किफायती दवाओं के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का नोटिस और किफायती जेनेरिक दवाओं के बचाव में लड़ी गयी लंबी कानूनी लड़ाई का लेखा- जोखा

Alok Rajput

29 Aug 2023 7:56 AM GMT

  • किफायती दवाओं के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का नोटिस और किफायती जेनेरिक दवाओं के बचाव में लड़ी गयी लंबी कानूनी लड़ाई का लेखा- जोखा

    जेनेरिक दवा का कानूनी मतलब और सुप्रीम कोर्ट का जेनरिक दवाओं के पक्ष में नोटिस

    सामान्य बोलचाल की भाषा में 'पेटेंट दवाई' या फिर किसी भी दूसरी पेटेंट चीज का मतलब ये होता कि यदि किसी भी व्यक्ति या फिर संस्था ने किसी चीज की सबसे पहले खोज कर के उस चीज का कानूनी रूप से पेटेंट करा लिया तो उस व्यक्ति या संस्था का यह विशेषाधिकार होगा कि वो पेटेंट चीज को अपनी सुविधा के अनुसार बना कर बेचे या फिर किसी अन्य काम के लिए उसका प्रयोग करे, और अगर कोई अन्य संस्था उस पेटेंट चीज का उत्पादन या प्रयोग करने की कोशिश करती है तो यह कानूनन अपराध माना जायेगा।

    भारत में पेटेंट की पूरी प्रक्रिया से संबंधित गतिविधियों का संचालन पेटेंट एक्ट (1970) और मुख्य रूप से इस एक्ट में वर्ष 2005 में हुए संशोधन की नीतियों के अनुसार होता आया है।

    दवाओं के क्षेत्र में वो सभी दवाएं जिनका पेटेंट नहीं हुआ होता है या फिर पेटेंट की समय सीमा खत्म हो गयी होती है उनको जेनेरिक दवाई के नाम के नाम से जाना जाता है। क्योंकि जेनेरिक दवाइयों में मुख्य रूप से वो ही केमिकल मॉलिक्यूल होते है जो पेटेंट दवाइयों में पाया जाता है, जेनेरिक दवाएं भी बीमार लोगों को रोगों से उबरने में उतनी ही मदद करती है जितनी की पेटेंट दवाइयां। लेकिन जेनेरिक दवाइयों के साथ सुविधा ये होती है कि पेटेंट दवाइयों की तुलना में जेनेरिक दवाईया कई गुना सस्ती होती है जिससे बाजार में ग्राहकों की जेब पर कम भार पड़ता है। हालांकि ब्रांडेड पेटेंट दवाओं के पक्ष में ये धारणा आम है कि इन दवाओं की गुणवत्ता को जेनेरिक दवाओं की तुलना में कहीं ज्यादा अच्छे तरीके से नियंत्रित किया जाता है।

    सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.वी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा की बेंच ने बीते 19 अगस्त को पर्यावरण के क्षेत्र में और कानूनी मामलों में पारदर्शिता बढ़ाने के लक्ष्य से काम करने वाले एक्टिविस्ट किशन चंद जैन की जनहित याचिका (PIL) पर सुनवाई करते हुए किफायती जेनेरिक दवाओं के पक्ष में नोटिस जारी किया। किशन जैन की जनहित याचिका मे यह मांग की थी कम से कम जिन दवाइयों का पेटेंट नहीं है उनके व्यावसायिक नाम पर रोक लगाई जाये (बरना उदाहरण के तौर पर बाजार में 'डोलो' और 'कैलपाल' के दो अलग-अलग व्यावसायिक नामों से मौजूद एक समान पेरासिटामोल दवा से ग्राहको के बीच भ्रम पैदा होता है और इस भ्रम का उपयोग करके फार्मास्यूटिकल कंपनियां मनमाने दामों पर दवा बेचती है)। इसके अतिरिक्त किशन चंद जैन ने मांग की कि उन डॉक्टरों के खिलाफ सख्त कारवाई होनी चाहिये जो कानून के मुताबिक जेनेरिक दवाओं का स्पष्ट बड़े अक्षरों मे अपने मरीजों को पर्चा नहीं लिखते है। जैन ने यह भी मांग की थी कि जिन दवाओं के दामों का निर्धारण नेशनल फार्मास्यूटिकल रेगुलेटरी एजेंसी (NPRA) नहीं करती है (non- scheduled drugs) उन दवाओं और जेनेरिक दवाओं के दामों को तय करने के लिये स्पष्ट दिशा निर्देश जारी किये जाये।

    जैसा कि जैन ने अपनी याचिका में राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले का सहारा लिया था, जिसमें कोर्ट ने किफायती स्वास्थ्य सेवाओं को आर्टिकल 21 के जीवित रहने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से जोड़कर देखा था, सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने नोटिस में किफायती दवाओं की उपलब्धता को स्वस्थ रहने के अधिकार को पूरा करने के लिये जरूरी माना।


