व्यापक आम हितों के कारण सरकारी नीति में परिवर्तन को वैध उम्मीदों पर ग़ौर करने के दौरान उचित महत्व दिया जाना ज़रूरी है : सुप्रीम कोर्ट
LiveLaw News Network
9 Oct 2019 8:37 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी चीज़ में व्यापक आम दिलचस्पी सरकार की नीति में परिवर्तन का कारण हो सकती है और जायज़ उम्मीदों के दावे पर ग़ौर करने के दौरान इस पर पर्याप्त ध्यान देने की ज़रूरत होती है।
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और हेमंत गुप्ता की पीठ ने केरल हाईकोर्ट के एक फ़ैसले को निरस्त कर दिया। इस फ़ैसले में विस्थापित अर्क कामगारों के लिए दैनिक मज़दूरी को आरक्षित करने संबंधी नियम को लागू करने का निर्देश सरकार को दिया गया था।
निगम ने 1995 में अर्क कामगारों के लिए अर्क की खुदरा बिक्री शुरू की थी क्योंकि केरल सरकार ने अर्क की दुकानों को बंद कर दिया था। ये दुकानें निजी लोगों द्वारा चलाए जा रहे थे। इसके बाद, 01.04.1996, को केरल में अर्क को प्रतिबंधित कर दिया जिसके कारण 12,500 कामगारों को अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ा।
इसके ख़िलाफ़ विरोध शुरू हुआ और अंततः 20.02.2002, को सरकार ने आदेश दिया कि निगम में दैनिक मज़दूरी करने वालों के लिए जितने भी रोज़गार के अवसर भविष्य में पैदा होंगे उनमें से 25% पद उन विस्थापित कामगारों के लिए आरक्षित होंगे जो कि आबकारी वरकर्स वेलफ़ेयर फ़ंड बोर्ड के सदस्य रहे हैं और अर्क पर प्रतिबंध के कारण जिनकी सेवाएँ समाप्त हो गईं।
एक अन्य सरकारी आदेश, जो 7.8.2004 को जारी किया गया, ने इस नीति को उलट दिया और जिस 25% सीटों को ऐसे अर्क कामगारों के लिए आरक्षित करने की बात थी जिनकी रोज़गार छिनी थी, उसे उन अर्क कामगारों के बच्चों के लिए आरक्षित कर दिया गया जिनकी राज्य में अर्क पर पाबंदी लगाए जाने से रोज़गार छिन जाने के कारण मौत हो गई थी। रोज़गार के दावेदारों की संख्या उपलब्ध सीटों से अधिक होने की स्थिति में रोज़गार देने के लिए उम्मीदवारों का चुनाव किया जाएगा। रोज़गार पानेवालों को पूर्व अर्क कामगारों का आश्रित होना ज़रूरी था और उसकी आयु अभी 38 साल नहीं हुई हो।
विस्थापित अर्क कामगारों ने इस आदेश के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में अपील की और माँग की कि अदालत 20.02.2002 को जारी आदेश को लागू करने का निर्देश दे जिसके अनुसार इसका लाभ उन सभी अर्क कामगारों को मिलना है जिनके रोज़गार छिने हैं। हाईकोर्ट ने इनकी अर्ज़ी स्वीकार कर ली और खंड पीठ ने एकल पीठ के फ़ैसले को सही माना जिसमें कहा गया था कि 07.08.2004 के आदेश पर अमल मनमाना है और इससे संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होता है।
इस अपील पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि सरकार ने 20.02.2002 को जो आदेश दिया उससे किसी का कोई अधिकार नहीं बनता है और इस बात का वादा नहीं किया गया है कि जितने लोगों का रोज़गार छिना है उनमें से सब को रोज़गार उपलब्ध कराया जाएगा। पीठ ने राज्य सरकार की इस दलील को मान लिया कि नीति में परिवर्तन इसलिए किया गया क्योंकि 20.02.2002 को जारी पहले आदेश को लागू करने में मुश्किल पेश आ रही थी।
पीठ ने कहा, "सरकार की बदली हुई नीति का उद्देश्य आबकारी कामगारों और राज्य में भारी संख्या में बेरोज़गार युवाओं के हितों को संतुलित करना था इसलिए 07.08.2004 को लिए गए निर्णय को आम हित के ख़िलाफ़ नहीं माना जा सकता। प्रतिवादियों के दावे पर ग़ौर करने के दौरान नीति में आम लोगों के उन हितों का ध्यान रखना ज़रूरी है जिसके लिए नीति में परिवर्तन किया गया था। हम इस बारे में आश्वस्त हैं कि प्रतिवादियों की उम्मीदें जायज़ नहीं हैं।'
इस सवाल पर कि नीति में किसी भी तरह के परिवर्तन से पहले अर्क कामगारों की बात सुनी जानी चाहिए थी, पीठ ने कहा,
"प्रक्रियागत वैधानिक उम्मीदों का सिद्धांत वहाँ लागू होगा जहाँ कोई वादा किया जाता है और उसे फिर प्रभावित लोगों को कोई मौक़ा दिए बिना इसे वापस ले लिया जाता है। प्रशासनिक कार्रवाइयों में यह बात निहायत ज़रूरी होता है कि उस व्यक्ति को मौक़ा दिया जाए जिसे विगत में लाभ से वंचित होना पड़ा है। हमारी राय में, इस नियम का एक अपवाद है। अगर एक बड़ी संख्या में लोगों को लाभ पहुँचाने वाली किसी नीति की घोषणा सरकार ने की है, पर बाद में आम हितों को ध्यान में रखते हुए वह इसे वापस ले लेती है, तो इतनी संख्या में लोगों में हर एक को अवसर उपलब्ध कराना व्यावहारिक नहीं है।
दूसरे शब्दों में, इस तरह के मामलों में, हर व्यक्ति को इस मामले के बारे में बताने की ज़रूरत नहीं है कि किन परिस्थितियों में ऐसा किया गया। भारत संघ बनाम हिंदुस्तान डिवेलप्मेंट कॉर्परेशन एंड अदर्स मामले में कहा गया कि वैध उम्मीदों के आधार पर अगर हितों की बात है तो अदालत प्रक्रियात्मक औचित्य और प्राकृतिक न्याय के आधार पर इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा अगर निर्णय लेनेवाला अथॉरिटी के लिए पूरे विकल्प खोल दिए गए हैं और निर्णय न्यायसंगत और वस्तुस्थिति को ध्यान में रखकर लिया गया है"।
पीठ ने हाईकोर्ट की इस दलील को भी ख़ारिज कर दिया कि विस्थापित कामगारों को रोज़गार दिया जाना उनका अधिकार है और यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का हिस्सा है।