राम जन्मभूमि विवाद और कानूनी दांव-पेंच: पढ़िए सरकार और अदालत के क़दमों का अबतक का लेखा-जोखा

LiveLaw News Network

7 Feb 2019 5:14 AM GMT

  • राम जन्मभूमि विवाद और कानूनी दांव-पेंच: पढ़िए सरकार और अदालत के क़दमों का अबतक का लेखा-जोखा

    राम मंदिर पर विवाद का इतिहास आजाद भारत के इतिहास जितना ही विस्तृत है, कई मौकों पर यह मुद्दा या तो राजनीतिक या तो कानूनी लड़ाई में फंसा रहा है। हम आपको आज इस पुरे मुद्दे को संक्षेप में समझने का प्रयास करेंगे।

    आखिर यह पूरा मामला क्या है?
    यह विवाद उत्तर प्रदेश के अयोध्या शहर में एक जमीन के एक भूखंड को लेकर है। यह विशेष स्थल, हिंदुओं में भगवान राम की जन्मभूमि माना जाता है, लेकिन यहाँ बाबरी मस्जिद भी स्थित रही है। सवाल यह भी उठता रहा है कि क्या मस्जिद बनाने के लिए यहाँ स्थित पहले के एक हिंदू मंदिर को तोड़ दिया गया या संशोधित कर दिया गया? वर्ष 1992 में 2 लाख से अधिक कारसेवकों के जमावड़े के बाद बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया था, इसके बाद पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगे भी हुए। बाबरी मस्जिद के विनाश ने ऐतिहासिक विद्वता की परिणति को गति दी थी। बाद में वर्ष 2002 में, अयोध्या से लौट रहे हिंदू स्वयंसेवकों की ट्रेन पर हुए हमले में कई लोग मारे गए थे। इसके बाद गुजरात में दंगे हुए, जिसमें हजारों लोग मारे गए। तो यह साफ़ है कि इस पूरे विवाद के दूरगामी प्रभाव रहे हैं.
    इतिहास में चलता रहा है परस्पर संघर्ष
    हिंदुओं के अनुसार, वर्ष 1528 में बाबरी मस्जिद जिस भूमि पर बनी थी वह 'राम जन्मभूमि' (देव-राजा राम की जन्मभूमि) है। मुग़ल राजा बाबर के सेनापतियों में से एक मीर बाक़ी के बारे में कहा जाता है कि उसने राम के पहले से मौजूद मंदिर को नष्ट कर दिया था और उस स्थल पर बाबरी मस्जिद (बाबर की मस्जिद) नामक मस्जिद का निर्माण कराया था।
    दोनों समुदायों ने इतिहास में इस "मस्जिद-मंदिर" में पूजन अर्चन कार्य किया है, मस्जिद के अंदर मुसलमानों ने और इसके बाहर हिंदुओं ने। हालाँकि, वर्ष 1885 में निर्मोही अखाड़ा के प्रमुख द्वारा एक याचिका दायर की गई थी जिसमें बाबरी मस्जिद के नाम से जाने जाने वाले स्थल पर राम लल्ला की पूजा करने की अनुमति मांगी गई थी। मुख्य मांग मस्जिद के बाहर एक चबूतरा बनाने की थी।
    यह अनुमति नहीं दी गई थी, लेकिन वर्ष 1886 में, फ़ैज़ाबाद अदालत के जिला न्यायाधीश एफईए चामियर ने अपना फैसला दिया और कहा, "यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदुओं द्वारा विशेष रूप से पवित्र भूमि पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया था, लेकिन उस घटना को हुए 356 साल बीत चुके हैं, अब इस शिकायत को दूर करने के लिए बहुत देर हो चुकी है। "
    वर्ष 1950 में एक स्थानीय निवासी गोपाल सिंह विशारद ने दीवानी न्यायालयों में एक शिकायत दर्ज की जिसमें राम लल्ला की मूर्तियों की पूजा करने देने का अनुरोध किया गया था। जहाँ अंदर के परिसर में ताला लगा रहता है, बाहर प्रार्थना की अनुमति दे दी जाती है। इससे पहले वर्ष 1949 में, हिंदू समूहों द्वारा कथित रूप से रखी गई मस्जिद के अंदर भगवान राम की मूर्तियाँ दिखाई दी। दोनों पक्ष की तरफ से मुकदमे दायर किये गए; सरकार द्वारा इस क्षेत्र को विवादित घोषित किया गया और इस आधार पर मस्जिद-मंदिर के द्वार को बंद कर दिया गया था।
    इसके बाद का घटनाक्रम कुछ यूँ रहा
    वर्ष 1959: निर्मोही अखाड़ा ने इस मामले को लेकर तीसरा मुकदमा दायर किया और साइट पर कब्जा करने और राम जन्मभूमि के संरक्षक होने का दावा किया।
    वर्ष 1961: सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ऑफ वक्फ ने मस्जिद के अंदर मूर्तियों को रखने के खिलाफ मामला दर्ज किया और दावा किया कि मस्जिद और आसपास की जमीन इतिहास में कब्रिस्तान हुआ करती थी।
    वर्ष 1984: हिंदू समूहों ने जन्मभूमि स्थल पर राम मंदिर के निर्माण के लिए एक समिति का गठन किया। मंदिर आंदोलन ने इस दौरान गति पकड़ ली। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस आंदोलन का नेतृत्व संभालना शुरू किया।
