महज कानून का प्रश्न खड़ा करने में चूक के कारण ही दूसरी अपील में दिये गये फैसले को निरस्त नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

17 Oct 2019 8:05 AM GMT

  • महज कानून का प्रश्न खड़ा करने में चूक के कारण ही दूसरी अपील में दिये गये फैसले को निरस्त नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि महज कानून का प्रश्न खड़ा करने में चूक के कारण ही द्वितीय अपील में दिये गये फैसले को निरस्त नहीं किया जा सकता, यदि यह पता चल जाये कि कानून का व्यापक प्रश्न मौजूद है और ऐसे प्रश्न का हल उच्च न्यायालय ने दे दिया है।

    न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने कहा कि अधीनस्थ अदालतों द्वारा तथ्यात्मक निर्णय तक न पहुंच पाने के कारण कानून का व्यापक प्रश्न उठ सकता है और नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 100 के तहत दायर द्वितीय अपील में हाईकोर्ट हस्तक्षेप कर सकता है।

    इस मामले (इलोथ वालाप्पिल अम्बुन्ही (मृत) बनाम कुन्हाम्बु करनावन) में हाईकोर्ट ने द्वितीय अपील में कानून का प्रश्न उठाया था कि यदि उपहार प्राप्त करने वाले ने उपहार बैनामा (गिफ्ट डीड) स्वीकार कर लिया है, इसके बावजूद क्या उपहारकर्ता उसे इक तरफा वापस ले सकता है?

    बेंच ने कहा कि शायद कानून का प्रश्न यह होना चाहिए था कि क्या उपहार विलेख स्वीकार न करने के मद्देनजर ट्रायल कोर्ट का फैसला और पहली अपील में उसकी पुष्टि दुराग्रह से प्रेरित थी तथा यदि ऐसा था तो क्या उपहारकर्ता द्वारा उसे एकतरफा निरस्त किया जाना कानून की नजर में सही था? पीठ ने आगे कहा,

    "हाईकोर्ट के फैसले को सावधानीपूर्वक पढ़ने से यह स्पष्ट हो गया है कि इसमें कानून के सभी प्रश्नों का निपटारा किया जा चुका है। हमारा मानना है कि महज कानून का प्रश्न खड़ा करने में त्रुटि के कारण ही द्वितीय अपील में दिये गये फैसले को निरस्त नहीं किया जा सकता, यदि यह मालूम हो कि अपील में उठने वाले कानून के सभी प्रश्नों का उत्तर उच्च न्यायालय ने दे दिया है, जैसा इस मामले में हुआ।"

    इस मामले में हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय अदालत के सहमति वाले फैसलों को निरस्त कर दिया था और कहा था कि मुकदमे में उल्लेखित सम्पत्ति चुझाली भगवती धर्मदेव भंडारम की है।

    इस मामले के तथ्य इस प्रकार हैं :-

    रमन ऐथन असहरी ने संबंधित प्रॉपर्टी भंडारम के पक्ष में उपहार बैनामा किया था। अपीलकर्ताओं के अनुसार, यद्यपि उपहार विलेख में कहा गया है कि कब्जा दिया जा चुका है, लेकिन न तो उपहार स्वीकार करने का कोई साक्ष्य है, न इस बात का कोई प्रमाण है कि प्रॉपर्टी भंडारम के कब्जे में है। उपहार विलेख में 'डिलीवरी ऑफ पजेशन' के उल्लेख के आधार पर ही यह नहीं माना जा सकता कि उपहार स्वीकार कर लिया गया था, क्योंकि उपहारकर्ता अचेतन अवस्था में था तथा उपहार स्वीकार करने या प्रॉपर्टी पर कब्जा लेने का कोई गवाह मौजूद नहीं है। ट्रायल कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि रमन की ओर से दिया गया उपहार प्रभावी नहीं हुआ, क्योंकि इसे स्वीकार नहीं किया गया था।

    ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय अदालत के सहमति के फैसले को निरस्त करने संबंधी हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा :-

    "जब उपहार के स्थानांतरण दस्तावेज में 'डिलीवरी ऑफ पजेशन' का जिक्र किया गया हो तथा उपहार प्राप्तकर्ता या उसकी ओर से उपहार लेने से प्रत्यक्ष इन्कार नहीं किया गया हो, तो ऐसी स्थिति में उपहार को स्वीकार करने या न करने की बात कानून की नजर में बेतुकी है। हाईकोर्ट ने सही कहा है कि जब बैनामा में खुद ही इस बात का जिक्र किया गया है कि प्रॉपर्टी का कब्जा उपहार प्राप्तकर्ता को दिया गया है, तो इसे झुठलाने वाले तर्क को साबित करने का दायित्व संबंधित पक्ष पर होता है। हमारा मानना है कि हाईकोर्ट ने सही निर्णय दिया है।


    हाईकोर्ट ने उपहार न स्वीकार करने के किसी भी साक्ष्य की गैर-मौजूदगी के आधार पर अधीनस्थ अदालतों के उस फैसले को निरस्त करके सही किया है जिसमें उन्होंने कहा था कि दानकर्ता के जीवनकाल में उपहार बैनामा मंजूर नहीं किया गया था। दानकर्ता को गुजारा भत्ते की अदायगी में विफल रहने के बावजूद संबंधित प्रॉपर्टी को उपहार प्राप्तकर्ता से वापस लेने की शर्त उपहार विलेख में मौजूद नहीं है। इस प्रकार हाईकोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि रमन को प्रॉपर्टी हस्तांतरण विलेख को रद्द करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि वह संबंधित प्रॉपर्टी का मालिक नहीं रह गया था।"

    सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय अदालत का निष्कर्ष कानून की गलत व्याख्या पर आधारित था।

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