छत्तीसगढ़ हाइकोर्ट ने सोशल मीडिया पर न्यायालय की कार्यवाही को पुनः पोस्ट करने और जजों के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी करने पर कार्रवाई के आदेश दिए

Amir Ahmad

3 April 2024 8:33 AM GMT

  • छत्तीसगढ़ हाइकोर्ट ने सोशल मीडिया पर न्यायालय की कार्यवाही को पुनः पोस्ट करने और जजों के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी करने पर कार्रवाई के आदेश दिए

    छत्तीसगढ़ हाइकोर्ट ने मंगलवार को रजिस्ट्रार जनरल को आदेश दिया कि वे कदम उठाएं और जरूरत पड़ने पर न्यायालय की कार्यवाही के छेड़छाड़ किए गए वीडियो को फिर से पोस्ट करने वाले व्यक्तियों तथा जजों और न्यायालय के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने वाले नेटिजनों के खिलाफ अवमानना ​​नोटिस जारी करें।

    न्यायालय की छवि और निष्ठा पर सोशल मीडिया पर किए गए अपमानजनक हमले पर आपत्ति जताते हुए जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस राधाकिशन अग्रवाल की खंडपीठ ने कहा,

    ऐसा प्रतीत होता है कि जजों और वकीलों के खिलाफ अपमानजनक और अवमाननापूर्ण भाषा का प्रयोग करना कुछ लोगों का पसंदीदा शगल बन गया है। ये बयान न्यायालयों के अधिकार को बदनाम और कम करने वाले हैं। इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि लोकतंत्र के कामकाज के लिए बिना किसी भय और पक्षपात के न्याय करने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका सर्वोपरि है।

    मामले की पृष्ठभूमि

    अदालत अपीलकर्ता-पति द्वारा फैमिली कोर्ट के आदेश के विरुद्ध दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने उसे उसकी नाबालिग बेटी की कस्टडी देने से इनकार कर दिया था। अपीलकर्ता की ओर से यह तर्क दिया गया कि यद्यपि कस्टडी प्रतिवादी-पत्नी को दी गई, लेकिन वह नाबालिग बच्चे की देखभाल करने के लिए फिट नहीं है, क्योंकि उसे (पत्नी को) सिज़ोफ्रेनिया का पता चला, जिसके कारण वह हिंसक और खुद को नुकसान पहुंचाने वाली हो गई।

    कस्टडी के सवाल पर निर्णय लेने के लिए न्यायालय ने 'बच्चे के कल्याण' के सिद्धांत का पालन किया। बच्चे की इच्छा का आकलन करने के लिए न्यायालय ने उससे बातचीत की, जहां उसने अपने पिता और पैतृक दादा-दादी के साथ रहने की इच्छा व्यक्त की और जिस तरह से उसकी मां ने कस्टडी की अवधि के दौरान उसके साथ व्यवहार किया, उससे असंतोष व्यक्त किया।

    तथ्यात्मक स्थिति और कानून के सिद्धांतों पर विचार करते हुए न्यायालय ने फैमिली कोर्ट के निर्णय को पलट दिया और अपीलकर्ता-पति को बच्चे की कस्टडी दे दी। इसने प्रतिवादी-पत्नी को मुलाकात का अधिकार भी दिया।

    जजों के खिलाफ़ अपमानजनक टिप्पणियों पर विचार

    अदालत ने मामले की सुनवाई के वीडियो और उस पर प्रतिक्रियाओं के सोशल मीडिया प्रकाशनों का संज्ञान लिया। मामले को निर्णय सुनाए जाने के लिए सुरक्षित रखे जाने के बाद प्रतिवादी-पत्नी द्वारा न्यायालय के लाइव-स्ट्रीम किए गए वीडियो से छेड़छाड़ करने वाले व्यक्तियों के खिलाफ़ उचित कार्रवाई की मांग करते हुए आवेदन दायर किया गया।

    आवेदन के साथ सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं द्वारा पोस्ट की गई कुछ अपमानजनक टिप्पणियां भी संलग्न की गईं।

