सजायाफ्ता कैदियों की समय-पूर्व रिहाई के लिए हैबियस कॉरपस याचिका का परीक्षण करने को सुप्रीम कोर्ट तैयार

LiveLaw News Network

22 Oct 2019 4:45 AM GMT

  • सजायाफ्ता कैदियों की समय-पूर्व रिहाई के लिए हैबियस कॉरपस याचिका का परीक्षण करने को सुप्रीम कोर्ट तैयार

    सुप्रीम कोर्ट इस बात का परीक्षण करने के लिए तैयार है कि क्या किसी सरकारी आदेश / नियमों के संदर्भ में किसी कैदी की समय से पहले रिहाई की मांग वाली हैबियस कॉरपस याचिका सुनवाई योग्य है?

    एक अन्य मुद्दा जो इस मामले में सुना जाएगा, जिसका शीर्षक गृह सचिव (जेल) बनाम एच नीलोफर निशा है, यह है कि क्या राज्य, अपने दम पर उन कैदियों की रिहाई का प्रावधान कर सकता है, जिन्हें ऐसे मामलों में आजीवन कारावास दिया गया है, जिनमें अपराध की सजा मौत की सजा तक है और कैदी को 14 साल की सजा के बाद रिहा किया जा सकता है?

    यह है मामला

    दरअसल एच अबु ताहिर, हत्या का दोषी है और आजीवन कारावास की सजा काट रहा है। सरकारी आदेश का लाभ लेने की उसकी याचिका प्रोबेशन अफसर की रिपोर्ट के आधार पर खारिज कर दी गई थी कि अगर उसे छोड़ा गया तो उसके जीवन पर खतरा है।

    उसकी मां द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की अनुमति देते समय मद्रास उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने पाया था कि सरकारी आदेश के तहत उसे राहत देने से इनकार करने का ऐसा आधार अनुचित है। पीठ ने टिप्पणी की थी कि एक कैदी को इस आधार पर रिहा करने से इनकार करने पर कि उसकी सुरक्षा खतरे में है, उसकी अपनी किसी भी गलती के कारण नहीं बल्कि दूसरों द्वारा गलती करने की संभावना की आशंका के चलते इनकार करना है। पीठ ने उसे नुकसान की संभावना बताकर उसकी रिहाई की सिफारिश की थी।

    इस आदेश को राज्य प्राधिकरण ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ 25 नवंबर 2019 को निम्नलिखित मुद्दों पर विचार करेगी।

    क्या कोई व्यक्ति जो किसी आपराधिक अदालत द्वारा दी गई सजा के कारण सलाखों के पीछे है, वह बंदी प्रत्यक्षीकरण के लिए प्रार्थना करने वाली रिट कोर्ट से संपर्क कर सकता है कि उसे कुछ सरकारी आदेशों / नियमों से अलग समय-पूर्व रिहा किया जाए। मुद्दा यह है कि क्या ऐसी परिस्थितियों में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका कानून के समक्ष ठहरेगी या नहीं ?

    क्या भारत के राष्ट्रपति की सहमति के बिना कोई भी राज्य ऐसी योजना बना सकता है जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 433 ए के प्रावधान के उल्लंघन में है और उन मामलों में आजीवन कारावास से गुजरने वाले कैदियों को रिहा करने का प्रावधान है, जहां अपराध की सजा मौत की सजा तक है और उनके 14 साल की सजा के बाद रिहा किया जाना है ?

    समय-पूर्व रिहाई का सरकारी आदेश,जिसमें मूल रूप से मौत की सजा सुनाई गई थी, लेकिन अपीलीय न्यायालय ने इसे उम्रक़ैद में तब्दील कर दिया।

    दिनांक 01.02.2018 को G.O.(Ms) नंबर .64, गृह ((कारागार- IV)) विभाग के अनुसार निम्न श्रेणी के कैदी समय-पूर्व रिहाई के लिए विचार के पात्र हैं :

    आजीवन कारावास के सजायाफ्ता जिन्होंने 25.02.2018 को 10 वर्ष की वास्तविक कारावास की सजा पूरी की है और वे आजीवन कारावास के सजायाफ्ता जो 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के हैं और जिन्होंने 25.02.2018 को 5 वर्ष की वास्तविक कारावास की सजा पूरी की है, जिन्हें ट्रायल कोर्ट ने मूल रूप से मृत्युदंड की सजा दी है और अपीलीय न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाई है, (उन लोगों के अलावा जिनकी सजा तब्दील की गई है) को समय से पहले रिहाई के लिए कुछ शर्तों की संतुष्टि के अधीन माना जा सकता है।

    मद्रास उच्च न्यायालय ने इसी तरह की हैबियस कॉरपस याचिकाओं को अनुमति दी है जिसमें याचिकाकर्ताओं ने समय से पहले रिहाई की मांग की थी।

    मध्य प्रदेश राज्य में समय से पहले रिहाई के नियमों से संबंधित एक मामले पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 433 ए के कुल विरोधाभास के चलते राज्य में प्रोबेशन नियम नहीं हो सकते हैं।

    याचिका की कॉपी डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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