मिर्चपुर में दलितों की हत्या का मामला : दिल्ली हाईकोर्ट ने 20 और लोगों को दोषी ठहराया; कहा, आजादी के 71 साल बाद भी अनुसूचित जातियों के खिलाफ हो रहा है अत्याचार [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

25 Aug 2018 4:27 AM GMT

  • मिर्चपुर में दलितों की हत्या का मामला : दिल्ली हाईकोर्ट ने 20 और लोगों को दोषी ठहराया; कहा, आजादी के 71 साल बाद भी अनुसूचित जातियों के खिलाफ हो रहा है अत्याचार [निर्णय पढ़ें]

    दिल्ली हाईकोर्ट ने शुक्रवार को 20 और लोगों को हरियाणा के हिसार जिले के मिर्चपुर गाँव में एक दलित और उसकी दिव्यांग बेटी को जिंदा जलाने का दोषी पाया। कोर्ट ने इस मामले में पहले सजा पाए 15 अभियुक्तों की सजा के खिलाफ दायर याचिका भी खारिज कर दी।

     न्यायमूर्ति एस मुरलीधर और न्यायमूर्ति आईएस मेहता की पीठ ने 21 आरोपियों कोई बरी किये जाने को सही ठहराया और कहा कि इनके दोष को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं थे।

     मिर्चपुर में दलितों और जाटों के बीच हुई हिंसा के बाद दलित तारा चंद के घर को जाटों ने 21 अप्रैल 2010 को फूंक दिया जिसमें पिता और बेटी ज़िंदा जल गए ।

     जाटों की इस हिंसा के कारण बाद में गाँव के बाल्मीकि समाज के 254 परिवार को मिर्चपुर से भागना पड़ा।

     इसके बाद, 24 सितंबर 2011 को निचली अदालत ने इस मामले में नामित जाट समुदाय के 97 में से 15 लोगों को दोषी करार दिया। इन लोगों ने अब अपनी सजा के खिलाफ अपील की और हिंसा के पीड़ितों और पुलिस ने भी आरोपियों की इस अपील का कोर्ट में विरोध किया और आरोपियों की सजा को बढ़ाने की मांग की।

     कोर्ट ने 20 और लोगों को इस मामले में दोषी करार देते हुए अभियुक्त ठहराए गए लोगों की अपील ख़ारिज कर दी। हाईकोर्ट ने कहा कि निचली अदालत ने ‘अनुमानों’ और ‘अटकलों’ का सहारा लिया। कोर्ट ने कहा, “यह एक ऐसी घटना थी जिसमें जाट समुदाय के लोगों ने बाल्मीकि समाज के घरों को जानबूझकर निशाना बनाया और उनके घरों को एक सुनियोजित तरीके से आग के हवाले कर दिया...सभी सबूतों को बहुत ही ध्यानपूर्वक पढ़ा गया है और ये पर्याप्त रूप से बताते हैं कि जाट समुदायों ने बाल्मीकि समाज के लोगों को सबक सिखाने के लिए बड़े पैमाने पर षड्यंत्र रचा और इसी षड्यंत्र के तहत बाल्मीकि समुदाय के लोगों के घरों में आग लगाई गई।”

     भारतीय समाज में बंधुता और समानता का अभाव

     इस मामले पर फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने विस्थापित परिवारों की वर्तमान स्थिति का भी जायजा लिया और कहा कि जिन दलितों ने मिर्चपुर गाँव में ही रहने का निर्णय किया उन्होंने वर्तमान आपराधिक सुनवाई में अभियोजन पक्ष की कोई मदद नहीं की और जिन्होंने गाँव वापस नहीं आने का निर्णय लिया उन्होंने ने ही इस मामले की जांच और सुनवाई में हिस्सा लिया। कोर्ट ने आगे कहा कि हरियाणा सरकार ने यद्यपि हिंसा के कारण विस्थापित परिवारों के पुनर्वास की बात की है पर मिर्चपुर में नहीं,किसी अन्य शहर में।