    जेनेरिक दवाएं और तमाम कानूनी दांवपेच

    वर्तमान में भारत विश्व में किफायती दरों पर जेनेरिक दवा की सप्लाई करने वाला सबसे बड़ा देश है। वर्षों से चली आ रही कानूनी लड़ाई ही भारत की इस उपलब्धि का मुख्य कारण है।

    पेटेंट संबंधी मामलों पर निर्णय लेने के लिये भारत का पहला कानून, इंडियन पेटेंट एंड डिजाइन एक्ट (1911), था। 1947 में भारत की आजादी के बाद क्योंकि यह पूरी तरीके से स्पष्ट था कि कैसे अंग्रेजो की गुलामी (उपनिवेशवाद) के पूरे दौर मे भारत के उद्योगों को खत्म करके अंग्रेजों ने अपने देश, इंग्लैंड, में उद्योगों को बढ़ावा दिया है, भारत की सरकार ने 1949 में लाहौर हाईकोर्ट में कानूनी मामलों के प्रसिद्ध जानकार बक्शी टेक चंद की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जिसका काम ये था कि वो ब्रिटिश समय में बनाये गये पेटेंट संबंधी कानूनों का भारत की अर्थव्यवस्था, समाज व उद्योगों पर पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा करे। चूंकि बक्शी चंद कमेटी के हिसाब से ब्रिटिश दौर के पेटेंट कानूनों ने भारत के हितों पर बहुत गलत प्रभाव डाला था इसलिए 1957 में पेटेंट कानूनों मे बदलाव करने के लक्ष्य से एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज एन. राजगोपाला आयंगर की अध्यक्षता में एक दूसरी कमेटी का गठन किया गया। चंद और आयंगर कमेटी के सुझावो को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने पेटेंट बिल 1965 को पार्लियामेंट में सर्वसम्मति से पास कराने की कोशिश की लेकिन मार्च 1967 मे लोकसभा के भंग हो जाने से यह बिल 1970 में ही पास हो पाया. आजकल हम इस बिल को पेटेंट एक्ट (1970) के नाम से जानते है।

    पेटेंट एक्ट (1970) का आर्टिकल 5 किसी भी चीज, जैसे दवा, के ऊपर किसी भी व्यक्ति या संस्था को कोई पेटेंट नहीं देता बल्कि उस चीज को बनाने के तरीके, जैसे की कोई केमिकल प्रोसेस, पर पेटेंट को कानूनी मंजूरी देता है। लेकिन किसी चीज को बनाने के तरीके पर पेटेंट मिलने के बाद कोई व्यक्ति या संस्था हमेशा के लिये उस तरीके पर एकाधिकार नहीं जमा सकती क्योंकि पेटेंट एक्ट (1970) का आर्टिकल 53 इस प्रकार के पेटेंटो की समय सीमा को कम करने का काम करता है। साथ ही साथ पेटेंट एक्ट (1970) का आर्टिकल 83 यह कहता है कि भारत में पेटेंट की नीति का उद्देश्य केवल ये नहीं है कि किसी चीज को बनाने और बेचने का अधिकार किसी एक संस्था को दे दिया जाये। बल्कि पेटेंट देते समय सरकार का उद्देश्य यह है कि नयी- नयी चीजों की खोज करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जाये। आर्टिकल 83 यह भी कहता है कि कोई भी पेटेंट सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर फैसले लेने से रोक नहीं सकता।

    पेटेंट एक्ट (1970) के आर्टिकल 5, आर्टिकल 53 और आर्टिकल 83 से फायदा ये हुआ कि बहुत सी वो दवाएं जिन को बनाने का विशेषाधिकार तमाम विदेशी कंपनियो के पास होता था अब उन दवाओं को भारत की फार्मास्यूटिकल कंपनियां बिना किसी कानूनी पेच के भारत में बनाकर सस्ते दामों पर बेचने लगी। इन्हीं सस्ती लेकिन पेटेंट दवाओं की तरह लोगों को रोगों से निजात दिलाने वाली दवाओं को जेनेरिक दवाएं कहा जाता है। इन जेनेरिक दवाओं ने भारत ही नहीं देश- दुनिया के तमाम लोगों को साल दर साल सस्ती और बढ़िया स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई।

    लेकिन 15 अप्रैल 1994 को अन्य 116 देशों के साथ उरुग्वे राउंड एग्रीमेंट पर दस्तखत करके भारत वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन (WTO) का हिस्सा बन गया जिससे भारत को 'ट्रेड रिलेटेड आस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स' (TRIPS) के नियमों के अनुसार अपने आर्थिक, प्रशासनिक और न्यायपालिका संबंधी ढांचे को बदलने के लिये मजबूर होना पड़ा।

