संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत हाइकोर्ट के वैकल्पिक उपचार और पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार
LiveLaw News Network
14 Oct 2019 2:56 PM IST
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की पीठ ने एक अहम फ़ैसला दिया जिसमें उसने कहा कि नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के संदर्भ में अपीली उपचार की उपलब्धता को संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत हाइकोर्ट के पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार को लगभग पूर्ण रूप से प्रतिबंधित करने जैसा माना जाएगा।
यह सिद्धांत कि अनुच्छेद 227 के तहत मिले पर्यवेक्षी अधिकार का कभी-कभार ही उपयोग किया जाना है और निचली अदालतों को उनके क्षेत्राधिकारों के भीतर बनाए रखने के लिए ही किया जाना चाहिए न कि सिर्फ़ ग़लतियों को ठीक करने के लिए| इस बात को पांच जजों की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने वरयाम सिंह बनाम अमरनाथ [AIR 1954 SC 215] मामले में पहले ही निर्धारित कर दिया है।
शायद यह पहला मौक़ा है जब सुप्रीम कोर्ट ने 'लगभग पूर्ण प्रतिबंध' जैसे वाक्य का प्रयोग किया है। विरुधुनगर हिंदू नदारगल धर्म परिबलन सबाई बनाम तुतीकोरिन एजुकेशन सोसायटी में अपने फ़ैसले में अदालत ने कहा है कि सीपीसी के तहत अदालत को उपलब्ध उपचार हाईकोर्ट को संविधान के तहत अपने पर्यवेक्षी अधिकार को न केवल ख़ुद पर लगाए गए प्रतिबंध के रूप में बल्कि विवेक और अनुशासन से प्रयोग करने से भी रोकेगा।
"लेकिन अदालतों को यह हमेशा इस अंतर को याद रखना चाहिए - (i) ऐसे मामले जहां इस तरह के वैकल्पिक उपचार नागरिक प्रक्रिया संहिता के संदर्भ में दीवानी अदालत के समक्ष उपलब्ध हैं और (ii) ऐसे मामले जहां इस तरह के वैकल्पिक उपचार विशेष क़ानून और/या वैधानिक नियमों और मंचों के अधीन उपलब्ध हैं वे अर्ध-न्यायिक अथॉरिटी और ट्रिब्यूनल हैं। ऐसे मामले जो प्रथम श्रेणी में आते हैं और जो दीवानी अदालत के समक्ष आने वाले मामले होते हैं, सीपीसी के संदर्भ में अपीली उपचार की उपलब्धता को यहां लगभग पूर्ण अवरोध के रूप में माना जा सकता है। नहीं, तो इस बात का ख़तरा है कि कोई किसी वाद में दिए गए फ़ैसले को भी इस अनुच्छेद 227 के तहत समीक्षा के लिए चुनौती दे सकता है जिस आधार पर प्रतिवादी नम्बर 1 और 2 ने हाईकोर्ट के क्षेत्राधिकार का मामला उठाया था"।
पीठ ने दो दशक पहले दो जजों की पीठ द्वारा ए वेंकटसुब्बैया नायडू बनाम एस चेल्लप्पन [(2000) 7 SCC 695] मामले में आए फ़ैसले का हवाला दिया। इस वाद में सुप्रीम कोर्ट ने जिस सवाल की जांच की वह था कि हाईकोर्ट को अनुच्छेद 227 के तहत आवेदन को स्वीकार करना चाहिए था या नहीं जबकि पक्षकार को दो और वैकल्पिक उपचार उपलब्ध थे। यह एक ऐसा मामला था जब बचाव पक्ष ने हाईकोर्ट से उसके ख़िलाफ़ वादी की याचिका पर दिए गए एक पक्षीय फ़ैसले को रोकने के लिए गुहार की कि और उससे अपने पर्यवेक्षी अधिकारों का प्रयोग करने को कहा। उस समय प्रतिवादी को जो दो विकल्प मौजूद थे उसके बारे में पीठ ने कहा,
"यद्यपि हाईकोर्ट को उसके संवैधानिक अधिकारों के प्रयोग में कोई रुकावट पैदा नहीं की जा सकती है, पर यह तय परिपाटी है कि इससे पहले कि वह संवैधानिक उपचारों का रास्ता अख़्तियार करे, उसे पक्षकारों को उपलब्ध किसी भी विकल्प का लाभ उठाने का निर्देश देना चाहिए। जज को समीक्षा याचिका पर कतई ग़ौर नहीं करना चाहिए था और एक पक्षीय फ़ैसले से प्रभावित पक्ष को किसी भी उपलब्ध उपचार का लाभ उठाने का निर्देश दिया जाना चाहिए था। पर अब इन सब बातों पर ग़ौर करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि हाईकोर्ट ने याचिका पर ग़ौर करने के लिए उसे स्वीकार कर लिया है।"
