किया गया। ऐसी स्थिति में उचित संरक्षक की नियुक्ति के बिना प्राप्त की गई डिक्री वैध नहीं है और वह उस अवयस्क के सम्बन्ध में वादगत सम्पत्ति में उसके एक-चौथाई हिस्से के सम्बन्ध में अपास्त की जाती है।

    आदेश 32 में, एक नया उपबंध है नियम 2(क) है, जो 1976 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया है। यह नियम न्यायालय को शक्ति प्रदान करता है कि वह वाद मित्र को यह आदेश दे कि वह वाद में प्रतिवादी के खर्चों के लिए प्रतिभूति दे। इस संशोधन का उद्देश्य यह है कि अवयस्कों के वादमित्रों द्वारा तंग करने वाली संविवाद (मुकदमेबाजी) करने को निरुत्साहित किया जाए।

    वाद मित्र द्वारा प्रतिभूति-कब देनी होगी

    (1) जहां अवयस्क की ओर से उसके वादमित्र ने कोई वाद संस्थित किया है,

    (2) या तो स्वरेणा से या किसी प्रतिवादी के आवेदन करने पर,

    (3) वाद के किसी भी प्रक्रम पर,

    (4) कारण लेखबद्ध करने के बाद

    (5) न्यायालय यह आदेश दे सकेगा कि प्रतिवादी द्वारा किए गए (उपात) या किए जा सकने वाले सभी खर्चे देने के लिए वादमित्र प्रतिभूति (सिक्यूरिटी) दे।

    (6) निर्धन व्यक्ति द्वारा किए गए वाद में प्रतिभूति में सरकार को दी जाने वाली न्यायालय फीस भी जोड़ी जावेगी।

    (7) प्रतिभूति देने का निदेश देने पर आदेश 25 के नियम 2 के उपबंध उस वाद को, जहां तक हो सके, लागू है।

    आदेश 25 के नियम 2 का लागू होना [उपनियम (3)] आदेश 25 का नियम 2, प्रतिभूति देने में असफल रहने का प्रभाव बताता है, जिसका विवरण इस प्रकार है-

    वादी को यदि उस वाद से प्रत्याहृत (विथड्राल) होने की इजाजत न्यायालय ने नहीं दी हो और फिर भी न्यायालय में उस वादमित्र ने नियत समय में प्रतिभूति नहीं दी, तो वाद खारिज कर दिया जावेगा।

    ऐसी खारिजी के अपास्त कराने के आदेश के लिए वह वादमित्र न्यायालय में आवेदन कर सकेगा और यदि वह न्यायालय का यह समाधान कर देता है कि किसी पर्याप्त कारण से वह प्रतिभूति नहीं दे सका, तो खारिजी को अपास्त किया जा सकेगा। इसके लिए प्रतिभूति और खर्चे की शर्तें लगाकर या अन्यथा जो ठीक समझे न्यायालय आदेश देगा। इसके बाद वाद में आगे की कार्यवाही के लिए दिन नियत करेगा।

    खारिजी अपास्त करने के पहले ऐसे आवेदन के बारे में सूचना प्रतिवादी पर तामील इस प्रकार वादमित्र द्वारा समय पर नियम 2-क के अधीन प्रतिभूति न देने पर कार्यवाही की जाएगी।

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