    सवाल है कि ऐसा करना क्या संविधान में जिस समानता, सामाजिक न्याय और बंधुता और व्यक्तिगत गरिमा का वादा किया गया है उसके अनुरूप है या नहीं,” कोर्ट ने कहा। इसके बाद कोर्ट ने कहा कि आजादी के 71 साल बाद भी अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ प्रभावशाली जातियों के अत्याचार की घटनाएं आज भी जारी हैं। यह भारतीय समाज में समानता और बंधुत्व के अभाव का सबूत है।

    कोर्ट ने कहा कि आजादी के 71 साल बीत जाने के बाद आज भी अनुसूचित जातियों पर प्रभावशाली जातियों का अत्याचार रुकने का नाम नहीं ले रहा है। मिर्चपुर में 19 और 21 अप्रैल को जो घटना घटी वह इस समाज में दो बात की कमी होने की याद दिलाता है जैसा कि डॉ. बीआर आंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान के अंतिम प्रारूप को संविधान सभा में रखते हुए कहा था और यह है ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ का।”

     झूठे मुक़दमे में फंसाने का आरोप अस्वीकार्य

     कोर्ट ने आरोपियों के इन आरोपों को मानने से इनकार कर दिया कि उन्हें झूठा फंसाया जा रहा है। कोर्ट ने कहा कि इस हिंसा के शिकार लोगों को जो निजी क्षति हुई है वह अकल्पनीय है और इस तरह की बातों पर गौर नही किया जा सकता।

     कोर्ट ने कहा, “प्रभावशाली जाट समुदाय ने जो भय का वातावरण तैयार किया है वह स्पष्ट रूप से इतना गंभीर है कि बाल्मीकि समुदाय के लोगों में अपनी हिफाजत और सुरक्षा को लेकर जो आत्मविश्वास टूटा उसे आज तक बहाल नहीं किया जा सका है...कई पीड़ितों की सारी संपत्ति नष्ट कर दी गई, अनेकों घायल हुए और उनके घर जला दिए गए।

     इस घटना ने इनको(दलितों को) ऐसा जख्म और झटका दिया है कि उनमें से कईयों को इस घटना के कई दिन बाद तक इसके बारे में पुलिस को बताने की हिम्मत नहीं हुई। यही वजह है कि कोर्ट इस मामले में अभियुक्तों की इस दलील को स्वीकार नहीं कर सकता कि पीड़ितों ने मुआवजा पाने के लिए ही उनके खिलाफ झूठे मुक़दमे दर्ज किये हैं।”

     कोर्ट ने निचली अदालत के इस निष्कर्ष को ख़ारिज कर दिया कि यह घटना एक आपराधिक साजिश के तहत नहीं हुई थी। हाईकोर्ट ने कहा कि निचली अदालत 21 अप्रैल 2010 को हुई घटना के फोटो, वीडियो और साईट प्लान को अपने विश्लेषण में स्थान नहीं दिया और इस दिन की घटना के बारे में बचाव पक्ष की दलीलों को मान लिया। कोर्ट ने कहा कि जिस तरह का भयंकर हमला दलितों पर किया गया और इसकी वजह से जान-माल को जितना व्यापक नुकसान हुआ उसे देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि यह कुछ जाट युवकों का कारनामा था, जैसा कि निचली अदालत ने माना। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दलितों की बस्तियों पर पूर्वनिर्धारित और बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से जाटों की भीड़ ने किया था यह आक्रमण।

    कोर्ट ने कहा कि इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि जाटों के हमले के कारण बाल्मीकि समाज के 254 परिवारों ने मिर्चपुर से भागकर वेद पाल तंवर के फार्महाउस में शरण ली। इनमें से अधिकाँश लोगों का अभी तक पुनर्वास भी नहीं हो पाया है।


     
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