जानिए वकीलों को अपनी सेवाओं का विज्ञापन देने की अनुमति क्यों नहीं है? समझिये प्रतिबंध से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण बातें

SPARSH UPADHYAY

5 Dec 2019 7:42 AM GMT

  • जानिए वकीलों को अपनी सेवाओं का विज्ञापन देने की अनुमति क्यों नहीं है? समझिये प्रतिबंध से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण बातें

    भारत में हर साल बड़ी संख्या में लोग, बार काउंसिल में वकील के तौर पर नामांकित होने के लिए आवेदन करते हैं। इसके पश्च्यात, इस पेशे में अपना नाम बनाने की आकांक्षा के साथ वे वकालत शुरू करते हैं। लेकिन न तो कानून पेशा अपनाने वाले लोगों को और न ही लॉ फर्मों को अपने पेशे का विज्ञापन करने का अधिकार प्राप्त है। दरअसल वकीलों को ऐसा कुछ भी करने से प्रतिबंधित किया जाता है, जो भावी मुवक्किलों को प्रभावित कर सकता है।

    भारत में अधिवक्ताओं को बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा तैयार किए गए नियमों के तहत उनकी सेवाओं या उनके पेशे को लेकर विज्ञापन देने से रोक दिया जाता है। जैसा कि आर. एन. शर्मा, एडवोकेट बनाम हरियाणा राज्य 2003 (3) RCR (Criminal) 166 (P&H), के मामले में यह माना गया था कि एक वकील, कोर्ट का एक अधिकारी होता है, और कानूनी पेशा, व्यापार या व्यवसाय नहीं है; यह एक महान पेशा है और अधिवक्ताओं को कानूनी रूप से तय सीमाओं के भीतर अपने भावी मुवक्किलों के लिए न्याय करने का प्रयास करना होता है और शायद इसी कारणवश वकीलों को अपनी सेवाओं का प्रचार करने से रोका जाता है।

    वकीलों द्वारा विज्ञापन दिए जाने पर क्यों है रोक?

    कानूनी पेशेवरों द्वारा विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने की शुरुआत, ब्रिटिश शासन के दौरान विकसित विक्टोरियन धारणाओं से शुरू हुई। भारत में, यूके के समान, कानूनी पेशे को एक सम्मानजनक पेशा माना जाता है, यही कारण है कि कानूनी पेशेवरों द्वारा विज्ञापन दिया जाना उचित नहीं माना जाता है, और व्यापक रूप से इसे स्वीकार नहीं किया जाता है (हालाँकि अब यूके में वकील, अपनी सेवाओं का विज्ञापन दे सकते हैं)।

    वकीलों को विज्ञापन देने से रोका जाना इस विचार पर आधारित है कि यदि इस पेशे में व्यावसायिकता व्याप्त हो जाएगी, तो यह प्रवृति इस पेशे के सम्मान को कम करेगी और वकील अपने ज्ञान, कौशल, भावना और आत्मसम्मान पर ध्यान देने के बजाय, उनको मिलने वाले प्रतिफल (लाभ, फीस, उपहार इत्यादि) पर ध्यान केन्द्रित करने लग जायेंगे। जैसा कि आर. एन. शर्मा मामले में भी कहा गया कि एक वकील का मुख्य उद्देश्य, न्याय दिलाना होना चाहिए न कि अपनी व्यक्तिगत सफलता सुनिश्चित करना, क्यूंकि वह मुख्यतः कोर्ट का एक अधिकारी होता है। विज्ञापन देने पर रोक होने के अन्य कारणों में विज्ञापनों की भ्रामक प्रकृति और सेवाओं में गुणवत्ता का नुकसान भी शामिल है।

    बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र बनाम एम. वी. दधोलकर के मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने यह कहा था कि "कानून कोई व्यापार नहीं है, इसमें किसी माल को बेचा नहीं जाता है और इसलिए व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा को कानूनी पेशे को बदनाम नहीं करना चाहिए."

