जहां पति-पत्नी का विवाद फैमिली कोर्ट में लंबित हो, वहां मुलाक़ात के अधिकार के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका आम तौर पर सुनवाई योग्य नहीं होगी: इलाहाबाद हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

24 April 2024 10:25 AM GMT

  • जहां पति-पत्नी का विवाद फैमिली कोर्ट में लंबित हो, वहां मुलाक़ात के अधिकार के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका आम तौर पर सुनवाई योग्य नहीं होगी: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में माना कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट आम ​​तौर पर मुलाक़ात का अधिकार देने के लिए जारी नहीं की जाएगी, खासकर जब पार्टियों के बीच की कार्यवाही फैमिली कोर्ट के समक्ष लंबित हो। जस्टिस डॉ योगेंद्र कुमार श्रीवास्तव की पीठ ने कहा, "बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट, जैसा कि लगातार माना जाता रहा है, हालांकि अधिकार की रिट है, निश्चित रूप से जारी नहीं की जानी चाहिए, खासकर जब बच्चे की कस्टडी के लिए माता-पिता के खिलाफ रिट मांगी जाती है।"

    पीठ ने उक्त टिप्पणियों के साथ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने अपने एक महीने के बच्चे (वर्तमान में मां की कस्डटी में) से मिलने का अधिकार मांगा था। न्यायालय ने कहा कि जहां तक ​​मुलाक़ात के अधिकार के संबंध में दावे का सवाल है, संबंधित पक्ष के लिए यह हमेशा खुला है कि वह फैमिली कोर्ट के समक्ष एक उचित आवेदन दायर करके उपाय का लाभ उठाए, जहां पार्टियों के बीच वैवाहिक विवादों से संबंधित कार्यवाही लंबित है।

    मामला

    मिथिलेश मौर्य (याचिकाकर्ता संख्या एक) ने अपने एक महीने के शिशु (याचिकाकर्ता संख्या दो) से संबंधित मुलाकात के अधिकार की मांग करते हुए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की, जो वर्तमान में उसकी पत्नी (प्रतिवादी संख्या चार) की कस्टडी में है।

    अदालत को सूचित किया गया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1951 की धारा 9 और 13 के तहत कार्यवाही, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की कार्यवाही और पक्षों के बीच एक आपराधिक मामला लंबित है।

    न्यायालय को यह भी अवगत कराया गया कि याचिकाकर्ता नंबर एक और प्रतिवादी नंबर चार (यानी, पति और पत्नी) अगस्त 2018 से अलग रह रहे हैं, कि उनकी तलाक की कार्यवाही भी फैमिली कोर्ट के समक्ष लंबित है, और याचिकाकर्ता संख्या दो, जो नाबालिग है, वर्तमान में अपनी मां के संरक्षण में है।

    हाईकोर्ट की टिप्पणियां

    शुरुआत में, न्यायालय ने कहा कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट एक विशेषाधिकार रिट है, एक असाधारण उपाय है, जिसे सामान्य कानून के तहत विकसित किया गया है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा और सुरक्षा के लिए हमारे संवैधानिक कानून में शामिल किया गया है।

    न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की प्रकृति की कार्यवाही का उपयोग किसी बच्चे की कस्टडी के सवाल की जांच के लिए नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह रिट असाधारण उपाय की प्रकृति में है। रिट तब जारी की जाती है, जब किसी विशेष मामले में, कानून के तहत प्रदान किया गया सामान्य उपाय या तो अनुपलब्ध या अप्रभावी होता है।

    कोर्ट ने कहा, "बच्‍चों की कस्टडी के मामलों में रिट देने में हाईकोर्ट की शक्ति केवल उन मामलों में लागू होगी, जहां नाबालिग की कस्टडी ऐसे व्यक्ति के पास है, जो उसकी कानूनी कस्टडी का हकदार नहीं है।"

    इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता संख्या दो (नाबालिग बेटी) उस समय लगभग एक महीने की नवजात थी, जब उसकी मां कथित तौर पर वैवाहिक घर छोड़कर चली गई थी। अदालत ने कहा, इसलिए हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम की धारा 6 (ए) के अनुसार, प्रथम दृष्टया, किसी नाबालिग की उसकी मां के साथ हिरासत को अवैध नहीं माना जा सकता है।

    न्यायालय ने यह भी देखा कि मौजूदा मामले में, चूंकि एचएमए के तहत दोनों पक्षों के बीच फैमिली कोर्ट में कार्यवाही लंबित है, इसलिए पति नाबालिग की कस्टडी और मुलाक़ात के संबंध में राहत के आदेश प्राप्त करने के लिए धारा 26 के तहत फैमिली कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल कर सकता है।

    इस पृष्ठभूमि में, न्यायालय ने कहा कि वह बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी करने के लिए अपने असाधारण विशेषाधिकार क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने के इच्छुक नहीं है, और इसलिए, याचिका खारिज कर दी गई।

    केस टाइटलः मिथिलेश मौर्य और अन्य बनाम यूपी राज्य और 5 अन्य 2024 लाइव लॉ (एबी) 265

    केस साइटेशन: 2024 लाइव लॉ (एबी) 265

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