शमनाद बशीर स्मृति व्याख्यान : भेदभाव के तीन लक्षण

सुरभि करवा

27 Jan 2023 5:39 AM GMT

  • शमनाद बशीर स्मृति व्याख्यान : भेदभाव के तीन लक्षण

    सोशियो लीगल लिटरेरी द्वारा तृतीय शमनाद बशीर मेमोरियल लेक्चर का आयोजन जोधपुर में हुआ। इस अवसर पर राजस्थान हाईकोर्ट के वकील भीम जी और एडवोकेट सुरभि करवा ने जोधपुर की सिविल सोसाइटी के सदस्यों और लॉ स्टूडेंट्स ने हिस्सा लिया।

    एडवोकेट सुरभि करवा ने इस पर ज़ोर दिया कि किस प्रकार जोधपुर में भी ऐसी संस्थाएं है जो संविधान और बराबरी के मुद्दों पर काम कर रही हैं। जाति आधारित भेदभाव के विरुद्ध काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी ने हाल ही में अपने एक इंटरव्यू में यह चर्चा की थी कि हमारे राजस्थान में किस हद तक गैर-बराबरी हमारे दैनिक जीवन और भाषा का हिस्सा है। कई दैनिक शब्द हैं जो एक सामंतवादी सोच को दर्शाते हैं।

    भेदभाव के तीन लक्षण

    एडवोकेट सुरभि ने शमनाद बशीर के बारे में बात करते हुए भेदभाव के तीन लक्षण बताए।

    उन्होंने कहा,

    " मुझे शमनाद बशीर से मिलने का मौका नहीं मिला । मैंने बस उनके बारे में लोगों से सुना, लेखों में पढ़ा । उन्होंने IDIA जैसी संस्था बनाई ताकि नेशनल लॉ कॉलेजों में पिछड़े तबके के लोगों को भी बराबर का मौका मिल सके। भेदभाव के मुद्दे पर उन्होंने बहुत काम किया और इसीलिए आज मेरे व्याख्यान का विषय भी भेदभाव और उसके लक्षणों पर है।

    एडवोकेट सुरभि ने कहा कि हमें अकसर लगता है कि आज भेदभाव कहां है? आजकल कोई खुलकर यह नहीं कह सकता कि हम महिलाओं, दलितों को नौकरी नहीं देंगे। हालांकि ये सच नहीं है, आज भी कई नौकरियां, संस्थाएं है जो दलितों, महिलाओं, या अलग-अलग धर्म के लोगों को अपने यहां नहीं चुनते। खैर, फिर भी हमें लगता है कि अब भेदभाव कहां है, अब जातिवाद कहां है, लेकिन ऐसा सोचने में हम ये अकसर भूल जाते है कि भेदभाव सिर्फ सरे आम नहीं होता, भेदभाव बहुत महीन रूप में होता है। अदृश्य रूप में और हमें एहसास भी नहीं होता कि हम किसी के साथ गैर-बराबरी का व्यवहार कर रहे है और इसलिए यह जरूरी है कि हम भेदभाव को समझे, ताकि उसे पहचान सके और उसके विरुद्ध बोल सके।

    एडवोकेट सुरभी ने भेदभाव के इन तीन मुख्य लक्षणों पर ज़ोर दिया-

    - पहला, जरूरी नहीं कि भेदभाव प्रत्यक्ष रूप में हो, यह अप्रत्यक्ष रूप में भी हो सकता ।

    - दूसरा, भेदभाव व्यवस्थागत रूप से हो सकता है, यह जरूरी नहीं कि हर बार सामने से स्पष्ट इरादा/ दुर्भावना दिखे ।

    - तीसरा, क्योंकि भेदभाव एक संस्थागत मुद्दा है, इसीलिए यह जरूरी है कि बराबरी की हमारी समझ भी संस्थागत समाधानों को शामिल करें। मात्र फॉर्मल या कागज़ी बराबरी पर्याप्त नहीं है ।

    एडवोकेट सुरभी ने भेदभाव के इन तीन मुख्य लक्षणों को इस प्रकार समझाया।

    उन्होंने कहा,

    अप्रत्यक्ष भेदभाव (Indirect Discrimination‌‌)

