मुकदमे की मंजूरी की अवैधता का सवाल ट्रायल के दौरान उठाया जाना चाहिए, न कि डिस्चार्ज एप्लीकेशन के स्तर पर, सुप्रीम कोर्ट का फैसला

LiveLaw News Network

29 Sep 2019 3:05 PM GMT

  • मुकदमे की मंजूरी की अवैधता का सवाल ट्रायल के दौरान उठाया जाना चाहिए, न कि डिस्चार्ज एप्लीकेशन के स्तर पर, सुप्रीम कोर्ट का फैसला

    "इसमें कोई संदेह नहीं कि मुकदमे की मंजूरी नहीं दिये जाने का शुरू में ही विरोध किया जा सकता है, लेकिन मंजूरी की अवैधता का मामला सुनवाई के दौरान उठाया जा सकता है।"

    सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि यद्यपि मुकदमे की मंजूरी नहीं लिये जाने का मामला डिस्चार्ज एप्लीकेशन (आरोपमुक्त करने संबंधी अर्जी) के स्तर पर उठाया जा सकता है, लेकिन मंजूरी की अवैधता का मामला सुनवाई के दौरान ही उठाया जाना चाहिए। इस मामले में विशेष अदालत और बॉम्बे हाईकोर्ट ने आरोपी की डिस्चार्ज अर्जी मंजूर करते हुए कहा था कि मुकदमे की मंजूरी कानून के दायरे में नहीं ली गयी थी।

    केंद्रीय जांच ब्यूरो ने 'सीबीआई बनाम प्रमिला वीरेन्द्र कुमार अग्रवाल' मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करके कहा था कि मुकदमे की मंजूरी की वैधता का मामला केवल मुकदमे की सुनवाई के दौरान ही उठाया जा सकता है, न कि डिस्चार्ज एप्लीकेशन के स्तर पर।

    सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को बताया त्रुटिपूर्ण

    न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना की पीठ ने सीबीआई की दलीलों पर सहमति जताते हुए कहा कि मुकदमे की मंजूरी की वैधता के मामले पर ट्रायल के दौरान विचार किया जाना चाहिए था। हाईकोर्ट का निष्कर्ष दोषपूर्ण मंजूरी के संबंध में है। हाईकोर्ट का यह कहना है कि स्पष्टीकरण के लिए अवसर दिये जाने की प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप यह मंजूरी दोषपूर्ण साबित हुई।

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

    "इस संदर्भ में, दिनेश कुमार बनाम चेयरमैन, भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (2012) के मामले में दिये गये फैसले के हवाले से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल द्वारा दी गयी दलीलें प्रासंगिक होंगी, जिसमें व्यवस्था दी गयी है कि मंजूरी की गैर-मौजूदगी और अवैध मंजूरी में अंतर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुकदमे की मंजूरी न मिलने का मामला शुरू में ही उठाया जा सकता है, लेकिन अवैध मंजूरी का मामला ट्रायल के दौरान उठाया जाता है। इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि अभियुक्त मंजूरी दिये जाने के तरीके में खामियां ढूंढ रहा है, ताकि वह यह साबित कर सके कि मंजूरी अवैध तरीके से ली गयी, जबकि यह मामला ट्रायल के दौरान विचार करने योग्य है।"

    इस मामले में उच्च न्यायालय ने कहा था कि जांच के दौरान पुलिस के समक्ष अभियुक्त का दर्ज बयान स्वीकार्य नहीं है और जांच के दौरान अपनायी गयी प्रक्रिया दोषपूर्ण थी। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि यदि अभियुक्त बयान से मुकरता है और आरोप निर्धारित करने के लिए कोई भी साक्ष्य रिकॉर्ड में उपलब्ध नहीं है तो इस मामले को ट्रायल के दौरान ही उठाया जाना चाहिए।



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