राज्य और सुप्रीम कोर्ट की मदद से आरोपी एक दशक तक आपराधिक कार्यवाही को स्थगित करवाता रहा [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

23 Aug 2018 2:51 PM GMT

  • राज्य और सुप्रीम कोर्ट की मदद से आरोपी एक दशक तक आपराधिक कार्यवाही को स्थगित करवाता रहा [निर्णय पढ़ें]

     “यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस मामले के स्थगित होते रहने की वजह से इसकी सुनवाई इन वर्षों में स्थगित रही। इससे जाहिराना तौर पर प्रतिवादी को लाभ हुआ जो हाईकोर्ट द्वारा अभियोगों में बदलाव पर आपत्ति नहीं करने के बावजूद परिवर्तित अभियोगों के लिए भी सुनवाई का सामना नहीं किया।”

    अमूमन आपराधिक कार्यवाही को आरोपी के आग्रह करने पर स्थगित किया जाता है। लेकिन यह अपील जिसको सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने निस्तारित किया गया, अस्वाभाविक है और इसीलिए दिलचस्प भी।

    इस मामले में हरियाणा राज्य अपीलकर्ता है। आरोपियों को एक दशक तक सुप्रीम कोर्ट की ओर से स्थगन का लाभ दिया गया।

    ये आरोपी हैं एक कंपनी के दो निदेशक जिन पर कंपनी के उन सात लोगों की हत्या करने का आरोप है जो इस कंपनी में हुए एक विस्फोट के कारण मची भगदड़ में मारे गए थे।

     वर्ष 2006 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने आरोपी की अपील मान ली और हत्या के मामले को आईपीसी की धारा 304-A में बदल दिया।

     इस बदलाव के खिलाफ राज्य ने 2007 में एक विशेष अनुमति याचिका दायर की। मामले के रिकॉर्ड के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने उस समय अंतरिम स्थगन की अनुमति दी जब विशेष अनुमति याचिका दायर की  गई। तब से अब तक किसी न किसी कारण से यह मामला स्थगित किया जाता रहा।

    न्यायमूर्ति अभय मनोहर सप्रे और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की पीठ ने सोमवार को इस मामले में जो फैसला दिया उसमें कहा कि अपील में कोई दम नहीं है।

    हमारी राय में हाईकोर्ट ने अभियोग की धारा को 302 से बदलकर 304-A करने का जो तर्क और निष्कर्ष इस स्तर पर दिया है उस पर संदेह नहीं किया जा सकता है। पीठ ने यह कहते हुए निचली अदालत को निर्देश दिया कि वह हाईकोर्ट के निर्देश के मुताबिक़ इसकी सुनवाई करे और यह निर्णय करे कि क्या आईपीसी की धारा 304-A के तहत आरोपी के खिलाफ कोई मामला निर्धारित किया गया है या नहीं।

    पीठ ने इसके बाद कहा, “यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस मामले के स्थगित होते रहने की वजह से इस मामले की सुनवाई इन वर्षों में स्थगित रही। इससे जाहिराना तौर पर प्रतिवादी को लाभ हुआ जो हाईकोर्ट द्वारा अभियोगों में बदलाव पर आपत्ति नहीं करने के बावजूद परिवर्तित अभियोगों के लिए भी सुनवाई का सामना नहीं किया।”

    एक दशक पहले दिए गए अंतरिम स्थगन को वापस लेते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने निचली अदालत को इस मामले पर एक साल के अंदर फैसला सुनाने का निर्देश दिया।

    लाइव लॉ ने इसी तरह के एक मामले के बारे में खबर प्रकाशित की थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने एक तकनीकी आग्रह को ख़ारिज करने में एक दशक से ज्यादा समय लिया जिसकी वजह से 2001 में दायर एक आपराधिक शिकायत आज भी लंबित है। इस रिपोर्ट में जो सवाल उठाए गए हैं वे इस मामले के सन्दर्भ में और ज्यादा प्रासंगिक हैं।

    पर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? अगर राज्य पीड़ित की ओर से मामले को अभियोजित करता है, तो क्या उसे क्या पीड़ित की तरह ही खबरदार नहीं रहना चाहिए?

    अगर इस देश की सबसे बड़ी अदालत इस तरह की आपराधिक अपीलों को निपटाने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित करती है जिसे अंततः वह बेकार समझती है, तो अपराधों के भुक्तभोगी को शीघ्र न्याय दिलाया जा सकेगा।


     
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