इस बात पर ग़ौर करना ज़रूरी है कि इस मामले में हाईकोर्ट ने हाईकोर्ट के फ़ैसले को स्वीकार्यता के आधार पर दरकिनार नहीं किया। यह सिद्धांत कि पूर्ण रोक नहीं हो सकता, इस बात को उसी फ़ैसले में यह कहते हुए स्पष्ट किया गया है कि हाईकोर्ट के संवैधानिक अधिकार के प्रयोग के रास्ते में कोई रुकावट पैदा नहीं की जा सकती है।
विरुधुनगर मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने वेंकटसुबैय्या मामले से आगे जाकर फ़ैसला दिया जब उसने कहा कि हाईकोर्ट के पर्यवेक्षी अधिकार के प्रयोग पर 'लगभग पूर्ण प्रतिबंध' है जब सीपीसी के अधीन वैकल्पिक उपचार उपलब्ध है।
अनुच्छेद 227 पर सूर्य देव राय का विचार और वैकल्पिक उपचार
विरुधुनगर मामले में अदालत ने राधे श्याम बनाम छबि नाथ [(2015) 5 SCC 423] मामले में आए फ़ैसले का भी ज़िक्र किया ताकि 'लगभग पूर्ण प्रतिबंध' के अपने तर्क का वह समर्थन कर सके।
यह बताना ज़रूरी होगा कि राधे श्याम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निम्न बातें कहीं
(1) दीवानी अदालतों के न्यायिक आदेश अनुच्छेद 226 के तहत रिट क्षेत्राधिकार में नहीं आते;
(2) अनुच्छेद 227 के तहत जो क्षेत्राधिकार है वह अनुच्छेद 226 के तहत मिले क्षेत्राधिकार से भिन्न है। सूर्य देव राय के मामले में जो विपरीत राय व्यक्त की गई थी उसे पीठ ने दरकिनार कर दिया। तथ्य यह है कि इस फ़ैसले के पैरा 24 में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सूर्य देव राय मामले में अनुच्छेद 227 के तहत अधिकार के बारे में जो फ़ैसला दिया गया था उस पर पीठ ने ग़ौर नहीं किया या उसे दरकिनार नहीं किया।
तो सूर्य देव राय मामले में ऐसा क्या कहा गया था जो आज भी संगत है। इसमें कहा गया -
"अनुच्छेद 227 के तहत पर्यवेक्षी अधिकारों के प्रयोग की आड़ में सिर्फ़ अपीली या समीक्षात्मक क्षेत्राधिकार के प्रयोग के ख़िलाफ़ सुरक्षा के लिए अदालतों ने उनके अधिकारों पर पहरे के लिए ख़ुद पर अनुशासनात्मक नियम लागू किया है। पर्यवेक्षी अधिकार को उस समय प्रयोग करने से इंकार किया जा सकता है जब पीड़ित व्यक्ति को अपील या वैकल्पिक प्रभावी उपचार उपलब्ध है।
हाईकोर्ट को विधाई नीतियों के प्रति आदर हो सकता है जिसे अनुभव से तैयार किया गया है जहां विधायिका ने अपने बुद्धि का प्रयोग करते हुए जानबूझकर कुछ आदेशों और प्रक्रियाओं को अपीली और समीक्षात्मक क्षेत्राधिकार से यह सोचकर अलग रखा गया है ताकि हर स्तर पर हर आदेश को समीक्षा की प्रक्रिया से गुज़रने की अनुमति देने से मुक़दमे के फ़ैसले में विलंब नहीं हो।
जब तक कोई ग़लती ऐसी है जिसे कोई ऊंची अदालत अपनी अपीली या समीक्षात्मक क्षेत्राधिकार के प्रयोग से ठीक कर सकता है, हालांकि जो कार्यवाहियों की समाप्ति पर ही उपलब्ध होता है, पर अगर हाईकोर्ट कार्यवाहियों के लंबित होने के दौरान इस तरह के अधिकारों का प्रयोग करने से मना कर दे तो यह सही होगा। हालाँकि, ऐसे मौक़े हो सकते हैं जब पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं करने से, निचली अदालत या ट्रिब्यूनल की क्षेत्राधिकार संबंधी ग़लती का निदान प्रक्रिया के समाप्त हो जाने के बाद नहीं हो सके।"
अदालत ने सूर्य देव राय के मामले में कहा :
"अनुच्छेद 227 के तहत पर्यवेक्षी अधिकार का प्रयोग अधीनस्थ अदालतों को को उनके क्षेत्राधिकार की सीमाओं के भीतर रखने के लिए होता है। जब कोई अधीनस्थ अदालत ऐसे क्षेत्राधिकार का उपयोग करता है जो उसका नहीं है या ऐसा क्षेत्राधिकार जो उसके पास है पर जिसका वह प्रयोग करने में चूक गया है या ऐसा क्षेत्राधिकार जिसका प्रयोग व इस तरह से कर रहा है जिसकी इजाज़त क़ानून के तहत नहीं है और इस वजह से न्याय नहीं हो पाया या गंभीर अन्याय हुआ है, तो उस स्थिति में हाईकोर्ट हस्तक्षेप कर अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सकता है।"