    अपमानजनक टिप्पणियों से व्यथित होकर न्यायालय ने कहा,

    “न्यायालय की निष्पक्ष और संयमित आलोचना भले ही कड़ी हो कार्रवाई योग्य नहीं हो सकती है, लेकिन अनुचित उद्देश्यों को आरोपित करना या जजों या न्यायालयों को घृणा और अवमानना ​​में लाना या न्यायालयों के कामकाज में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बाधा डालना गंभीर अवमानना ​​,है जिसका संज्ञान लिया जाना चाहिए और लिया जाएगा।”

    जस्टिस भादुड़ी ने अवमानना ​​के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ विदेशी निर्णयों का भी हवाला दिया।

    इसने मेट्रोपॉलिटन प्रॉपर्टीज लिमिटेड बनाम लेनन (1968) 3 ऑल ईआर 304 में लॉर्ड डेनिंग द्वारा की गई निम्नलिखित टिप्पणी का भी उल्लेख किया:

    "न्याय को विश्वास में निहित होना चाहिए और विश्वास तब नष्ट हो जाता है, जब सही सोच वाले लोग यह सोचकर चले जाते हैं कि न्यायाधीश पक्षपाती है।"

    न्यायालय ने ब्रह्म प्रकाश शर्मा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई निम्नलिखित टिप्पणियों को भी दोहराया,

    "यह जनता के लिए चोट होगी, यदि यह न्यायाधीश की ईमानदारी क्षमता या निष्पक्षता के बारे में लोगों के मन में आशंका पैदा करता है या वास्तविक और संभावित वादियों को न्यायालय के न्याय प्रशासन पर पूरी तरह भरोसा करने से रोकता है या यदि यह न्यायाधीश के मन में अपने न्यायिक कर्तव्यों के निर्वहन में शर्मिंदगी पैदा करने की संभावना है।"

    खंडपीठ ने स्वप्निल त्रिपाठी बनाम भारत के सुप्रीम कोर्ट (महासचिव के माध्यम से) के निर्णय का भी हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने न्यायालयों की कार्यवाही विशेष रूप से संवैधानिक मामलों में सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही की लाइव-स्ट्रीमिंग की वांछनीयता पर सकारात्मक विचार व्यक्त किए।

    इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायालयों की लाइव-स्ट्रीमिंग को प्रभावी बनाने और लागू करने के दौरान पालन किए जाने वाले कुछ दिशा-निर्देश तैयार किए। ऐसी सिफारिशों में से एक यह है कि न्यायालय की कार्यवाही के मूल प्रसारण के किसी भी भाग का पुनरुत्पादन पुनः प्रसारण, पुनः प्रकाशन, प्रतिलिपि बनाना, भंडारण और/या संशोधन, किसी भी रूप में भौतिक, डिजिटल या अन्यथा, निषिद्ध होना चाहिए।

    आगे सुझाव दिया गया कि ऐसे कृत्य में शामिल किसी भी व्यक्ति पर कॉपीराइट एक्ट, 1957, दंड संहिता, 1860, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 और न्यायालय की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 के तहत कार्रवाई की जा सकती है, लेकिन यह इन्हीं तक सीमित नहीं है।

    पीठ का दृढ़ मत है कि की गई टिप्पणियों की प्रकृति न्याय वितरण प्रणाली को बेहतर बनाने में सहायक नहीं है, बल्कि इससे अप्रत्यक्ष रूप से वकीलों को खतरा पैदा हुआ तथा न्यायालयों की छवि धूमिल हुई है।

    इस प्रकार उपर्युक्त को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने मामले को रजिस्ट्रार जनरल को संदर्भित किया, जिन्हें रजिस्ट्रार (कम्प्यूटरीकरण)/केन्द्रीय परियोजना समन्वयक की सहायता से “त्रुटियों वाली स्क्रिप्ट” के संबंध में उचित उपाय करने तथा आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय की कार्यवाही का वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करने वाले तथा वकीलों, न्यायालय तथा न्यायाधीशों की दलीलों के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी करने वाले व्यक्तियों को अवमानना ​​नोटिस जारी करने का निर्देश दिया गया।

    रजिस्ट्रार (न्यायिक) को उचित कार्यवाही अलग से रजिस्टर करने तथा विचारार्थ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने का आदेश दिया गया।

    केस टाइटल- के. बनाम एस।

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