    1970 में, एक अमेरिकी पावर कंपनी, Duke Power Company ने अपने कर्मचारियों के प्रमोशन, बेहतर वेतन, और अन्य सुविधाओं के लिए एक शर्त रखी: यह कि सभी कर्मचारी हाई स्कूल पास होने का डिप्लोमा पेश करें। देखने में हाई स्कूल डिप्लोमा की शर्त बड़ी सहज लगती है, कुछ बुरी बात नज़र नहीं आती। पर इस शर्त का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ ब्लैक कम्युनिटी को। इस शर्त के चलते ब्लैक कर्मचारी अधिक संख्या में इन नौकरी सम्बन्धी अधिकारों से वंचित हो गए ।

    ऐसे में ब्लैक कम्युनिटी के कर्मचारियों ने अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में समानता के अधिकार के हनन का दावा किया। वहां के सुप्रीम कोर्ट ने उनकी बात को स्वीकारा और घोषित किया कि भले ही डिप्लोमा की शर्त ऊपर से 'neutral' दिखती हो, सभी पर समान रूप से लागू की गयी प्रतीत होती हो पर इसके जो प्रभाव/ 'effect' है वो भेदभाव पूर्ण है।

    गौर कीजिये कि ऐतिहासिक तौर पर इस समुदाय के लोगों को स्कूल जाने, शिक्षा पाने की स्वीकृति नहीं थी। उन्हें सदियों से अमेरिका में शिक्षा से वंचित रखा गया। 1964 के सिविल राइट्स एक्ट से पहले तक अफ्रीकन अमेरिकन कम्युनिटी के खिलाफ कानूनी तौर पर पृथक व्यवहार किया जाता था। जैसे अलग स्कूल, अलग हॉस्पिटल, ट्रैन में अलग डिब्बे और इन अलग स्कूलों में अधिकांशत: शिक्षा की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी। ऐसे में हाई स्कूल डिप्लोमा की शर्त का ज्यादा खामियाजा इस समुदाय को भुगतना पड़ा। यहां ये भी गौर करने की बात है कि इस कंपनी का भेदभाव का बेहद बुरा रिकार्ड भी रहा था।

    यह केस था- Gregg versus Duke Power Company। इस केस में यह बात स्पष्ट हुई कि ऐतिहासिक भेदभाव के चलते एकसमान दिखने वाली नीतियों के गैर-बराबर या भेदभावपूर्ण परिणाम हो सकते है। यानी भेदभाव सिर्फ साफ़ तौर पर नहीं किया जा सकता पर वह छुपा कर, indirect तरीके से भी किया जा सकता है।

    मैंने आपको अमेरिका के केस का उदाहरण दिया पर ऐसे उदाहरण भारत में भी देखने को मिलते है। आपको याद होगा कि हाल ही में राजस्थान, हरियाणा आदि राज्यों ने पंचायती राज के सन्दर्भ में कुछ नए नियम लाये हैं। इन नियमों के अनुसार कुछ शर्तें है जिन्हें बिना पूरी किए आप सरपंच के चुनाव नहीं लड़ सकते। ये शर्तें है कि- आपके घर में टॉयलेट होना चाहिए, आपने दसवीं तक पढ़ाई की होनी चाहिए। दो से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिए। कुछ लोगों को ये शर्त ठीक न लगे। कोर्ट का भी यही कहना था कि इन नियमों से जनसंख्या नियंत्रण होगा, लोग शिक्षा के लिए प्रेरित होंगे । पर यह एक गलत फैसला था।

    गौर से देखिये कि इन शर्तों का सबसे अधिक बुरा प्रभाव किन पर पड़ेगा? महिलाओं और दलितों पर । ऐतिहासिक तौर पर और आज की स्थिति में भी, महिलाओं और दलितों को अधिक संख्या में शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया है । यानी महिलाओं और दलितों को राजनीतिक हिस्सेदारी से, चुनाव लड़ने के अधिकार से इस आधार पर वंचित रखा जा रहा है जिसमें उनकी कोई गलती ही है। यह तो double punishment, दो बार सजा वाली बात हो गयी- एक तो उन्हें बचपन में पढ़ने नहीं दिया गया, शादी करवा दी गयी या मजदूर बना दिया गया, और दूसरा, अब, उस बात के लिए उन्हें राजनीति में भाग लेने से भी रोका जा रहा है।