    गौरतलब है कि, बीसीआई द्वारा प्रदान किए गए विज्ञापन प्रतिबंध सम्बन्धी नियम (जिन्हें हम आगे समझेंगे), यकीनन भारत में मध्यस्थता संस्थानों पर लागू नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसे संस्थान 'कानूनी सेवा' देने के बजाय 'विवाद समाधान सेवाओं' की पेशकश करते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि बार काउंसिल के नियम, केवल अधिवक्ताओं (लॉ फर्मों सहित) पर लागू होते हैं।

    यह विचार अवश्य सामने रखा जाता है कि कानूनी सेवाओं के उपभोक्ता (मुवक्किल/पक्षकार) को, किसी भी अन्य सेवाओं के उपभोक्ता (जैसे एक डॉक्टर से चिकित्सा सेवा प्राप्त करना) जैसे, अपने पैसे के लिए सर्वोत्तम मूल्य प्राप्त करने का अधिकार है। हालाँकि, मौजूदा नियमों के अंतर्गत वकीलों पर विज्ञापन देने पर लगे प्रतिबन्ध के चलते, मुक़दमे का पक्षकार अपनी भुगतान क्षमता के भीतर एक वकील को खोजने में सक्षम नहीं है।

    हालाँकि सी. डी. सेक्किज्हर बनाम सेक्रेटरी, बार काउंसिल, मद्रास AIR 1967 Mad 35 के मामले में जस्टिस वीरास्वामी ने इस ओर गौर किया था कि कानून के पेशे के एक सदस्य द्वारा, किसी भी रूप में विज्ञापन दिया जाना, निंदनीय आचरण के रूप में देखा जाता है। यह इसलिए भी है कि इस पेशे से जुड़े सज्जनों ने इस पेशे की महानता को विकसित किया है और खुद के लिए बड़े मानक स्थापित किये हैं, इस पेशे को मिलने वाले सम्मान और गरिमा के चलते यह पेशा, ऐसा उच्च स्थान प्राप्त करने के लिए उपयुक्त भी है।

    बार काउंसिल ऑफ इंडिया नियम 36 क्या कहता है?

    बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 36 में कहा गया है कि भारतीय लॉ फर्म और वकीलों को ऑफलाइन या ऑनलाइन दोनों तरह से अपना विज्ञापन करने/देने की अनुमति नहीं है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 36 में यह कहा गया है कि भारत में वकील, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिपत्रों, विज्ञापनों, व्यक्तिगत संचार या साक्षात्कारों के माध्यम से या अखबारों में टिप्पणियों या तस्वीरों को प्रस्तुत करने या प्रेरित करने के माध्यम से काम मांग या अपना विज्ञापन नहीं कर सकते हैं।

    नियम यह भी कहता है कि एक वकील के नाम की साइनबोर्ड या नेम-प्लेट, एक उचित आकार की होनी चाहिए और इनके जरिये यह इंगित नहीं किया जाना चाहिए कि वह वकील, बार काउंसिल के अध्यक्ष या सदस्य हैं, या किसी एसोसिएशन के सदस्य हैं या वह किसी व्यक्ति या संगठन से जुड़े हैं या वह न्यायाधीश या महाधिवक्ता रहे हैं।

    हालाँकि, बीसीआई ने नियम 36 में संशोधन करने हेतु वर्ष 2008 में एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसके अंतर्गत वकीलों को अपनी वेबसाइट पर, अपना नाम, पता, टेलीफोन नंबर, ईमेल आईडी, व्यावसायिक और शैक्षणिक योग्यता, नामांकन और अपने प्रैक्टिस क्षेत्र से संबंधित जानकारी प्रस्तुत करने की अनुमति दे दी गयी है। यह जानकारी प्रदान करने वाले कानूनी पेशेवरों को यह घोषणा भी करनी होती है कि उन्होंने पूर्ण रूप से वास्तविक जानकारी प्रस्तुत की है।

    एक वकील, जो इन नियमों का उल्लंघन करता है, उसके खिलाफ अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। इस धारा ('कदाचार के लिए अधिवक्ताओं की सजा') के तहत प्राप्त शिकायत को लेकर, एक राज्य बार काउंसिल के पास निम्नलिखित शक्तियां हैं: शिकायत को खारिज करें, अधिवक्ता को फटकारें, वकील को सीमित अवधि के लिए प्रैक्टिस करने से रोक दें, अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं के राज्य रोल से हटा दें।

