मृत्यु पूर्व दिए बयान सिर्फ इसलिए अमान्य नहीं क्योंकि उन्हें किसी डॉक्टर ने प्रमाणित नहीं किया : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

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2 May 2019 6:09 AM GMT

  • मृत्यु पूर्व दिए बयान सिर्फ इसलिए अमान्य नहीं क्योंकि उन्हें किसी डॉक्टर ने प्रमाणित नहीं किया : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

    "यदि मरने से पहले बयान दर्ज करने वाला व्यक्ति इस बात को लेकर संतुष्ट है कि बयान देने के लिए घोषणाकर्ता एक उपयुक्त चिकित्सा स्थिति में है और यदि कोई संदिग्ध परिस्थितियां नहीं हैं तो मृत्यु के पूर्व दिए बयान केवल इस आधार पर अमान्य नहीं हो सकते कि इसे डॉक्टर द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया। चिकित्सक द्वारा प्रमाणीकरण के लिए आग्रह केवल विवेक का एक नियम है जिसे मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर लागू किया जाता है। असली परीक्षण यह है कि क्या मरने से पूर्व दिया गया बयान सत्य और स्वैच्छिक हैं।“

    सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए मृत्यु के पूर्व दिए बयानों में खामी पाए जाने के आधार पर हत्या की एक दोषी को बरी कर दिया।

    उच्च न्यायालय ने बदला था ट्रायल कोर्ट का निर्णय
    इस मामले में उच्च न्यायालय ने पाया था कि पूनम बाई ने आग लगाकर अपनी चाची की हत्या की थी। इसी आधार पर पीठ ने ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी किए जाने के फैसले को पलट दिया था। साथ ही उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

    सजा के आदेश को दी गयी SC में चुनौती
    इसके बाद अपीलकर्ता ने उच्च न्यायालय के सजा के आदेश को आपराधिक अपील के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। अपील पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एन. वी. रमना, जस्टिस मोहन एम. शांतनगौदर और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की पीठ ने कहा कि किसी को सिर्फ मृत्यु पूर्व दिए बयानों के आधार पर तभी दोषी ठहराया जा सकता है जब ये बयान "भरोसेमंद, स्वैच्छिक, बेदाग और विश्वसनीय हों।"

    अदालत ने यह भी कहा कि यह अनिवार्य नहीं है कि मरने से पहले दिए गए बयानों को हमेशा डॉक्टर द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिए; हालांकि, जो भी बयानों को रिकॉर्ड करता है, उसे यह प्रमाणित करना चाहिए कि वह व्यक्ति, बयान देते वक्त बयान देने के लिए उपयुक्त चिकित्सा स्थिति में था।

    "यदि मरने से पहले बयान दर्ज करने वाला व्यक्ति इस बात को लेकर संतुष्ट है कि बयान देने के लिए घोषणाकर्ता एक उपयुक्त चिकित्सा स्थिति में है और यदि कोई संदिग्ध परिस्थितियां नहीं हैं तो मृत्यु पूर्व दिए बयान केवल इस आधार पर अमान्य नहीं हो सकते कि इसे डॉक्टर द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया। चिकित्सक द्वारा प्रमाणीकरण के लिए आग्रह केवल विवेक का एक नियम है जिसे मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर लागू किया जाता है। असली परीक्षण यह है कि क्या मरने से पूर्व बयान सत्य और स्वैच्छिक हैं," जस्टिस शांतनागौदर ने फैसले में कहा।

    मामले में मौजूद बारीकियां
    सुप्रीम कोर्ट के पास आए इस मामले में नायब तहसीलदार-सह-कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए गए मृत्यु पूर्व बयानों, जिस पर अभियोजन पक्ष ने भरोसा किया था, पर पीठ ने भरोसा नहीं किया।

    अदालत ने नायब तहसीलदार द्वारा दर्ज किए गए बयानों को खारिज कर दिया क्योंकि उसने मृतक की मेडिकल फिटनेस को सत्यापित करने का कोई प्रयास नहीं किया ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मृतक घटना को याद करने के लिए उपयुक्त स्थिति में थी।

    "उन्होंने अपनी जिरह में भी स्वीकार किया है कि उन्होंने पीड़िता से यह पूछने के लिए कोई सवाल नहीं रखा कि वह बयान देने की स्थिति में है या नहीं। उन्होंने यह भी सत्यापित करने की कोशिश नहीं की कि क्या पीड़ित के पास घटना को याद करने की शक्ति है या नहीं। इसलिए यह स्पष्ट है कि पीडब्लू 1 ने बयान देने के लिए पीड़ित की फिटनेस के बारे में खुद को संतुष्ट नहीं किया था। बयान देने के लिए पीड़ित की फिटनेस के बारे में डॉक्टर का कोई सत्यापन या प्रमाणन नहीं पाया जा सकता।"

    पीठ ने कहा कि हालांकि अभियोजन पक्ष ने ययह दावा किया कि तहसीलदार द्वारा 3 गवाहों की उपस्थिति में बयान दर्ज किए गए थे लेकिन ट्रायल कोर्ट के समक्ष केवल बयानों की एक फोटोकॉपी पेश की गई जिसमें गवाहों के हस्ताक्षर अनुपस्थित थे। इसके अलावा जांच अधिकारी के साथ-साथ तहसीलदार-सह-कार्यकारी मजिस्ट्रेट भी ये कारण बताने में असफल रहे कि मूल कॉपी कोर्ट को क्यों नहीं दी गई।

    "इसे जोड़ने के लिए नायब तहसीलदार सह कार्यकारी मजिस्ट्रेट (पीडब्लू 1) की उपस्थिति के बारे में जांच अधिकारी के बयान में कोई बात नहीं है और ना ही उसने दोपहर 12:30 बजे मरने से पहले बयान दर्ज करने की बात का जिक्र ही किया है।"

    पीठ द्वारा दिये गए निर्णय के पीछे के कारण
    पीठ ने आगे कहा कि परिजनों के सामने मृतक द्वारा दिए गए बयान पर भरोसा नहीं किया जा सकता और ये बात ट्रायल कोर्ट के सामने रखी गई थी। इस दौरान पुलिस द्वारा धारा 161 सीआरपीसी के तहत उनके बयान दर्ज करते समय भी इसका उल्लेख नहीं किया गया था।

    पीठ ने माना कि उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी को दोषी ठहराने के लिए गलत फैसला किया है, क्योंकि अपीलकर्ता के खिलाफ कोई अन्य सामग्री मौजूद नहीं है।

    पीठ ने अपील को यह अनुमति देते हुए और छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के सजा के आदेश को रद्द करते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा अभियुक्त को बरी करने के आदेश को बहाल कर दिया।


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