चुनाव अभियान में धर्म-जाति को लाने वाले दलों के खिलाफ कार्रवाई की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया

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8 April 2019 12:22 PM GMT

  • चुनाव अभियान में धर्म-जाति को लाने वाले दलों के खिलाफ कार्रवाई की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया

    सुप्रीम कोर्ट उस याचिका का परीक्षण करने के लिए सहमत हो गया है जिसमें राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं को भी जनप्रतिनिधि अधिनियम और चुनावी आचार संहिता के दायरे में लाने का अनुरोध किया गया है।

    सोमवार को याचिका पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर उनकी ओर से जवाब मांगा है।

    सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता हरप्रीत मनसुखानी की ओर से पेश वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने पीठ के समक्ष कहा कि यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना चाहिए। तब पीठ ने कहा कि चुनाव आयोग इस मामले में अपना रुख कोर्ट को बताए।

    दरअसल हरप्रीत मनसुखानी ने याचिका दाखिल कर कहा है कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं के बयान चुनाव और जनमत को सबसे ज़्यादा प्रभावित करते हैं, लेकिन वो न तो जनप्रतिनिधि अधिनियम के तहत जवाबदेह हैं और ना ही चुनाव आचार संहिता के तहत। इसका मतलब ये है कि वो पार्टियों के लिए कोई भी बयान दे सकते हैं।

    याचिका के मुताबिक जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 में भ्रष्टाचार मुक्त चुनाव सुनिश्चित करने की पर्याप्त क्षमता नहीं है। तर्क दिया गया है कि राजनीतिक दलों के प्रवक्ता/मीडिया प्रतिनिधि/अन्य राजनेता जो चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, वे टीवी चैनलों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जाति या धर्म के आधार पर घृणास्पद भाषणों का उपयोग करते हैं और वे सभी कार्यों से आसानी से बच निकलते हैं।

    "चुनाव की शुद्धता के लिए भारतीय संविधान के तहत वादा किये गए धर्मनिर्रपेक्ष लोकतंत्र की अवधारणा एक लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए अनिवार्य है। यह चुनाव और अन्य विधायी निकायों को अस्वस्थ भ्रष्ट प्रथाओं से मुक्त रखने के लिए आवश्यक है। धर्म, जाति, समुदाय या भाषा पर अपील का प्रभाव किसी देश और उसके संविधान पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकता है। जाति और धर्म के बुरे प्रभावों के माध्यम से भारत में चुनाव 'फूट डालो और राज करो' नीति के बुरे प्रभाव में बदल रहे हैं। राजनीति सांप्रदायिकता का कारण बन गया है, जो देश के भीतर और बाहर के बलों से लोगों की सुरक्षा के लिए एक प्रमुख चिंता का विषय है। सांप्रदायिकता और जाति आधारित राजनीति ने सभी बाधाओं को पार कर लिया है, जिसके परिणामस्वरूप एक अज्ञात खतरनाक स्थिति पैदा हो सकती है", याचिका में कहा गया है।

    याचिकाकर्ता ने मीडिया हाउसों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का भी आग्रह किया है जो अपनी बहस के शो के लिए जाति या धार्मिक लाइनों का उपयोग करते हैं। याचिका में कहा गया है कि सांप्रदायिक भाषण या जातिगत टिप्पणी को अगर चुनाव प्रचार में किसी भी तरह की छूट दी जाएगी तो लोकतांत्रिक जीवन के धर्मनिरपेक्ष माहौल को खतरा होगा।

    इसके अलावा राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं के बयान चुनाव और जनमत को सबसे ज़्यादा प्रभावित करते हैं, लेकिन वो न तो जनप्रतिनिधि अधिनियम के तहत जवाबदेह हैं और ना ही चुनाव आचार संहिता के तहत। इसका मतलब ये है कि वो पार्टियों के लिए कोई भी बयान दे सकते हैं।

    याचिका में आगे मांग की गई है कि, ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत जज की अध्यक्षता में समिति बननी चाहिए जो इस संबंध में विस्तृत गाइडलाइन तैयार करें और पीठ चुनाव आयोग को पार्टियों के प्रवक्ताओं को भी जनप्रतिनिधि अधिनियम और आचार संहिता के अंतर्गत लाने के निर्देश जारी करे।

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