    In Re: (13) एडवोकेट्स बनाम अज्ञात AIR 1934 All 1067 के मामले में, यह अभिनिर्णित किया गया था कि अखबारों में लेख प्रकाशित करते हुए, जहां लेखक ने खुद को न्यायालयों में वकालत करने वाले एक वकील के रूप में वर्णित किया था, वह अपनी सेवाओं का प्रचार करने का एक सस्ता तरीका है।

    एस. के. नाइकर बनाम प्राधिकृत अधिकारी (1967) 80 Mad. LW 153 के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने यह माना था कि एक वकील का साइन बोर्ड या नेम प्लेट, मध्यम आकार का होना चाहिए और यह भी कहा गया कि एक वकील के हस्ताक्षर के तहत, अखबार में प्रकाशन के लिए लेख लिखना, पेशेवर शिष्टाचार का उल्लंघन है।

    अन्य देशों में क्या हैं नियम?

    अमेरिका में, वकीलों द्वारा विज्ञापन दिए जाने पर प्रतिबंधों की संवैधानिक वैधता को बेट्स बनाम स्टेट बार ऑफ एरिज़ोना (1977) के मामले में चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम संशोधन (जो अन्य बातों के अलावा, वाक्‌-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य सुनिश्चित करता है) के संरक्षण में ऐसे प्रचार को उचित बताया क्योंकि इस तरह के संचार/प्रचार से जनता को अपने हित में निर्णय लेने की शक्ति मिलती है और इससे उचित मूल्य की जानकारी प्राप्त हो सकती है।

    यूके में स्थिति थोड़ी अलग है, हालांकि शुरुआत में, पारंपरिक विक्टोरियन धारणाओं के कारण, यूके में कानूनी विज्ञापन निषिद्ध था, परन्तु वर्ष 1970 में एकाधिकार और विलय आयोग और वर्ष 1986 में फेयर ट्रेडिंगस कार्यालय की समीक्षा के बाद (जिन्होंने कानूनी लाभ और पेशेवरों द्वारा विज्ञापन देने के फायदे पर प्रकाश डाला), ब्रिटेन में यह प्रतिबंध हटा दिया गया।

    यूके में, सॉलिसिटर पब्लिसिटी कोड, 1990 वकील द्वारा विज्ञापन दिए जाने को नियंत्रित करता है, लेकिन कानूनी सेवाओं के विज्ञापन की अनुमति देता है। हालाँकि वकील द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए कि भावी मुवक्किल और अन्य व्यक्ति, उचित जानकारी के साथ विकल्प चुनने में समर्थ हो सकें।

    इसके अलावा, सिंगापुर कानूनी पेशे (व्यावसायिक आचरण) नियम 2015 कानूनी पेशेवरों द्वारा ऐसे नियमों के अनुसार, 'प्रचार' की अनुमति देता है।

    नियम में बदलाव: समय की मांग?

    भारत में न्यायिक प्रणाली के दायरे में आने वाले पक्षकारों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है जिसके जरिये वे इस क्षेत्र में बेहतर वकीलों का चुनाव करने के लिए जानकारी प्राप्त कर सकें। अर्थात ऐसी कोई एकल एजेंसी नहीं है, जो संभवतः 'अच्छे" वकीलों की एक विश्वसनीय सूची प्रदान कर सके। कानूनी पेशा निस्संदेह एक महान पेशा है। लेकिन इसके साथ ही, यह बड़े पैमाने पर लोगों की जरूरतों को पूरा कर रहा है। इस बात को भी ध्यान में रखते हुए, विज्ञापन सम्बन्धी नियमों को और बेहतर किया जा सकता है।

    हालाँकि, भारत जैसे देश में, आबादी का एक बड़ा वर्ग निरक्षर है, और इसके चलते एक ऐसी स्थिति भी उत्पन्न होती है, जहाँ असंगत वकील, जनता का शोषण कर सकते हैं, जबकि कानून परंपरागत रूप से सार्वजनिक सेवा के लक्ष्य के साथ जुड़ा हुआ पेशा है, इसलिए वकीलों पर लगाये गए विज्ञापन सम्बन्धी प्रतिबन्ध की वकालत करने वाले लोग भी कम नहीं हैं।

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