न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई सिर्फ़ इसलिए नहीं होने चाहिएं कि उसने ग़लत फ़ैसला दिया : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

4 Oct 2019 2:04 PM GMT

  • न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई सिर्फ़ इसलिए नहीं होने चाहिएं कि उसने ग़लत फ़ैसला दिया  : सुप्रीम कोर्ट

    "ग़लती करना मानव का स्वभाव है, और हमें से एक भी, जो न्यायिक अधिकारी के पद पर रहे हैं, यह दावा नहीं कर सकते कि हमने कभी एक भी ग़लत आदेश नहीं दिया"।

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी न्यायिक अधिकारी के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई सिर्फ़ इसलिए नहीं शुरू की जानी चाहिए क्योंकि उसने ग़लत फ़ैसला दिया है या पास किया गया न्यायिक आदेश ग़लत था।

    ग़लती करना मानव का स्वभाव है, और हमें से एक भी, जो न्यायिक अधिकारी के पद पर रहे हैं, यह दावा नहीं कर सकते कि हमने कभी एक भी ग़लत आदेश नहीं दिया।

    अदालत ने कहा कि न्यायिक अधिकारी के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई तब तक नहीं की जानी चाहिए जब तक कि इस बात का साक्ष्य नहीं हो कि ग़लत आदेश किसी बाहरी कारण से दिया गया था न कि उस कारण से जिसका फ़ाइल में ज़िक्र किया गया है।

    लापरवाही को दुर्व्यवहार नहीं माना जा सकता

    कृष्ण प्रसाद वर्मा के ख़िलाफ़ एक आरोप यह था कि उन्होंने हाईकोर्ट के आदेश पर ध्यान नहीं दिया जिसमें हाईकोर्ट ने एक आरोपी की ज़मानत याचिका को ख़ारिज कर दिया था। संगत तथ्यों की पड़ताल करते हुए पीठ ने कहा,

    "अधिकारी इस अर्थ में लापरवाही का दोषी हो सकता है कि वह केस की फ़ाइल को ठीक से नहीं देखा और उस फ़ाइल में हाईकोर्ट के आदेश पर ग़ौर नहीं किया। इस लापरवाही को दुर्व्यवहार नहीं माना जा सकता। यह बताना ज़रूरी होगा कि जाँच अधिकारी को इस बात का पता नहीं चला है कि ज़मानत देने के पीछे कोई बाहरी कारण मौजूद है…।" अदालत ने आगे कहा कि जज ने बाद में हाईकोर्ट के आदेश को देखते हुए ज़मानत रद्द कर दी।

    न्यायिक अधिकारी के ख़िलाफ़ एक अन्य आरोप यह था कि एनडीपीएस मामले में उन्होंने अभियोजन को 10 गवाहों की पेशी के लिए 18 स्थगन दिए। अदालत ने इस पर कहा,

    "इस तरह के न्यायिक अधिकार इधर खाई और उधर कुआँ वाली स्थिति में होते हैं। अगर वह स्थगन देता रहता है तो हाईकोर्ट उसके ख़िलाफ़ इस आधार पर कार्रवाई करता है कि वह सक्षमता से मामलों को नहीं निपटाता और अगर वह साक्ष्य को बंद कर दे तो हाईकोर्ट उसे दोषी को छोड़ देने के आधार पर उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करता है। संविधान के अनुच्छेद 235 का उद्देश्य यह नहीं है। यही कारण है कि हम दुबारा इस बात को कह रहे हैं कि प्रशासनिक क्षेत्र में हाईकोर्ट का एक दायित्व यह है कि ज़िला न्यायालय की आज़ादी को बरक़रार रखा जाए और हाईकोर्ट उसके अभिभावक के रूप में पेश आए।"

    सिर्फ़ इस आधार पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई न हो कि न्यायिक आदेश ग़लत है।

    अपील स्वीकार करते हुए अदालत ने कहा,

    "हम यह स्पष्ट करना चाहेंगे कि हम किसी भी तरीक़े से यह संकेत नहीं दे रहे हैं कि अगर कोई न्यायिक अधिकारी अगर ग़लत आदेश देता है तो उसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जाए। अगर कोई न्यायिक अधिकारी ऐसा आदेश देता है जो स्थापित न्यायिक नियमों के ख़िलाफ़ है पर इस फ़ैसले के पीछे किसी बाहरी प्रभाव का कोई आरोप नहीं है तो अगर हाईकोर्ट को चाहिए कि वह प्रशासनिक पक्ष के लिए इस तरह के साक्ष्यों को संबंधित न्यायिक अधिकारी के सर्विस रेकर्ड में रखे। संबंधित जज की प्रोन्नति के समय में उसके सर्विस रेकर्ड के रूप में इस तरह की बातों पर ग़ौर किया जा सकता है।

    एक बार जब ग़लत फ़ैसले पर ग़ौर कर लिया जाता है और वह सर्विस रेकर्ड का हिस्सा बन जाता है तो संबंधित अधिकारी को सिलेक्शन ग्रेड, प्रमोशन आदि नहीं देने में इसका प्रयोग किया जा सकता है और अगर इस तरह की ग़लतियाँ लगातार हो रही हैं तो उचित कार्रवाई होगी ऐसे अधिकारी को नियमानुसार अनिवार्य रूप से रिटायर कर देना…। "



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