आगे यह भी कहा गया कि अपने पर्यवेक्षी अधिकारों के प्रयोग के दौरान हाईकोर्ट न केवल अधीनस्थ अदालतों को यह निर्देश देगा कि उन्हें इसके बाद किस तरह कार्यवाही को अंजाम देना है या कि सुनवाई दुबारा शुरू करनी है बल्कि अगर उसे उचित लगता है तो वह अधीनस्थ अदालतों के आदेशों को दरकिनार करते हुए उसकी जगह अपना आदेश दे सकता है।
निष्कर्षतः अदालत ने कहा,
"यद्यपि हमने व्यापक सिद्धांत और कार्य को सुचारू करने के लिए नियमों का निर्धारण करने की कोशिश की है, लेकिन तथ्य यह है कि अनुच्छेद 226 और 227 के तहत क्षेत्राधिकार के मानदंडों को ऐसे नियमों में नहीं ढाला जा सकता जिसमें लचीलापन नहीं हो। अमूमन, हाईकोर्ट के सामने इस तरह की दुविधा पैदा हो जाती है। अगर वह लंबित मामले में हस्तक्षेप करता है तो मामले का फ़ैसला आने में देरी होना तय है। अगर वह हस्तक्षेप नहीं करता है तो जो ग़लती होती है उसको सही नहीं किया जा सकेगा।
किसी मामले के तथ्य और परिस्थितियां हाईकोर्ट को ख़ुद पर अंकुश लगाना ज़्यादा उचित होगा और उसे सिर्फ़ इसलिए हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए कि क्षेत्राधिकार संबंधी ग़लती यद्यपि हो गई है, पर बाद में उसके सही हो जाने की क्षमता है और अगर कोई ग़लती हुई है उसे ठीक कर लिया जाएगा और अदालती कार्यवाही के संपन्न होने पर अधिकार और समानताओं को अपील या समीक्षा के दौरान ठीक कर दिया जाएगा।
लेकिन कुछ ऐसे मामले भी हो सकते हैं जिसके बारे में यह कहा जा सकता है कि समय पर हस्तक्षेप हो तो बाद में आने वाले बहुत मुश्किलों से बचा जा सकता है। और अंत में हम यह कह सकते हैं कि अधिकार है पर इसका प्रयोग कैसे किया जाए यह विवेकाधीन है और यह न्यायिक विवेक से निर्देशित होगा जो जजों के न्यायिक अनुभव और व्यावहारिक बुद्धि से आती है।"
तीन जजों की पीठ ने मानेक गुस्तेदजी बुर्जरजी बनाम सरफ़ज़ली नवाबली मिर्ज़ा AIR 1976 SC 244 मामले में अपने फ़ैसले में कहा था कि ऐसी विशेष परिस्थितियां बन सकती हैं जब वैकल्पिक क़ानूनी उपचार के उपलब्ध होने के बावजूद हाईकोर्ट अनुच्छेद 227 के तहत हस्तक्षेप कर सकता है। हालाँकि, उक्त मामले में यह कहा गया कि सिटी सिवल कोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ अपील के रूप में उपलब्ध क़ानूनी उपचार न केवल पर्याप्त है बल्कि अनुच्छेद 227 की तुलना में ज़्यादा व्यापक है।
यह एक स्थापित सिद्धांत है कि हाईकोर्ट सामान्य रूप से अपने विशेषाधिकार के प्रयोग के लिए अनुच्छेद 227 के अधीन कोई विशेष दीवानी अपील स्वीकार नहीं करता जहाँ अपीलकर्ता को पर्याप्त वैकल्पिक क़ानूनी उपचार उपलब्ध है। यह सच है कि यह सिद्धांत कठोर और ग़ैर-लचीला नहीं है और और ऐसी विशेष परिस्थितियाँ हो सकती हैं जब वैकल्पिक क़ानूनी उपचार के उपलब्ध होने के बावजूद हाईकोर्ट किसी अपीलकर्ता के हक़ में हस्तक्षेप कर सकता है पर यह मामला इस तरह की किसी विशेष परिस्थितिवाला मामला नहीं है।
अनुच्छेद 227 के तहत हाईकोर्ट के संवैधानिक अधिकारों के प्रयोग के बारे में हाल के फ़ैसले का प्रभाव महत्त्वपूर्ण होगा। क्या 'लगभग पूर्ण प्रतिबंध' का नया सिद्धांत हाइकोर्टों के संवैधनैक अधिकारों के प्रयोग के रास्ते में रुकावटें पैदा करेगा? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर आने वाले दिनों में इस तरह के उचित मामलों के फ़ैसलों में मिलेगा।