क्या कहता है अधिवक्ता अधिनियम 1961, जानिए खास बातें
LiveLaw News Network
8 Dec 2019 12:57 PM IST
शादाब सलीम
वकीलों की हड़ताल अधिकांश अधिवक्ता अधिनियम (एडवोकेट प्रोटेक्शन एक्ट) की मांग को लेकर होती है। एडवोकेट प्रोटेक्शन एक्ट की अपनी पृथक मांगें है लेकिन भारतीय संसद ने वकीलों से संबंधित एक अधिनियम बना रखा है जिसे अधिवक्ता अधिनियम 1961 के नाम से जाना जाता है। इस अधिनियम का विस्तार संपूर्ण भारत पर है।
क्या है अधिवक्ता अधिनियम 1961-
यह अधिनियम भारतीय विधि व्यवसायियों के लिए बनाया गया है। यह भारतीय वकीलों के लिए एक संपूर्ण सहिंताबद्ध विधि है जो समस्त भारत के वकीलों का निर्धारण करता है। यह अधिनियम वकीलों के पंजीकरण से लेकर अधिवक्ता प्रेक्टिस, सर्टिफिकेट निरस्तीकरण और अपील तक के संबंध में नियम प्रस्तुत करता है।
इस अधिनियम में 60 धाराओं और कई उपधाराओं के अंर्तगत वकीलों के अधिकार तय किये गए है एवं कुछ कर्तव्य भी वकीलों पर अधिरोपित किये गए है तथा कुछ प्रावधान आम जनता को भी वकीलों के विरुद्ध कार्यवाही के अधिकार प्रदान करते है। यह समस्त अधिनियम भारतीय संविधान के अंतर्गत बनाया गया है जो आम भारतीय जनमानस से लेकर अधिवक्ता तक के अधिकारों एवं दायित्वों का निगमन करने के प्रयास कर रहा है।
अधिवक्ता कौन है-
अधिवक्ता अधिनियम की धारा 2 (1) के अंर्तगत किसी नामावली में दर्ज अधिवक्ता को अधिवक्ता माना जाता है। किसी राज्य की राज्य विधिज्ञ परिषद में दर्ज़ नाम होने पर व्यक्ति को अधिवक्ता माना जाएगा। राज्य विधिज्ञ परिषद में नाम दर्ज होने के लिए कुछ अर्हताएं भी रखी गयी हैं, जिनमे कुछ विशेष निम्न हैं-
अधिनियम की धारा 24 के अंर्तगत अर्हताओं में व्यक्ति भारत का नागरिक हो।
कोई विदेशी तब ही अधिवक्ता अधिनियम में नाम दर्ज करवाने के लिए योग्य होगा जब उस विदेशी के देश में भारत के नागरिक को विधि व्यवसाय करने का अधिकार होगा।
उसने इक्कीस वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
उसने भारत के राज्यक्षेत्र के किसी विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि अर्जित की हो।
वह व्यक्ति वह सभी शर्तें पूरी करता हो जो राज्य विधिज्ञ परिषद ने अधिवक्ता के लिए बनाये वियमों में विनिर्दिष्ट की है।
अधिवक्ता के लिए निरर्हता-
व्यक्ति नैतिक अधमता से संबंधित अपराध के लिए सिद्धदोष नहीं ठहराया गया हो।
व्यक्ति छुआछूत से संबंधित किसी आपराधिक कानून में सिद्धदोष नहीं ठहराया गया हो।
व्यक्ति किसी नैतिक अधमता के आरोप में किसी राज्य के सरकारी पद से पदच्युत नहीं किया गया हो।
भारतीय विधिज्ञ परिषद-
अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 4 के अंतर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद का गठन किया जाता है। यह धारा बहुत महत्वपूर्ण धारा है जो समस्त भारत में अधिवक्ताओं के निगमन के लिए एक परिषद का गठन करती है। इस परिषद के अपने अधिकार एवं शक्तियां है।भारतीय विधिज्ञ परिषद के अंर्तगत अनुशासन समिति भी बनायी जाती है जो एक न्यायालय की संपूर्ण शक्तियां रखती है जैसे-
किसी भी व्यक्ति को समन करना और एवं उसे हाजिर कराना एवं शपथ पर उसकी परीक्षा कराना।
किन्हीं दस्तावेजों को पेश कराने की अपेक्षा करना।
शपथपत्र पर सबूत लेना।
किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक अभिलेख की प्रतिलिपि प्राप्त करने की अपेक्षा करना।
भारतीय विधिज्ञ परिषद के अंतर्गत ही समस्त भारत के राज्यक्षेत्रों के लिए राज्य विधिज्ञ परिषद का गठन किया जाता है।
भारतीय विधिज्ञ परिषद के सदस्य-
अधिनियम की धारा 4 सदस्यों का भी वर्णन करती है,धारा के अंतर्गत निम्न लोगो को परिषद का सदस्य बताया गया है-
1 भारत का महान्यायवादी पदेन
2 भारत का महा सॉलिसिटर पदेन