    TRIPS के प्रभाव में आकर पेटेंट एक्ट (1970) में साल 2005 में बहुत बड़े बदलाव किये गये। इन बदलावों के ही कारण जहां पहले प्रोडक्ट नहीं बल्कि प्रोडक्ट को बनाने के तरीके का पेटेंट दिया जाता था अब सीधे-सीधे प्रोडक्ट का ही पेटेंट दिया जाने लगा। जिससे एक बार फिर से भारत की फार्मास्यूटिकल कंपनियों के हालात वैसे ही हो गये जैसे 1970 के पहले हुआ करते थे। भारत की कंपनियों के लिये बिना किसी कानूनी अड़ंगे के जेनेरिक दवाओं को बनाना अब फिर से मुश्किल हो गया। और क्योंकि पेटेंट की समयसीमा बढ़ाकर 20 साल कर दी गयी जेनेरिक दवाओं को बनाने वाली कंपनियों की दिक्कतें और भी ज्यादा बढ़ गयी।

    इन सब दिक्कतों के बावजूद जब ग्लोबल ताकते भारत के कानून को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश कर रही थी भारत की न्यायपालिका ने पेटेंट एक्ट (2005) के सेक्शन 3 के क्लॉस 'd' में कुछ ऐसी नीतियों को शामिल किया जिससे भारत के हित सुरक्षित रह सके।

    नोवार्टिस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

    क्योंकि बहुत सी फार्मास्यूटिकल कंपनियां दवाओं पर अपना एकाधिकार बनाये रखना चाहती है इसलिये भारत के साथ- साथ दुनिया भर के देशों में पेटेंट दवा को दूसरी दवा के साथ मिलाकर या दवा की मात्र पैकिंग बदलकर कथित नयी दवा को फिर से पेटेंट कराने का हथकंडा फार्मेसी जगत में बहुत ही आम है। फार्मास्यूटिकल कंपनियों की इस धोखाधड़ी से बचने के लिये भारत की न्यायपालिका ने पेटेंट एक्ट (1970) मे 2005 में संशोधन करते समय सेक्सन 3 में क्लॉस 'd' शामिल किया था। 3(d) क्लॉस ये कहता है कि दवा में सिर्फ छोटा- मोटा दिखावटी बदलाव कर के कोई भी संस्था दवा पर अपना पेटेंट बरकरार नहीं रख सकती। दवा पर पेटेंट को तभी बरकरार रखा जायेगा जब पेटेंट के लिये लाई गयी कथित नई दवा रोगी के रोग को सही करने के लिये कुछ ऊंचे स्तर पर काम करती हो (enhanced therapeutic efficacy).

    2006 में नोवार्टिस नाम की दवा कंपनी ने ल्यूकेमिया रोग के लिये अपनी दवा Glivec पर पेटेंट लेने के लिये मद्रास पेटेंट ऑफिसर को अर्जी दी थी। लेकिन मद्रास पेटेंट ऑफिसर ने नोवार्टिस की अर्जी को ये कह कर खारिज कर दिया कि Glivec दवा मे मौजूद Imatinib mesylate ही ल्यूकेमिया के रोगी को राहत पहुँचाता है, सिर्फ Imatinib mesylate को beta crystalline imatinib mesylate में बदल देने से दवा की रोग के खिलाफ लड़ने की क्षमता बढ़ नहीं जाती है इसलिये beta crystalline imatinib mesylate का नोवार्टिस को पेटेंट नहीं दिया जा सकता है। अंत में पूरा मामला Intellectual Property Appellate Board और मद्रास हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने नोवार्टिस की अर्जी यह कर के खारिज कर दी कि beta crystalline imatinib mesylate का नोवार्टिस को पेटेंट एक्ट 1970 (2005) के सेक्शन 3(d) का उल्लंघन है।

    नोवार्टिस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया का केस इस बात की बानगी है कि कैसे समकालीन समय मे न्यायपालिका ने जेनेरिक दवाओं की रक्षा करके भारतीयों को सस्ती दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की है। किशन चंद जैन की जनयाचिका को सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट की तरफ से 19 अगस्त को जेनेरिक दवाओं के पक्ष में जारी किया गया नोटिस भारत की न्यायपालिका का स्वास्थ्य के अधिकार के प्रति प्रतिबद्ध होने की निशानी है।

    हालांकि गहरा प्रश्न यह है कि अगर जेनेरिक दवाएं सभी प्रकार से लाभकारी हैं तो न्यायपालिका बिल्कुल ही कड़े तरीके से बाजार में जेनेरिक दवाइयों का वर्चस्व सुनिश्चित क्यों नहीं करती है? इसका एक मुख्य कारण शायद यह है कि जेनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता कथित रूप से ब्रांडेड पेटेंट दवाओं की तुलना में कम होती है जिससे मरीज का स्वास्थ्य बिगड़ने का खतरा बना रहता है। वर्ष 2013 में छत्तीसगढ़ में करीब तेरह महिलाओं की, नसबंदी के ऑपरेशन के बाद कथित रूप से कम गुणवत्ता की एंटीबायोटिक दवाएं खाने से, मौत हो गयी थी। ठीक इसी तर्ज पर वर्ष 2022 में गाम्बिया और उज्बेकिस्तान में भी भारत में बने कथित रूप से नीचे दर्जे का कफ सीरप पीने की वजह से बहुत से बच्चों की मौत होने पर भी बहुत ही ज्यादा विवाद हुआ था।

    Next Story