घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत किसी तरह के राहत के दावे के लिए पति-पत्नी के बीच शादी जैसा संबंध होना चाहिए : बॉम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

1 Aug 2018 11:37 AM GMT

  • घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत किसी तरह के राहत के दावे के लिए पति-पत्नी के बीच शादी जैसा संबंध होना चाहिए : बॉम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़ें]

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत अगर कोई व्यक्ति राहत की मांग कर रहा है तो इसके इए महिला और उसके पति के बीच संबंध शादी जैसी होनी चाहिए।

    औरंगाबाद पीठ के न्यायमूर्ति मंगेश पाटिल की पीठ ने 30 वर्षीया एक महिला की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका ख़ारिज करते हुए उक्त फैसला दिया। इस महिला ने घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनयम (डीवी अधिनियम) की धारा 2(f) की सही व्याख्या की मांग की थी क्योंकि अतिरिक्त सत्र जज ने प्रथम श्रेणी के न्यायिक अधिकारी के फैसले को खारिज कर दिया था जिसमें उसने कहा था कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बीच संबंध “शादी की तरह” था।

    पृष्ठभूमि

    याचिकाकर्ता जैन समुदाय की है और शांताराम उघाडे से शादी में उसको एक बच्चा है। याचिकाकर्ता ने अपनी अपील में कहा है कि उघाडे के साथ उसकी शादी 15 अक्टूबर को एक पारंपरिक तलाक के माध्यम से समाप्त हो गई।

    इसके बाद याचिकाकर्ता प्रतिवादी से मिली जो कि शादीशुदा था और उसको उस समय एक बच्चा भी था। प्रतिवादी चूंकि मुसलमान है,याचिकाकर्ता मुसलमान बन गई और दोनों ने 21 जुलाई 2012 को क़ाजी की उपस्थिति में शादी कर ली। 2013 में उनको एक बच्चा पैदा हुआ।

    पर बाद में विवाद होने के कारण दोनों अलग हो गए। याचिकाकर्ता ने औरंगाबाद के प्रथम श्रेणी के न्यायिक अधिकार के समक्ष डीवी अधिनियम के तहत मामला दायर किया। प्रतिवादी ने इस याचिका का यह कहते हुए विरोध किया कि ये दोनों पहले से ही शादीशुदा हैं इसलिए दोनों के बीच कानूनन शादी नहीं हो सकती। उसने इस बात से भी इनकार किया कि याचिकाकर्ता उसके साथ रह रही है।

    जेएमएफसी ने इस याचिका को यह कहते हुए स्वीकार कर लिया कि दोनों के बीच संबंध “शादी की प्रकृति” का है और उसे डीवी अधिनियम के तहत कई तरह की राहतें दीं।

    फैसला

    कोर्ट ने कहा कि सत्र न्यायाधीश ने वेलुसामी बनाम डी पत्चैआम्मल, 2010 मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया।

    सुप्रीम कोर्ट ने “शादी की प्रकृति” के बारे में जो बातें कही वह इस तरह से थीं-

    [a] जोड़े समाज में पति-पत्नी की तरह रह रहे हों।

    [b] वे शादी करने के क़ानूनी उम्र में हों।

    [c] वे शादी करने की योग्यता रखते हों और अविवाहित बने रहने की योग्यता भी।

    [d] स्वैच्छिक रूप से उनके बीच यौन संबंध अवश्य बने हों और दुनिया की नजर में वे पति-पत्नी हों।

    कोर्ट ने अपने फैसले में निष्कर्षतः कहा -

    एक बार जब यह स्पष्ट हो गया कि डीवी अधिनियम के तहत किसी भी तरह के दावे के लिए दोनों के बीच संबंध शादी की तरह का नहीं था, उनको इस अधिनियम के तहत कोई राहत नहीं मिल सकता। ...जिस तरह के साक्ष्य सामने रखे गए हैं उसके आधार पर अतिरिक्त सत्र जज ने जो निष्कर्ष निकाला है वह सही है और वह डीवी अधिनियम की धारा 2(f) की परिधि में आता है। पुनरीक्षण की अर्जी को ख़ारिज किया जाता है।”


     
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