घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मामले की सुनवाई के दौरान बच्चों को स्थाई संरक्षण में नहीं दिया जा सकता : बॉम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

18 July 2018 5:25 AM GMT

  • घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मामले की सुनवाई के दौरान बच्चों को स्थाई संरक्षण में नहीं दिया जा सकता : बॉम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़ें]

    यह तभी होता है जब संरक्षण आदेश या फिर इस अधिनियम के तहत किसी भी तरह का राहत प्राप्त करने के लिए अगर  कोई आवेदन लंबित है, तो उस स्थिति में पीड़ित पक्ष को यह अधिकार प्राप्त है कि वह बच्चे या बच्चों के अस्थाई संरक्षण की मांग कर सकता है”

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने शाम कुंभकर्ण बनाम योगिता मामले में कहा है कि महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित घरेलू हिंसा अधिनियम,2005 के तहत सुनवाई के दौरान स्थाई संरक्षण का आदेश नहीं दिया जा सकता है।

    न्यायमूर्ति संगीतराव एस पाटिल ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के इस तरह के एक आदेश को निरस्त करते हुए उक्त बात कही। मजिस्ट्रेट ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत दर्ज मामले को निपटाते हुए पति को आदेश दिया था कि वह गर्मियों की छुट्टी के दौरान नाबालिग बच्चे को बालिग़ होने तक की अवधि के लिए अपनी पत्नी के संरक्षण में दे दे। कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि वह इस तरह की व्यवस्था करे कि माँ अन्य छुट्टियों के दौरान अपने बच्चे से मिल सके।

    हाईकोर्ट के समक्ष मुद्दा “अस्थाई संरक्षण” का था जिसका प्रयोग अधिनियम की धारा 21 में किया गया है, कि क्या इसका अर्थ यह है कि सुनवाई के लंबित रहने के दौरान बच्चों को संरक्षण में दिया जा सकता है या ऐसा स्थाई तौर पर उस अवधि के लिए भी किया जा सकता है जब अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर मामले की सुनवाई अभी जारी है।

    कोर्ट ने घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों की चर्चा करते हुए कहा कि धारा 21 के तहत बच्चों का संरक्षण प्राप्त करने की बात अस्थाई है और इससे संबंधित आवेदन पर सुनवाई के दौरान अधिनियम की धारा 12 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष आदेश दिया जा सकता है।

    “अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने “सुनवाई के किसी भी स्तर पर” का अर्थ लगाया है उस स्थिति में भी जब आवेदन पर अंतिम रूप से विचार होता है। उनके अनुसार “सुनवाई के किसी भी स्तर पर” वाक्य का अर्थ सीमित नहीं है और यह सिर्फ आवेदन पर सुनवाई के लंबित रहने के दौरान के लिए ही नहीं है और मजिस्ट्रेट बच्चों का अस्थाई संरक्षण उस समय भी दे सकता है जब आवेदन पर अंतिम रूप से सुनवाई हो रही है,” पीठ ने कहा।

    पीठ ने कहा कि “सुनवाई के किसी भी स्तर पर” के पीछे क़ानून का मंतव्य क्या है इसको समझने के लिए अधिनियम की धारा 19 और 20 को समझने की जरूरत है। विधायिका ने बहुत ही सोच समझकर धारा 19 और 20 में अलग-अलग तरह के उदगार व्यक्त किये हैं जबकि धारा 21 में उसने कुछ और ही कहा है। धारा 21 में जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया है वह स्पष्ट और गैरविरोधाभासी है। धारा 21 में जो उदगार व्यक्त किए गए हैं उसके उद्देश्यात्मक या उदार व्याख्या की जरूरत नहीं है ताकि अंतरिम अवस्था को अंतिम अवस्था तक विस्तारित कर दिया जाए जैसा कि मजिस्ट्रेट ने किया है।”

     

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