    संक्षेप में भेदभाव दिखा कर सामने से हो ऐसा जरूरी नहीं, वह बहुत महीन तरीकों से हो सकता है। अगर हम अप्रत्यक्ष भेदभाव को भेदभाव नहीं मानते है तो सरकारें कानून 'neutral' लगने वाले शब्दों में बनाकर भेदभाव करना जारी रखेंगी। इसलिए यह जरूरी है कि हम यह समझे कि किसी नियम का पिछड़े तबके पर क्या प्रभाव पड़ा है।

    संस्थागत भेदभाव (Unintentional/Systemic Discrimination)

    भेदभाव का दूसरा पहलू यह है कि यह जरूरी नहीं कि हम इसे जान बूझ करें। भेदभाव की जब हम बात करते है तो हमें लगता है कि हम तो भेदभाव नहीं करते है, हम तो ‘शांति-प्रिय’ लोग है, हम किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते है। पर भेदभाव ‘intentional’ हो, ऐसा जरूरी नहीं। दरअसल भेदभाव अकसर एक व्यवस्था का नतीजा होता है, जो बिलकुल साधारण तौर पर चलती आयी है, नार्मल हो गयी है। और इसीलिए हम किसी तरह के पूर्वाग्रह के साथ किसी के साथ भेदभाव कर रहे है, हमें पता ही नहीं चलता।

    उदाहरण के तौर अक्सर जब आप किसी को परिचय देते हो तो लोग पूछते है कि अपना पूरा नाम बताओ। हम पूरा नाम क्यों पूछते हैं, ताकि हम जान सके कि सामने वाले की जाति क्या है। दिखने में ये बड़ी छोटी बात लगती है- पूरा नाम पूछ लिया तो क्या गलत कर दिया? पर भेदभाव की खासियत यही है कि वह बेहद छोटी दिखने वाली बातों से ऊंच-नीच, hierarchy को स्थापित करता है तो जब हम किसी से पूरा नाम पूछते है तो हम यह जानना चाहते है कि समाने वाली की जाति क्या है, ताकि हम बचपन से जो हमें सिखाया गया है, वैसे व्यवहार कर सके।

    इसका एक और उदाहरण लेते हैं। आपको बचपन की वह कविता याद होगी- मम्मी की रोटी गोल-गोल, पापा के पैसे गोल-गोल। हमें यह नार्मल सी कविता, नार्मल सी बात लग सकती है। पर अक्सर जिसे हम ‘नार्मल’ मानते है, वह मुख्यधारा के समाज के हाशिये पर धकेले गए समूहों के विरुद्ध गहरे पूर्वाग्रहों को दर्शाता है। इस कविता का सन्देश क्या है? यह कि परिवार सिर्फ वह होता है जिसमें मम्मी और पापा हो, किसी और तरह से परिवार नहीं हो सकता; और दूसरा कि मम्मी का काम है रोटी बनाना और पापा का काम है पैसे कमाना। ऐतिहासिक तौर पर हमारी सामाजिक व्यवस्था इस तरह की रही है कि जिम्मेदारियों का लिंग के आधार पर बँटवारा किया गया है: महिलाओं का स्थान घर में माना जाता है और पुरुषों का ऑफिस में।

    ऐसे में अगर हम आत्म परीक्षण न करें, अपनी भाषा, अपने दैनिक पूर्वाग्रहों से सवाल न करें तो हमें एहसास ही नहीं होगा कि हम भेदभाव पूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। सिर्फ यह मान लेना कि मेरा भेदभाव करने का इरादा नहीं था, पर्याप्त नहीं है। जाने-अनजाने संस्थागत रूप से हम एक व्यवस्था के चलते ऊंच-नीच की सोच रखते हैं और भेदभाव करते हैं। भेदभाव दबे पांव हमारे दिमाग में हमारी सोच में, हमारे actions में रचा बसा है, इसे ही ‘unconscious bias’ कहते हैं।

    यही बात हमारी सरकारी नीतियों, कानूनों पर लागू होती है। उदाहरण के तौर पर, आज भी किसी सरकारी परिचय पत्र, फॉर्म, एप्लीकेशन आदि में पिता का हस्ताक्षर अनिवार्य माना जाता है, मां के हस्ताक्षर पर्याप्त नहीं माने जाते, क्योंकि पिता का बच्चों पर पहला अधिकार माना जाता है, इसीलिए यह जरूरी है कि पुलिस की, न्यायालयों की, टीचर्स की, डॉक्टर्स की, छुपे हुए पूर्वाग्रहों, के विरुद्ध ट्रेनिंग की जाए, जागृति फैलाई जाए।

