नियोक्ता किसी कर्मचारी के कार्यों के कारण हुए नुकसान की वसूली करने का हकदार : इलाहबाद हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

10 Sep 2019 11:09 AM GMT

  • नियोक्ता किसी कर्मचारी के कार्यों  के कारण हुए नुकसान की वसूली करने का हकदार : इलाहबाद  हाईकोर्ट

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक पूर्ण पीठ ने यह माना है कि कर्मचारी सेवा विनियम (Employees' Service Regulations) में एक विशिष्ट उपाय की गैरमौजूदगी में एक नियोक्ता (employer) किसी कर्मचारी के कार्यों के कारण हुए नुकसान की वसूली के लिए सिविल दायित्व/सिविल देयता (civil liability) का आह्वान कर सकता है।

    जस्टिस सुधीर अग्रवाल, मनोज मिश्रा, और राजेंद्र कुमार-चतुर्थ (IV) की बेंच, U.P. Co-Operative Societies Employees Service Regulations, 1975 (Regulations 1975) के विनियमन 84 एवं U.P. Co-operative Federation Limited Karmchari Seva Niyamawali, 1980 (Rules 1980) के नियम 83 के बीच विसंगतियों को लेकर सुनवाई कर रही थी।

    जहाँ रेगुलेशन 1975 के विनियमन 84 में सक्षम प्राधिकारी को यह शक्ति दी गयी है कि वह उसमें निर्धारित दंडों में से किसी एक को लागू कर सकता है, वहीँ दूसरी ओर रेगुलेशन 1980 के नियम 83 में यह कहा गया है कि निर्धारित दंडों में से "किसी एक या अधिक" को लागू किया जा सकता है।

    इस मामले की पृष्ठभूमि में, अपीलकर्ता पंचम राम यादव, प्रतिवादी/उत्तरदाता, यू.पी. को-ऑपरेटिव फेडरेशन लिमिटेड के लिए स्टोरकीपर के तौर पर कार्य कर रहा था। अपीलकर्ता को उत्तरदाता द्वारा सेवा से, गोदाम में चोरी हो जाने के चलते (जहां अपीलकर्ता तैनात था) बर्खास्त कर दिया गया था और यह पाया गया था कि चोरों द्वारा गोदाम के ताले नहीं तोड़े गए थे। बर्खास्तगी के अलावा, उत्तरदाता/प्रतिवादी ने अपीलार्थी से Rs. 2,69,130.14 रुपये की वसूली के समबन्ध में एक आदेश पारित किया।

    बर्खास्तगी और वसूली के उपरोक्त आदेश का अपीलकर्ता द्वारा विरोध किया गया था, जिसके तहत प्रथम दृष्टया अदालत ने अपीलार्थी के इस तर्क को खारिज कर दिया कि रेगुलेशन 1975 के विनियमन 84 के मद्देनजर 2 दंड नहीं दिए जा सकते थे।

    अदालत ने सत्य नारायण मिश्रा बनाम प्रबंध निदशक और अन्य 2002 (1) AWC 582 के मामले पर भरोसा किया, जिसमें यह कहा गया था कि "उस मामले में जहाँ बैंक कर्मचारी, राशि का गबन करता हुआ पाया जाता है, तो सार्वजनिक नीति यह मांग करती है कि उसे विभागीय प्राधिकारी द्वारा दी गई सजा के अलावा, उस कर्मचारी को, बैंक को हुई आर्थिक क्षति के लिए भी जिम्मेदार ठहराया जाए। यदि किसी कर्मचारी को केवल एक दंड के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है, तो यह गलत तरीके से या बड़ी राशि का गबन करने और इस तरह के दुरुपयोग या गबन करने के बाद दायित्व से बचने का एक प्रोत्साहन बन सकता है।"

    इसके बाद, अपील "पंचम राम यादव बनाम द यू.पी. को-ऑपरेटिव फेडरेशन लि." को उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ के समक्ष अधिवक्ता चंदन कुमार के माध्यम से दायर किया गया था, जिसने इस मामले को पूर्ण पीठ को भेजा था।

    परिणाम

    अदालत ने कहा कि 2 प्रावधानों के बीच, उनकी भाषा में स्पष्ट विरोधाभास को देखते हुए, सांमजस्यपूर्ण अर्थान्वयन (harmonious construction) किया जाना संभव नहीं था। "जब क़ानून विशिष्ट और स्पष्ट है, तो कोई कारण नहीं बनता है कि अदालत को casus omissus प्रदान करना चाहिए और उसमें कुछ ऐसा पढ़ना चाहिए, जिसे सक्षम प्राधिकारी ने नहीं करना चुना है", उन्होंने कहा।

