टाइटल या शीर्षक के आधार पर अधिकार या कब्जे के लिए दायर मुकदमें की बाहरी सीमा सिर्फ इसलिए खत्म नहीं हो सकती क्योंकि उसमें घोषणा की राहत भी मांगी गई है-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

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10 July 2019 11:43 AM GMT

  • टाइटल या शीर्षक के आधार पर अधिकार या कब्जे के लिए दायर मुकदमें की बाहरी सीमा सिर्फ इसलिए खत्म नहीं हो सकती क्योंकि उसमें घोषणा की राहत भी मांगी गई है-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

    सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है कि अधिकार या कब्जे के लिए दायर एक मुकदमें में केवल इस आधार पर कि डिक्लेरेशन (घोषणा) की भी राहत मांगी गई है, 12 वर्ष की बाहरी सीमा खत्म या लुप्त नहीं हो सकती है।

    क्या था यह मामला?
    इस मामले में वादी के पक्ष में एक जमीन के कब्जे की डिक्री देते हुए जमीन पर उसका अधिकार बताया गया था। इस मामले में प्रतिवादियों की आपत्ति थी कि केस में घोषणा या डिक्लरेशन की मांग की गई थी इसलिए केस की सीमा 3 साल थी। इसलिए सूट या केस को सीमा से बाहर दायर किया गया था। निचली अदालत ने इस दलील को स्वीकार कर लिया था,परंतु पहली अपीलेट कोर्ट व हाईकोर्ट ने इसे स्वीकार नहीं किया और केस में आदेश दिया था।

    मामला पहुँचा था उच्चतम अदालत के पास
    जब यही दलील सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दोहराई गई तो जस्टिस दीपक गुप्ता वाली पीठ ने यह पाया कि मुकदमा सिर्फ घोषणा के लिए नहीं था, बल्कि वादी ने विवाद में शामिल जमीन पर कब्जे या अधिकार की भी मांग की थी।

    पीठ ने कहा कि-
    ''शीर्षक या स्वत्वाधिकार के आधार पर अधिकार या कब्जे के लिए केस दायर करने की सीमा 12 साल है। इसलिए यह केस अपनी सीमा के तहत दायर किया गया था। केवल इस आधार पर कि इस केस में एक घोषणा की भी राहत मांगी गई थी, यह नहीं कहा जा सकता है कि केस दायर करने की 12 साल की बाहरी सीमा खत्म हो जाती है। इस मामले में याचिकाकर्ताओं के वकील ने इसी कोर्ट के एल.सी हनुमानथाप्पा बनाम एच.बी शिवकुमार मामले में दिए गए फैसले पर विश्वास किया,परंतु वह पूरी तरह अनुपयुक्त है। वह फैसला इस केस पर लागू नहीं होता है क्योंकि वह केस सिर्फ घोषणा की मांग वाला था, जबकि इस मामले में घोषणा व कब्जा, दोनों की मांग की गई है। शीर्षक या स्वत्वाधिकार के आधार पर कब्जे के लिए दायर केस में वादी को अपना स्वत्वाधिकार साबित करना होता है। ऐसे में घोषणा की मांग इसलिए की गई है कि वह उस जमीन का मालिक है क्योंकि शीर्षक के आधार पर दायर उसका केस तब तक सफल नहीं हो सकता है, जब तक जमीन पर उसके कुछ स्वत्वाधिकार को न मान लिया जाए। हालांकि मुख्य राहत कब्जे के लिए की गई है। ऐसे में केस परिसीमन अधिनियम 1963 के अनुच्छेद 65 के तहत आता है। यह अनुच्छेद अचल संपत्ति के संबंध में कब्जे या अधिकार के लिए दायर केस से संबंधित है और 12 साल की सीमा उस तारीख से मानी गई है, जिस तारीख से जमीन का कब्जा याचिकाकर्ता के पास से चला जाता है या उसके प्रतिकूल हो जाता है। इस मामले में अगर प्रतिवादियों के केस को सर्वोच्च मान लिया जाए तब भी प्रतिवादियों का कब्जा वादी के प्रतिकूल या खिलाफ 19 अगस्त 1978 को हुआ था,जब प्रतिवादियों को जमीन का कब्जा दिया गया था।''

    प्रतिवादियों की तरफ से दी गयी दलील
    प्रतिवादियों की तरफ से एक दलील यह भी दी गई थी कि हाईकोर्ट ने वादी के लिए एक नया केस बना दिया है, क्योंकि उनको मुतावलिस घोषित किया गया था। जबकि वादी ने ऐसी कोई राहत नहीं मांगी थी कि वह मुतावलिस है। इसलिए हाईकोर्ट यह राहत नहीं दे सकती है।

    बछाज नाहर बनाम निलिम मंडल के मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि पक्षकार द्वारा मांगी गई राहत या विनती से कम राहत या राहत के छोटे प्रारूप प्रदान किए जा सकते है। वादी ने इस मामले में इनामदार का दर्जा दिए जाने के लिए दावा किया था, जो मुतावलिस से उच्च स्थिति पर है। जबकि हाईकोर्ट ने इस मामले में कम या छोटी राहत दी है, यह कोई उच्च राहत नहीं है और न ही बिल्कुल नई राहत है। इसलिए इस दलील को भी खारिज किया जाता है।


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