    ऐसा नहीं है कि बस बातचीत के स्तर या मजाक के स्तर पर इस तरह के पूर्वाग्रह रुक जाए। इनका सीधा-सीधा प्रभाव एक व्यक्ति के अधिकारों पर पड़ता है। उदाहरण के तौर पर- घर देने में भेदभाव। कई शोधों में पाया गया है कि एक दलित, आदिवासी या मुस्लिम व्यक्ति को दिल्ली जैसे शहर में जाति या धर्म के आधार पर मकान किराये पर देने से मना कर दिया जाता है।

    एक उदाहरण और लेते है। भारतीय महिलाओं में हर दूसरी महिला खून की कमी, एनीमिया की शिकार है। हालांकि, मैंने इस पर कोई शोध सीधे तौर पर नहीं पढ़ा है पर यह कहना गलत नहीं होगा कि घरों में खाने-पीने में लड़का लड़की भेदभाव का सीधे पोषण पर प्रभाव पड़ता है।

    संक्षेप में, किसी नीति का intention नहीं, उसका प्रभाव महत्व रखता है ।

    वास्तविक बराबरी का सिद्धांत

    पिछले दो बिन्दुओं का सार यह था कि भेदभाव अप्रत्यक्ष और बिना किसी साफ़ दुर्भावना के हो सकता है। यानी भेदभाव एक संस्थागत मुद्दा है और इसीलिए उससे लड़ने के लिए समाधान भी संस्थागत होने जरूरी है। भेदभाव को मिटाने के लिए यह कह देना कि सब बराबर है, पर्याप्त नहीं है। अगर भेदभाव छुपा हुआ हो सकता है, व्यवस्थागत हो सकता है तो समाधान भी मात्र पेपर पर नहीं हो सकते। सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को ध्यान में रख कर राज्य को स्वयं आगे बढ़ कर एक्शन लेने होंगे।

    वास्तविक बराबरी की इसी अवधारणा स्पष्ट करते हुए संवैधानिक स्कॉलर सांड्रा फ्रेडमन ने बराबरी के चार आयाम स्थापित किये हैं-

    - पहला, राजनीतिक भागीदारिता,

    - दूसरा, पूर्वाग्रहों को समाप्त करना,

    - तीसरा, सामाजिक समावेशिता,

    - चौथा, संस्थागत परिवर्तन।

    पूर्णरूपेण समानता की प्राप्ति के लिए इन चारों क्षेत्रों में बराबरी सुनिश्चित करनी होगी।

    उदाहरण के तौर पर प्रतियोगी परीक्षाओं के सन्दर्भ में अकसर यह माना जाता है कि हम मात्र अपने टैलेंट और मेहनत से उनमें सफल होते है पर दरअसल जीवन में हमारी सफलता का सीधा सम्बन्ध हमारी सामाजिक आर्थिक स्थितियों से है। जैसे CLAT को लेते हैं। उसे पास करने के लिए इंग्लिश की आवश्यकता है, आर्थिक साधनों की जरूरत पड़ती है ताकि तैयारी के लिए किताबें खरीद सकें। दाखिला हो जाने के बाद भी स्कॉलरशिप आदि की जरूरत पड़ती है। ये सब सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी है।

    एक और उदाहरण लेते हैं। कानून कहता है कि महिलाओं को भी रोजगार, नौकरी करने का समान अधिकार है, लेकिन अगर कार्य स्थल पर यौन शोषण के विरुद्ध कानून न हो, मातृत्व के दौरान लीव का प्रावधान न हो, बच्चों के लिए डे-केयर की सुविधा न हो तो फिर कार्य स्थल पर बराबरी का अधिकार कागज़ी मात्र होगा, वास्तविक नहीं।

    तात्पर्य यह है कि सिर्फ कह देना कि हम सब बराबर है, पर कोई एक्शन न लेना- यह पर्याप्त नहीं है। कानूनी कागज़ों में बराबरी की घोषणा करना महत्वपूर्ण कदम है, पर वह सिर्फ पहला कदम है। राज्य को उसके आगे बढ़कर एक्शन लेने की जरूरत है।

    (जैसा कि सुरभि करवा ने अपने भाषण में कहा)

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