    वर्ष 1986: एक जिला अदालत ने आदेश दिया कि मस्जिद के द्वार खोले जाएं और हरि शंकर दूबे की याचिका पर हिंदुओं को वहां पूजा करने की अनुमति दी जाए। मुस्लिम, मस्जिद में हिंदुओं को प्रार्थना करने की अनुमति देने के कदम का विरोध करते हैं, एक बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया जाता है।
    वर्ष 1989: विश्व हिंदू परिषद (VHP) ने बाबरी मस्जिद के बगल में एक राम मंदिर की नींव रखी। विहिप के पूर्व उपाध्यक्ष न्यायमूर्ति देवकी नंदन अग्रवाल ने मस्जिद को कहीं और स्थानांतरित करने के लिए कहा। फैजाबाद अदालत में लंबित चार मुकदमों को उच्च न्यायालय की विशेष पीठ को हस्तांतरित कर दिया जाता है।
    वर्ष 1990: विहिप के स्वयंसेवकों ने मस्जिद को आंशिक रूप से नुकसान पहुंचाया। पीएम चंद्रशेखर हस्तक्षेप करते हैं और बातचीत के जरिए मुद्दे को सुलझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे इसमें विफल रहते हैं। सितंबर में, आडवाणी ने अयोध्या आंदोलन के बारे में लोगों को शिक्षित करने के लिए रथयात्रा की शुरुआत की। वह गुजरात के सोमनाथ से यात्रा शुरू करते हैं, और अयोध्या में अपनी यात्रा को समाप्त करते हैं।
    वर्ष 1991: भाजपा प्रमुख विपक्षी पार्टी बनी। और रथयात्रा के प्रचार-प्रसार के दम पर बीजेपी, उत्तर प्रदेश में सत्ता में आती है। मंदिर आंदोलन के लिए गति बढ़ जाती है, क्योंकि अयोध्या में कारसेवकों (स्वयंसेवकों) का आगमन होता है।
    वर्ष 1992: विवादित बाबरी मस्जिद ढाँचे को 6 दिसंबर को कारसेवकों ने शिवसेना, विहिप और भाजपा के समर्थन से गिरा दिया। इसके चलते देश भर में सबसे घातक दंगों होते हैं, जिससे 2,000 से अधिक लोगों की मौत होती है। पी वी नरसिम्हा राव की अध्यक्षता वाली केंद्र सरकार 16 दिसंबर को न्यायमूर्ति एम. एस. लिब्रहान के अधीन जांच आयोग का गठन करती है।
    वर्ष 2001: बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी के दौरान तनाव उत्पन्न हुआ। विहिप ने राम मंदिर निर्माण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की।
    वर्ष 2002: फरवरी 2002 में, गुजरात के गोधरा में एक ट्रेन पर हमला किया गया। यह ट्रेन कारसेवकों को अयोध्या से ला रही थी, इसमें कम से कम 58 लोग मारे गए। राज्य भर में दंगे भड़के और कहा गया कि दंगों के दौरान 1,000 से अधिक लोग मारे गए थे।
    उच्च न्यायालय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को आदेश देता है कि वह यह निर्धारित करने के लिए कि क्या उस स्थल पर पहले मंदिर था, स्थल की खुदाई करे। अप्रैल 2002 में, तीन हाई-कोर्ट न्यायाधीशों ने यह निर्धारित करने के लिए सुनवाई शुरू की कि उक्त साइट किसकी है।
    वर्ष 2003: एएसआई ने यह निर्धारित करने के लिए सर्वेक्षण शुरू किया कि क्या कोई मंदिर उस स्थल पर मौजूद था। एएसआई, मस्जिद के नीचे एक मंदिर की मौजूदगी का प्रमाण देता है। मुस्लिम संगठनों ने इस निष्कर्ष पर संदेह जाहिर किया। सितंबर में, एक अदालत ने कहा कि 7 हिंदू नेताओं पर हिंसा भड़काने और मस्जिद को नष्ट करने के लिए मुकदमा चलाना चाहिए। आडवाणी उप प्रधान मंत्री हैं, और उनपर किसी भी प्रकार का आरोप नहीं लगता है।
    वर्ष 2004: कांग्रेस, केंद्र में सत्ता में वापस आई। उत्तर प्रदेश की एक अदालत ने कहा कि आडवाणी को आरोपों से मुक्त करने वाले पूर्व के आदेश की समीक्षा की जानी चाहिए।
    वर्ष 2005: संदिग्ध इस्लामिक आतंकवादियों ने विवादित स्थल पर हमला किया। सुरक्षा बलों ने पांच कथित आतंकवादियों और एक छठे अज्ञात व्यक्ति को मार डाला।
    वर्ष 2009: जून में, लिब्रहान आयोग, जो विध्वंस के बाद की घटनाओं की जांच करने के लिए स्थापित किया गया था, रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। संसद में हंगामे के बीच पेश इस रिपोर्ट में भाजपा के राजनेताओं को विध्वंस में उनकी भूमिका के लिए दोषी ठहराया जाता है।
    वर्ष 2010 का इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला
    वर्ष 2010 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि दोनों पक्षों के बीच अयोध्या भूमि का विभाजन होना चाहिए। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने शीर्ष अदालत से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक बैच पर सुनवाई करने का आग्रह किया था। सुप्रीम कोर्ट ने स्वामी से पक्षों से परामर्श करने और 31 मार्च को या उससे पहले मामले का उल्लेख करने को कहा।
    इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले में यह कहा गया था कि 'विवादित भूमि राम की जन्मभूमि थी', और उस स्थल पर 'मस्जिद, एक मंदिर के विध्वंस के बाद बनी थी' और 'यह इस्लाम के सिद्धांतों के अनुसार नहीं बनाई गई थी।' कोर्ट ने फैसला किया था कि विवादित भूमि को तीन समान भागों में विभाजित किया जाएगा - राम मंदिर के निर्माण के लिए एक तिहाई हिस्सा राम लल्ला को जायेगा; एक तिहाई हिस्सा इस्लामिक सुन्नी वक्फ बोर्ड को और शेष हिंदू धार्मिक संप्रदाय निर्मोही अखाड़ा के पास जायेगा।
    मई 2011 में, सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य पक्षों द्वारा अपील पर, सुप्रीम कोर्ट ने है कोर्ट के फैसले को रोक दिया। फैसले में यथास्थिति सुनिश्चित की गयी, जिसका मतलब था कि एक अकेला पुजारी मेकशिफ्ट स्थल पर में पूजा करना जारी रखेगा। यह मंदिर के लिए बनाये गए 1993 के अयोध्या अधिनियम में एक कस्टम था। केंद्र द्वारा 13 और 14 मार्च, 2002 के सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद हासिल की गयी 67 एकड़ जमीन पर किसी भी गतिविधि पर प्रतिबंध जारी रहा।
    शीर्ष न्यायालय ने 5 दिसंबर, 2017 को दीवानी अपीलों की सुनवाई की तारीख 8 फरवरी, 2018 तय की। इसने मस्जिद विध्वंस की 25 वीं वर्षगांठ से एक दिन पहले इस विवाद में अंतिम सुनवाई शुरू की।
    मामला ज्यादातर फारसी और अरबी के रूप में विविध रूप में भाषाओं में लिखे गए दस्तावेजों पर आधारित है, जो 16 वीं शताब्दी में लिखे गए हैं।
    वर्ष 2018 में हुई प्रगति और सुनवाई का मंच
    सितंबर 2018 में, सेवानिवृत्त होने के कुछ दिन पहले, तब के भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अयोध्या में साइट के मुख्य सूट पर सुनवाई को फिर से शुरू करने के लिए मंच तैयार किया।
    27 सितंबर 2018 को तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की बेंच ने 2:1 के बहुमत से फैसला दिया था कि वर्ष 1994 के संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है। इस फैसले में यह कहा गया था कि मस्जिद में नमाज पढना इस्लाम धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है।
    तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और जस्टिस अशोक भूषण ने बहुमत के फैसले में मुस्लिम दलों में से एक के लिए पेश हुए वरिष्ठ वकील राजीव धवन की दलीलों को ठुकरा दिया था। उनकी मुख्य दलील थी कि वर्ष 1994 के पांच जजों के संविधान पीठ के फैसले, जिसमे कहा गया था कि "मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है और नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहां तक की खुले में भी", पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।
    यह भी तय हुआ कि 29 अक्टूबर से मुख्य मामले की सुनवाई शुरू हो जाएगी, इसे कुछ लोगों द्वारा सुप्रीम कोर्ट का इस मामले को फ़ास्ट ट्रैक पर डालने का संकेत समझा गया।
    हालाँकि, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने नए CJI के रूप में पदभार संभालने के बाद, उत्तर प्रदेश सरकार की जल्द सुनवाई की याचिका को ख़ारिज कर दिया, और जनवरी के पहले सप्ताह में इन अपीलों को सूचीबद्ध करने का आदेश दिया।
    2019 में अब तक की प्रगति
    अयोध्या रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद जमीन विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में 5 जजों की संविधान पीठ में 10 जनवरी को सुनवाई उस वक्त टल गई जब पीठ में शामिल जज जस्टिस यू. यू.ललित ने इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया क्योंकि वो वर्ष 1997 में बाबरी मस्जिद मामले में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के लिए पेश हो चुके हैं। इसके बाद नई पीठ ने 29 जनवरी को इस मामले की सुनवाई करने का निर्णय लिया।
    राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में इस बीच एक बड़ा ट्विस्ट भी आया, जब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दाखिल कर, बाबरी- रामजन्मभूमि की विवादित भूमि के आसपास अधिग्रहीत की गई "निर्विवाद" भूमि को वापस देने की अनुमति मांगी।
    केंद्र की अर्जी के मुताबिक केंद्र ने अयोध्या में 67.703 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था, जिसमें उस भूखंड को भी शामिल किया गया था, जिसपर बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाने वाले ढांचा स्थित था। ये जमीन अयोध्या अधिनियम, 1993 के तहत अधिग्रहीत की गई।
    विवाद केवल 0.313 एकड़ भूमि से संबंधित है, जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी, और ऐसा कहा गया कि अतिरिक्त भूमि को उसके सही मालिकों को वापस करने की अनुमति दी जानी चाहिए। इसमें 42 एकड़ भूमि रामजन्मभूमि न्यास की है।
    केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के वर्ष 2003 के असलम भूरे बनाम राजेंद्र बाबू केस में फैसले को संशोधित करने की मांग की है जिसमें कहा गया था कि अतिरिक्त जमीन को असल विवाद के निपटारे के बाद वापस किया जाएगा।
    केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि इस प्रक्रिया को "सिविल अपील" के परिणाम के साथ जोड़े बिना, केंद्र को इस अतिरिक्त भूमि को "पुनर्स्थापित करने/वापस करने/अतिरंजित करने/" की अनुमति दें।" यह इसलिए क्यूंकि वर्ष 1993 में, अधिग्रहित की गयी इस अतिरिक्त भूमि पर निर्णय लेने के लिए, सुप्रीम कोर्ट के "विवादित भूमि" द्वारा दिए जाने वाले फैसले तक के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता।
    इससे पहले मुख्य मामले पर सुनवाई हेतु पीठ में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एस. ए. बोबडे, डी. वाई. चंद्रचूड, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर का होना तय किया गया। पीठ में जस्टिस एन. वी. रमना को शामिल नहीं किया गया है, जबकि जस्टिस यू. यू. ललित ने इस मामले की सुनवाई से खुद को पहले ही अलग कर लिया था।
    केंद्र सरकार की भूमिका
    जहाँ इस पूरे मुद्दे पर केंद्र सरकार की ओर से कानून बनाये जाने की मांग की जा रही है, वहीँ यह जानना बेहद जरुरी है कि यह फैसला पूर्ण रूप से सरकार के विवेक पर है। यदि सरकार एक कानून लाने की योजना बनती है, तो यह एक साधारण विधेयक के रूप में होगा, जिसके लिए सरकार को दोनों सदनों में एक साधारण बहुमत की आवश्यकता होगी।
    यह देखा जाना बाकी है कि क्या यह कानून, विवादित भूमि पर मंदिर बनाने का प्रावधान करेगा, या ध्वस्त मस्जिद के आसपास के क्षेत्र में। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही यह निर्धारित कर दिया है कि लंबित मुकदमों को रद्द करने की दिशा में कोई भी कदम असंवैधानिक होगा। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने अयोध्या अधिनियम, 1993 में कुछ क्षेत्रों के अधिग्रहण को पारित कर दिया था, जिससे वह बाबरी मस्जिद के आसपास की भूमि का अधिग्रहण कर सकती थी, उक्त वक़्त इलाहाबाद उच्च न्यायालय भी विवादित याचिकाओं की सुनवाई कर रहा था।
    जब इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, तो 5-न्यायाधीशों वाली बेंच ने इस अधिनियम को बरकरार रखा, लेकिन बहुमत के फैसले ने धारा 4 (3) को रद्द कर दिया, जो एक वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र के बिना लंबित मुकदमों और कानूनी कार्यवाही के उन्मूलन के लिए प्रदान किया गया था।
    अब आगे, इस पूरे मामले पर हमे सुप्रीम कोर्ट में नियमित सुनवाई देखने को मिलेगी और इसी के जरिये इस पूरे विवाद पर कोई हल निकल कर आ सकेगा।

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