    इस प्रकार, यह निर्णय लिया गया कि 2 में से केवल 1 ही प्रावधान को लागू किया जा सकता है, इसलिए वीरेंद्र कुमार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य 2015 (7) ADJ 19, के मद्देनजर रेगुलेशन 1975 के विनियमन 84 को वरीयता दी गयी, जहां यह आयोजित किया गया था कि रेगुलेशन 1980, रेगुलेशन 1975 के अधीनस्थ थे, क्योंकि उन्हें रेगुलेशन 1975 के विनियमन 102 के तहत बनाया गया था।

    "इस तरह के रेगुलेशन को रेगुलेशन 1975 के अधीन माना जायेगा और और उन्हें रेगुलेशन 1975 में निहित विशिष्ट प्रावधानों से परे जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है," पीठ ने कहा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले, राज्य सहकारी भूमि विकास बैंक लिमिटेड बनाम चन्द्र भान दुबे एवं अन्य (1999) 1 एससीसी 741 पर भी भरोसा किया गया।

    दिलचस्प बात यह है कि सत्य नारायण मिश्रा बनाम प्रबंध निदेशक और अन्य के फैसले को रद्द किया गया, हालाँकि, यह निर्धारित किया गया कि एकल न्यायाधीश द्वारा दिया गया तर्क उचित था। इस संबंध में, अदालत ने कहा,

    "... इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि एक कर्मचारी, अगर सार्वजनिक धन के गबन के गंभीर कदाचार का दोषी पाया जाता है, तो उसकी रैंक में कमी या उसकी बर्खास्तगी या उसे हटाने का प्रमुख दंड लगाया जाना चाहिए, लेकिन, इसके साथ ही, यदि इस तरह के कदाचार से नियोक्ता को नुकसान हुआ है, तो किसी को कोई संदेह नहीं हो सकता है कि वसूली की सजा उस कर्मचारी पर भी लागू होनी चाहिए ताकि ऐसे कर्मचारी, नियोक्ता को कदाचार के चलते हुए नुकसान को लौटाए बिना बच कर न निकल सकें। यह बहुत साफ़ है और इसे प्रभाव दिया जाना चाहिए ..."

    स दृष्टि से न्यायालय ने सुझाव दिया कि रेगुलेशन 1975 के तहत बर्खास्तगी की सजा बरकरार रखी जा सकती है और धन की वसूली, कुछ अन्य प्रावधानों के तहत की जा सकती है। "विभागीय जाँच के आधार पर, एक बार यह स्थापित हो जाने पर कि किसी कर्मचारी ने नियोक्ता को कुछ नुकसान पहुँचाया है, हमारे विचार में, ऐसे कर्मचारी की सिविल देयता (civil liability) बन जाएगी, जिससे नियोक्ता को होने वाले नुकसान का की पूर्ती हो सकेगी या नियोक्ता ऐसी राशि का भुगतान करने के लिए कर्मचारी को कह सकता है, यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो नियोक्ता किसी अन्य कानूनी तरीके से वसूली के लिए आगे बढ़ सकता है।

    ... हम यह स्पष्ट करते हैं कि एक बार जब सार्वजनिक धन की निकासी या नियोक्ता को हुआ नुकसान साबित हो जाता है और यह राशि निर्धारित हो जाती है, तो ऐसी राशि, नियोक्ता के सापेक्ष कर्मचारी की सिविल देयता बन जाती है। चूंकि यह नियोक्ता के व्यवसाय से सम्बंधित है, इसलिए कर्मचारी से उक्त राशि प्राप्त करने के लिए संबंधित सहकारी समितियों के पास अन्य उपाय भी उपलब्ध हैं।"

    पीठ ने सक्षम प्राधिकारी से यह अनुरोध भी किया कि वह जल्द से जल्द विनियमन 84 में संशोधन करें जिससे "सजा के संबंध में रेगुलेशन 1975 के विनियमन 84 के प्रारूपण में खामी के चलते रेगुलेशन 1975 द्वारा शासित सहकारी समितियों के लिए होने वाली किसी भी हानिकारक स्थिति से बचा जा सके।"

    उत्तरदाता का प्रतिनिधित्व, अधिवक्ता राम गोपाल त्रिपाठी और वी. सी. त्रिपाठी ने किया।



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