3 प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद के सदस्यों में से निर्वाचित सदस्य।
राज्य विधिज्ञ परिषद-
अधिनियम की धारा 3 राज्य विधिज्ञ परिषदों का गठन करती है। यह धारा भारत के समस्त राज्य क्षेत्रो का उल्लेख करती है जिन राज्यो में विधिज्ञ परिषद का गठन किया जाएगा।यह परिषद अधिवक्ता की सूची मैंटेन करती है तथा नवीन अधिवक्ता का नामांकन करती है।यह अपने रजिस्टर के माध्यम से अधिवक्ता नामांकन का रख रखाव करती है।इसे परिषद के संबंध में नियम बनाने की शक्तियां प्राप्त है।
अनुशासन समितियां-
अधिनियम के अंतर्गत ही अनुशासन समिति का गठन किया गया है।यह समितियां वकीलों की निगरानी का कार्य करती है।कोई भी व्यक्ति इन समितियों को वकीलों की शिकायत कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय में वकीलों के निम्न दुराचार को शिकायत योग्य माना गया है-
1. बिना उचित प्रमाण पत्र के विधि व्यवसाय करना।
2. न्यायालय में बिना उचित कारण अनुपस्थित होना और प्रकरण को स्थगित करना।
3. मामले के विषय में मवक्किल के निर्देश के बिना कार्यवाही करना।
4. कूटरचित शपत पत्र अथवा दस्तावेज प्रस्तुत करना और शपथ अधिनियम 1969 में दिये गये वैधानीक कर्त्तव्य की अवहेलना करना। (ए.आई.आर. 1985 सुप्रीम कोर्ट 287)
5. अधिवक्ता द्वारा बार-बार न्यायालय की अवमानना करना।
6. न्यायाधीश से अपने संबधों की जानकारी देकर मुवक्किल से राशि वसूल करना।
7. न्यास भंग करना।
8. अपने मुवक्किल को नुकसान पहुंचाने का कृत्य करना।
9. विधि व्यवसाय के साथ अन्य व्यवसाय करना।
10. मामले से संबंधित प्रापर्टी का क्रय करना।
11. लीगल एड प्रकरणों में फीस की मांग करना।
12. मामले से संबंधित सच्चाई को छुपाना।
13. वकालत नामा प्रस्तुत करने के पूर्व तय की गई फीस के अतिरिक्त फीस की मांग करना और न्यायालय के आदेश पर प्राप्त रकम में शेयर की मांग करना।
14. लोकपद का दुरूपयोग करना।
15. मुवक्किल से न्यायालय में जमा करने हेतु प्राप्त रकम जमा न करना।
16. रिकार्ड एवं साक्ष्य को बिगाड़ना एवं साथी को तोड़ना।
17. मुवक्किल द्वारा अपनी केस फाईल वापस मांगने पर फाईल वापस न करना और फीस की मांग करना (सुप्रीम कोर्ट 2000(1) मनिसा नोट 27 पेज 183 सुप्रीम कोर्ट)
18. अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 24 के अंर्तगत अपात्र व्यक्ति द्वारा विधि व्यवसाय करना।(ए.आई.आर. 1997 सुप्रीम कोर्ट 864)
अपील
अनुशासन समिति के निर्णय को भारतीय विधिज्ञ परिषद में अपील किया जा सकता है। राज्य विधिज्ञ परिषद की समिति के निर्णय से आहत व्यक्ति भारतीय विधिज्ञ परिषद को निर्णय की संसूचना से साठ दिन के भीतर अपील कर सकता है।भारतीय विधिज्ञ परिषद के निर्णय से व्यथित व्यक्ति भारत के सर्वोच्च न्यायालय में संसूचना से साठ दिन के भीतर अपील कर सकता है।
कोई अन्य व्यक्ति विधि व्यवसाय नहीं कर सकता-
अधिनियम की धारा 33 के अंर्तगत केवल अधिवक्ता ही विधि व्यवसाय करने के हकदार होंगे, अधिवक्ता से कोई अन्य व्यक्ति विधि व्यवसाय नहीं कर सकता।
अधिवक्ता भारत के किसी भी न्यायालय, प्राधिकरण, या व्यक्ति के समक्ष प्रेक्टिस कर सकता है जो साक्ष्य लेने का अधिकार रखता है।
कोई व्यक्ति अधिवक्ता नहीं है तो वह न्यायालय के आदेश पर केवल ख़ुद के मामले की पैरवी कर सकता है परन्तु विधि व्यवसाय नहीं कर सकता।
अधिवक्ता न्यायलय की महत्वपूर्ण कड़ी है और वह न्यायतंत्र में महत्वपूर्ण भागीदारी रखता है। यदि उसे भारत की न्यायपालिका का हिस्सा भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि एक व्यवस्थित और गहन विधान में हर कोई व्यक्ति न्यायालय की कार्यवाही संचालित नहीं कर सकता है,इस कार्य को कोई प्रोफेशनल व्यक्ति ही कर सकता है जो इस कार्य से संबंधित मामलों में पूरी तरह निपुण हो।